शनिवार, 5 नवंबर 2022

कहानी- कत्थई आंखे


आखिरकार काम वक़्त पर निपटा और ऑफिस से नीचे आने तक ऊबर भी पहुंच ही गई। फुर्ती से सादिया ने खुद को गाड़ी के अंदर किया। इस वक़्त लोगों का सैलाब ही ऐसा होता है कि ट्रैफिक पुलिस का मिज़ाज ठंडा होने का सवाल ही नहीं। उसके सेट होने से पहले गाड़ी रेंगते हुए रफ़्तार पकड़ चुकी थी। ड्राइवर की तरफ से ओटीपी बड़े ही सलीके से मांगा गया था। उसने अंदाजा लगाया कि या तो इसने अभी अभी शिफ्ट शुरू की है या बाज़ार में बने रहने का जानकार है। 

बिलकुल सामने डूबता हुए सूरज को बादल का गहरा टुकड़ा शायद अलविदा कहने आ गया था। सूरज की ख़ुशी उसकी फूटती सुनहरी लालिमा से बयान हो रही थी। बादल की स्याही  सुरमई होने के साथ किनारों से किरणें बरसा रही थीं। हज़रतगंज से गांधी मार्ग होते हुए डालीगंज तक जाना था उसे। क्लार्क्स अवध पार करते ही जैसे गाड़ियों का शोर थम गया और घर लौटते परिंदों की आवाज़ें बिलकुल साफ़ सुनाई देने लगी थीं। शहीद स्मारक के सामने एक झुण्ड को तितर बितर करती पुलिस रास्ता साफ़ करने में लगी थी। कम रफ़्तार चलती गाड़ी के खुले शीशे से अब ये दृश्य बिलकुल साफ़ नज़र आने लगा था। 

बिलकुल क़रीब पहुंचकर पता चला 'बिलकिस के गुनहगारों को जेल भेजो' वाले प्ला कार्ड लिए एक छोटा सा झुण्ड है। पुलिस इन्हे लगातार हांकते हुए किनारे करने में कामयाब हो रही थी। 10-12 उम्रदराज़ औरतों में 3- 4 नकाबपोश और मुश्किल से 6 आदमी। इन्हे समेटने में लगे दो दर्जन से ज़्यादा पुलिस, जिसमें 8 - 10 महिला पुलिस। इतना कुछ देखते समझते गाड़ी बिना रुके आगे बढ़ती जा रही थी, जब उसके कानों में ड्राइवर की आवाज़ पहुंची। 'बड़ी फुर्सत है, जाने कहां से तमाशा लगाकर काम रोकने आ जाते हैं।' कुछ पल का विराम और फिर आवाज़ आई 'बड़े हमदर्द बने फिरते हैं। हुंह...! ''फुर्सत','हमदर्द'... बस ये दो लफ्ज़ जैसे सादिया के आस पास परिक्रमा करने लगे। जब गाड़ी से उतरकर दरवाज़ा बंद किया तब भी दोनों शब्द साथ ही थे। फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर उसने ऐसे अंदरआने की कोशिश की कि दोनों शब्द बाहर ही रह जाएं। इस कोशिश में खुद को कामयाब महसूस करते हुए वह बज़ाहिर सुकून में नज़र आने की पूरी कोशिश कर रही थी। 

रूटीन को बहाल रखने के साथ पहले उसने पर्स का सामान जगह पर पहुंचाया, टिफ़िन सिंक में, फ़ोन चार्जिंग में और छोटा टॉवल धोने के कपड़ों में। पैरों को जकड़े हुए जूतों से अज़ाद करने के बाद कपड़े बदले और वॉशबेसिन में चेहरा धोते हुए जैसे ही निगाह अपनी आंखों पर पड़ी उसने फ़ौरन खुद से ही नज़रें फेर लीं। बेचैनी का ग्राफ एक बार फिर से हरकत में आया मगर उसे काबू करने के लिए मुंह पोछते हुए वह बालकनी का रुख कर चुकी थी। पेड़ों की देखभाल पर अपना पूरा फोकस ज़माने की कोशिश में आस पास से ही कुछ ऐसा बेखबर हुई कि दाहिनी तरफ वाले गमले के स्टैंड में पैर उलझा ज़रूर मगर उसे डगमगा ही सका। अगले ही लम्हे सादियाने खुद को अपने पैरों पर मज़बूती से खड़ा कर लिया था और अब वह उन गमलों की तरफ देख रही थी, जिन्हे फ़ौरन पानी देने की ज़रूरत थी। करीब 40 गमलों वाली बालकनी में तैयार इस बग़िया में मौसमी फूल, नाज़ुक बेलें और कैक्टस से लेकर बोनसाई तक मौजूद थे। सधी और तराशी हुई बगिया उसके शौक़ और मेहनत का पता दे रही थी। यहां क्वान्टिटी से ज़्यादा क्वालिटी का ख़्याल रखा गया था। मनीप्लांट में बेदम होकर पीले पड़ चुके चंद पत्तों को उसने समेटा और मसलते हुए जिनिया के गमले में डाल दिया। पेड़ों में पानी पड़ चुका तो थकान और तलब ने अंदर ही अंदर सरग़ोशी की - टी टाइम। 

