मेलानी मोलिटोरोवा और करोल हिंगिस की बेटी मार्टिना हिंगिस का जन्म 30 सितम्बर 1980 को चेकोस्लोवाकिया में हुआ था। हिंगिस के माँ बाप दोनों ही टेनिस खिलाड़ी थे। महज़ 6 बरस की उम्र में मार्टिना के माता पिता का तलाक़ हो गया और मार्टिना अपनी माँ के साथ स्विट्ज़रलैंड आ गईं। यहाँ उनकी मां एक कंप्यूटर टेक्नीशियन एंड्रियाज़ ज़ोग से दुबारा शादी कर लेती हैं। मार्टिना के स्विस पिता कोई कलाकार नहीं थे मगर एक दिन उन्हें एहसास होता है कि इस बच्ची का रुझान टेनिस की तरफ है। वह बच्ची को टेनिस सिखाने का इरादा करते हैं।
... और एक दिन मार्टिना हिंगिस दुनिया की पहली रैंकिंग वाली स्विस खिलाड़ी बनती हैं। ख़ास बात ये है कि इससे पहले ये खिताब किसी भी महिला क्या पुरुष स्विस खिलाड़ी को भी नहीं मिला था।
ये खिताब सिर्फ मार्टिना की टेनिस कोर्ट में की गई प्रेक्टिस का तमग़ा भर नहीं था। इसकी कहानी दशकों में लिखी गई थी। उसके माँ बाप का खिलाड़ी होना और बेटी के लिए टेनिस खिलाड़ी बनने का सपना देखना। माँ बाप के रिश्ते का टूटना। माँ का खुदमुख्तारी भरा फैसला, जब वह घर ही नहीं राज्य भी छोड़ देती है। एक अलग प्रोफेशन के शख्स का एक बच्ची की माँ से शादी करना और उसकी सलाहियतों को परवान चढ़ाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करना।
मार्टिना के नंबर वन बनने के सफर में पेरेंट्स का अलगाव, वतन से बेदखल होना और सौतेलापन जैसे कई मुद्दे सामने आये होंगे मगर इन्हे बेअसर इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इनमे से कोई भी उसके खिताब में रोड़े नहीं लगा सका।
इसके बरक्स जब बात हिन्दुस्तानी महिला खिलाड़ी के तमग़े की की जाए तो मार्टिना जैसे मुद्दे से परे यहाँ हर मोर्चे पर दुशवारियों के झुण्ड होते हैं। ये देश एनीमिया से लेकर कमज़ोर हड्डी वाले बच्चों और औरतों की सूची में सरफेहरित है। यहाँ लड़कियों की पढ़ाई और खेल तो दूर, अस्तित्व भी खतरे में रहा है। वर्ष 2011 में इस देश का सेक्स रेशियो 1000 पुरुषों के मुक़ाबले में 943 महिलाएं था, जिसके वर्ष 2036 तक प्रति 1000 पुरुष पर बढ़कर 952 महिलाएँ होने की उम्मीद है।
इन हालात में उन जज़्बात, मेहनत और हौसलों का अंदाज़ा लगाइये जो एक बच्ची को खेल के मैदान तक पहुंचाता होगा। क्योंकि इन मेहनतों, हौसलों और जज़्बों की पैमाइश का कोई मीटर नहीं इसलिए इसका ज़िक्र दफ़न हो जाता है। ज़िक्र आता है बेटी बचाओ का, खेलो इण्डिया का और इन जैसी तमाम पॉलीटिकल ब्रांडिग का। फिर सरपरस्त को इसका सारा क्रेडिट जाता है और शानदार फोटोशूट की बदौलत इस बात का डंका पीटा जाता है। इस बीच खिलाडियों को पता ही नहीं चलता कि उनके खिताब अपनी क़ीमत खो चुके हैं।
ब्रांडिंग कामयाब हो जाती है और पॉलिटिक्स बताती है कि आपका ये मैडल 15 - 15 रुपये में बाज़ार में बिकता है। एक सियासी के लिए इसकी क़ीमत 15 रुपये हो सकती है मगर एक खिलाड़ी के लिए ये अमूल्य और अमर है। खिलाड़ी अपवित्र तंत्र से हारकर अपने मैडल गंगा में बहाने का फैसला कर रहे हैं।
वह मैडल जो इन खिलाड़ियों ने जीते हैं, उस पर देश का भी अधिकार है। ये मैडल उन सवा सौ करोड़ लोगों का भी प्रतिनिधित्व करते है जिनमे से कुछ खिलाड़ियों के खिलाफ है और बाक़ियों ने चुप्पी साध ली है।
अच्छा लेख,
जवाब देंहटाएंशाम से ही इस खबर को फोलो कर रहा था,
चलो पहलवानों ने इरादा तर्क़ कर किया,
बेशक हिन्दुस्तानी माशेरे में किसी लड़की का इतनी बुलंदी पर पहुंचना उसके बाद इस तरह अपने हक़ के लिये जूझना
पूरे समाज के लिये शर्म का मक़ाम है।
एक एक लफ्ज़ सही है जो मेहनत कर के muqam हासिल करते हैं वही जानते हैं मेडल की कीमत....
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