पांच मिनट बाद वह अपनी ईज़ी चेयर पर चाय के साथ थी। कप हाथ में थामे पीठ पीछे तक टिकाने की कोशिश की तो नज़रें सामने कांच के पीछे मौजूद मैडल और सर्टिफिकेट से टकराईं। एक बार फिर उन्हें अनदेखा किया। चाय से उठती भाप को इतने गौर से देखने की कोशिश की कि इस गुबार में अलमारी में देखे मैडल और सर्टिफिकेट ओझल हो जाएं। इस बार बंद आंखों से कुर्सी में टेक लगाई और अपनी मिलकियत को देखना शुरू किया। दूसरी मंज़िल पर टू बीएचके वाला ये छोटा सा फ्लैट ही उसकी जागीर थी। सादिया इस मकान में पांच बरस पहले ही शिफ्ट हुई थी और उससे दो बरस पहले उसने अपनी बैचलर ऑफ़ आर्किटेक्ट की पढ़ाई पूरी की थी। इससे पहले जब उसने इंटर पास किया था तब से अबतक 10 कैलेण्डर बदल चुके थे। 

ख़यालात कलाबाज़ी लगाते हुए दस साल पहले की दुनिया में चले गए। कत्थई आंखों वाली सादिया से बड़ी बहन और छोटा भाई था। बहन की शादी हो चुकी थी और भाई दसवीं में था। पढ़ाई में ठीक ठाक सादिया अपनी क्लास में जिन दो खूबियों के लिए जानी जाती थी, उनमें एक थी उसकी भूरी आंखें। जिसपर मुड़ी पलकें नक़ली होने का एहसास कराती थीं। इन आंखों की तारीफ में बर्थडे या किसी और मौके पर दोस्तें कोरस में कहती थी- 

उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर-मंतर सब

चाक़ू-वाक़ू, छुरियां-वुरियां, ख़ंजर-वंजर सब 

और दूसरी उसकी डिबेट। मुक़ाबले में सामने कोई भी स्टूडेंट हो या मुद्दा, इनाम पर हक़ सादिया का ही होता। कई बार स्टाफ रूम में ये मीटिंग भी हुई थी कि अगर हर बार सादिया को ही मौक़ा दिया गया तो बाक़ी बच्चियां कैसे आगे आ पाएंगी। फिर ये तय हुआ कि इस बार सादिया के बगैर डिबेट हो मगर क्लास की जीत की खातिर बच्चों का बहुमत उसे मुक़ाबले में शामिल करा देता। इंटर तक आते आते सादिया के पास दर्जनभर मैडल और सर्टिफ़िकेट जमा हो चुके थे। 

बारहवीं के इम्तिहान ख़त्म हुए और उसकी दुनिया ही बदल गई। उसने सोचा ही नहीं था कि आंखों का ये रंग उसकी पढ़ाई के लिए तालाबंदी का काम करेगा। ताया के ज़रिए ये रिश्ता आया था। उन्हें सादिया बहुत पसंद आई, अब्बा को भी लोग ठीक लगे। रही सही कसर अम्मी की फ़िक्रों ने पूरी कर दी। 'कलेक्ट्री भी पढ़ा लोगे मियां तो रोटी ही पकानी है। बेटी जितनी जल्दी अपने घर की हो जाए मां बाप की खुशकिस्मती होती है। कम से कम चैन से मौत तो आ सकेगी कि लड़की अपने घर की हुई!'  

वलीमे की दुल्हनको सबसे ज़्यादा कॉम्प्लिमेंट कत्थई आंखों ने दिलाये। उसे स्टेज पर एहसास हो गया था कि उसकी आंखों को दिखाने के शौक़ में कोई उसे नीची नज़र करके बैठने की भी मोहलत नहीं दे रहा था। वीडियोग्राफी और कैमरे की फ़्लैश लाइट ने उसे थका दिया था मगर देखने वालों का दिल नहीं भरता था। फ़ोन की रिंगटोनउसे वापस कमरे में ले आई। अम्मी की कॉल थी। कह रही थीं कि कल वापसी में उसे लेती हुई घर जाए। अम्मी हफ़्ताभर उसके साथ रुकना चाहती थी। उसने बात ख़त्म की और किचन का रुख किया।

रात का खाना और ऑफिस के लंचबॉक्स की तैयारी ने उसे 9 बजे तक व्यस्त रखा था। मगर हाथ पैर ही व्यस्त थे, दिमाग़ में गुज़रे बरसों की रील के कुछ कुछ टुकड़े उसे फ्लैशबैक में उसकी कहानी दिखाते रहे थे। शादी के दो साल तक जब उसे औलाद नहीं हुई और हालात दूसरी बहु के आने का इशारा देने लगे। मियां की झुंझलाहट अकसर पिटाई के बहाने तलाशने लगी। कत्थई आंखे अब ज़्यादातर भीगी रहतीं और डिबेट वाली जुबान सुन्न पड़ गई थी। शादी की तीसरी सालगिरह आई तो वह तलाक़ की इद्दत गुज़ार रही थी। दूसरी बहु बड़ी ही आसानी से मिल गई बस शर्त ये थी कि पहली को छोड़ना होगा। ताया,अब्बू और अम्मी ने होंठ सी लिए थे। केस करना खानदानी रवायतों के खिलाफ़ था। अपनी ही बदनामी होगी इसलिए इस मुद्दे पर कोई बात भी नहीं करता था। कत्थई आंखों ने उसकी पढ़ाई छीन ली थी मगर सूनी कोख ने ये सारे रास्ते फिर से खोल दिए थे। अब उसे कितना भी पढ़ने की इजाज़त मिल गई थी।   

अब इन कत्थईआंखों से उसने जो कुछ देखा पढ़ा और अपना मक़सद बनाया वह था इंटीरियर डिज़ाइनिंग में मास्टर इन 3डी डिज़ाइनिंग। पढ़ाई के दौरान जिस फर्म से खुद को बतौर ट्रेनी जोड़ा था, मास्टर्स पूरा होते होते उनकी वेंडर फर्म में आ चुकी थी। जीवन एक बार फिर से सधा हुआ महसूस होने लगा था। मगर कुछ ही समय के लिए। छोटे भाई की शादी के साथ उसे अपने ही घर में ग़ैर होने का एहसास होने लगा। जिस भाई ने कभी गिलास उठाकर सिंक में नहीं डाला था अब वही ख़ुशी ख़ुशी वाशबेसिन धोने लगा था। उसने जान लिया कि अब यहां हक़ से नहीं सिमट कर रहना होगा। बेक़द्री के दिन भूले नहीं थे उसे। इस बार वह नया रूप धारकर आती दिखाई दे रही थी। मगर इस बार घोर मनमुटाव के बाद जीत उसकी हुई। घर वालों की 'दुनिया क्या कहेगी' की दलीलें उसकी ज़िद के आगे चकनाचूर हो चुकी थी। 

आखिरकार घर से कुछ ही दूरी पर बने इस अपार्टमेंट में उसने अपने नाम का टू बीएचके फ्लैट खरीद लिया था। यहां उसकी अपनी छोटी सी गृहस्थी थी। दिनभर नौकरी के अलावा अकसर या तो भाई भावज या फिर बहन भांजे छुट्टी के दिन उसके मेहमान होते या फिर वह किसी के घर चली जाती। सोने के लिए बिस्तर तक आई तो साढ़े दस बज चुके थे। साइड टेबल पर पानी की बोतल रखते हुए फ़ोन उठाया और ज़रूरी व्हाट्सएप मैसेज का निपटारा शुरू किया। फेसबुक आईडी थी मगर उसे चलाने का समय नहीं था। फेसबुकिया व्यहवार उसे ज़रा बोरियत से भर देता था। 'लाइक लो, लाइक दो' का फंडा मेन्टेन रखना उसे अपने बस के बाहर लगा था। कुछ ग्रुप्स में सरसरी सी निगाह डाली कि किसी की सालगिरह या वेडिंग एनिवर्सरी हो तो विश कर ले। मगर यहां भी बिल्क़ीस बानों की तस्वीरें नज़र आईं। इन्साफ की पुकार करती अलग अलग नारों वाली फोटोज़ ने उसका ध्यान एक बार फिर से शहीद स्मारक के उस छोटे से झुण्ड तक पहुंचा दिया था। दिमाग़ में ड्राइवर के शब्द 'फुर्सत' और 'हमदर्दी' एक बार फिर से गूंजने लगे थे। 

अनायास ही उसकी उंगलिया स्क्रीन के दृश्य बदलती चली गईं और अब वह जिस जगह पर थी वहां ब्लॉक नंबर की एक लंबी लिस्ट नज़र आ रही थी। ये उन लोगों की लिस्ट थी जिनके पास फुर्सत और हमदर्दी का बड़ा भारी स्टॉक था। इनमें मज़हब, ज़ात और क्लास का कोई झगड़ा नहीं था। कुछ बहुत अमीर थे, किसी के पास भारी भरकम रसूख थे तो किसी के पास एक लम्बी उम्र का तजुर्बा। इन सभी को उससे हमदर्दी थी, इतनी के उसके लिए फुर्सत ही फुर्सत लिए बैठे थे ये सब। कइयों के पास तो अपनी बीवी बच्चे भी थे मगर फिर भी उसके लिए फुर्सत और हमदर्दी का सोता फूटा करता था उनके पास। इनमें से कई नंबरों को उसने झेला था। सिर्फ इसलिए कि ऑफिस कनेक्शन में आते थे। दुनिया के सामने बड़े ही शालीन थे। घर में रहते तो आलिशान ठिकाना, सड़क पर आते तो क़ीमती गाड़ी और ऑफिस में होते तो केबिन की सबसे ऊंची कुर्सी के अलावा क़ीमती कपड़े और चुनिंदा बोल उनके क़द की ऊंचाई  को बहुत बढ़ा देते थे। व्यस्त इतने कि स्टाफ की बात कभी बैठ कर नहीं सुनी। ज़रूरतमंद बड़ी ड्राफ्टिंग से तैयार की गई अपनी फ़रियाद उनको तब सुनाता जब वह केबिन से आ या जा रहे होते। इस बीच भी एक कान से वह फ़ोन पर किसी खास बात में लगे होते। मगर इस बिज़ी शेड्यूल के बावजूद भी सादिया के लिए उनके पास फुर्सत थी। मज़लूमऔरत होने के नाते उन्हें सादिया बहुत हमदर्दी थी। 

अपने चारों तरफ फुर्सत से भरे हमदर्द लोगों के हुजूम का साया हर दिन बढ़ता ही जा रहा था। इतना कि उसे अपने आसपास न होते हुए भी ऐसे ही लोग महसूस होते। कभी कभी तो लगता था कि घर के रोशनदान, खिड़कियां, नल और गैस के बर्नर से भी ये फुर्सत वाले हमदर्द लोग बरामद होने लगेंगे। ठीक उसी तरह जैसे अंग्रेजी एनीमेशन फिल्मों से डायनासोर बरामद होने लगते हैं और लगता है इनका अस्तित्व सारी धरती को अपने साये में ले लेगा। हमदर्दियां और फुर्सत का ये बवंडर उसकी तरफ बढ़ता आ रहा है। न चाहते हुए भी उसे अपनी गिरफ्त में जकड़ने के लिए। वह बेसुध भाग रही है। इस बवंडर ने उसकी डिबेट वाली आवाज़ को दबा दिया है। सारे मैडल इस फुर्सत वाले हमदर्द लोगों के पैरों तले मसलते जा रहे हैं और सर्टिफ़िकेट के पुर्ज़े हवा में बिखरकर धूल और गुबार में गुम होते जा रहे हैं। 

अचानक नोटिफिकेशन की चमक से स्क्रीन जगमगाया तो वह भी जैसे होश में आ गई। ब्लॉक लिस्ट बंद करते हुए कुछ और भी यादआया। फ़ोन की इस ब्लॉकलिस्ट में फुर्सत और हमदर्दी रखने वाले उन लोगों के नाम ही नहीं थे जिनके असभ्य तरीकों से छुटकारा पाने के लिए उसने वुमेन हेल्प लाइन की मदद ली थी। अकसर कोई न कोई अनजान उसका नंबर पाने में कामयाब हो जाता। इनका अंदाज़ सभ्य नहीं था, इन्हे वह जानती भी नहींथी, इनसे कोई ऑफिशियल राब्ता भी नहीं था मगर बिना रुके फ़ोन करने की बपौती थी इनके पास। पहली बार जब सादिया ने वुमेन हेल्प लाइन की मदद ली थी तो झिझक का एक साम्राज्य उसे घेरे था। मगर हर अगली कंप्लेंट इस झिझक को निगलती गई और आज ब्लॉक लिस्ट के बढ़ते नंबर और वुमेन हेल्प लाइन की कंप्लेंट उसके रूटीन का हिस्सा बन चुके हैं। इसके बावजूद भी सादिया ने खुद को अपने ही बिस्तर पर सिमटा पाया। उस घर के बिस्तर पर जिसकी नेमप्लेटमें उसका अपना नाम लिखा था। जिसका बिजली का बिल भी वही अदा करती थी और जिसकी रसोई का राशन भी उसकी जेब से आता था। धीरे अपने पैर फैलाते हुए उसने खुद से सवाल किया-'ऐसे कब तक चलेगा?' पीछे मुड़कर देखती तो लगता बहुत लंबा सफ़र तय करके आई है। आगे का कुछ पता नहीं था मगर इतना यक़ीन था कि एक लम्बा रास्ता अभी भी बाक़ी है। ...कैसे? ...कब? ...कब तक?  

नींद का दूर दूर तक पता नहीं था। फोन रखा और टेबल से पानी उठाकर गला तर किया। फ़ोन की तरफ देखा तो सवाल उभरा- अगर ब्लॉक का ऑप्शन न होता या वुमेन हेल्प लाइन न होती? ये सब हमेशा से तो नहीं था न? मतलब पढ़ाई, नौकरी और मकान के बाद भी उसके हिस्से की कुछ और कोशिश अभी भी बाक़ी थी। या... शायद उसके हिस्से का जवाब अभी बाक़ी था। नहीं नहीं... शायद नहीं।...नहीं क्यों? ...जवाब तो देना ही होगा! यक़ीनन उसके हिस्से का जवाब अभी बाक़ी था। उसके अपने अस्तित्व की पहचान बनाने वाला जवाब। फिर अचानक उसकी निगाह अलमारी की तरफ़ उठी। नाइट बल्ब में भी कांच के पीछे रखे सर्टिफ़िकेटऔर मैडल उसे झिलमिलाते हुए महसूस हुए। सारी तनी हुई नसें ढीली पढ़कर हल्की सी मुस्कानमें बदल गईं और धीरे धीरे वह पूरे बेड पर फैलती चली गई। 

नींद कब आई पता नहीं मगर सुबह आंख वक़्त पर खुल गई। ऑफिस जाने की तैयारी के साथ वह लगातार गुनगुनारही थी। दरवाज़ा लॉक करते हुए उसे याद था कि इसे खोलते वक़्त अम्मी का साथ होगा। लिफ़्ट लेने की आदत नहीं थी, सीधे सीढ़ियों का रुख किया और जब ऑफिस में लॉगिन करते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो बिलकुल सही वक़्त पर उसकी इंट्री हो चुकी थी। रूटीन का काम निपटने के बाद अम्मी की खैरियत ली और ब्लॉक लिस्ट से एक नंबर आज़ाद किया। इधर से हेलो, गुड मॉर्निंग लिखते ही उधर से इमोजी वाले गुलाबों में लिपटा जवाब आया, 'ज़हे नसीब'। हुक्म कीजिये। बड़े ही सलीके से खैरियत पूछी और जब लगा रस्मी बातें पूरी हो चुकी हैं तो उसने सवाल किया -'क्या आपका थोड़ा वक़्त मिल सकता है?' 'हुक्म कीजिए। सब आपके लिए ही हैं।' 'जवाब आते ही उसने लिखा आपके साथ प्रोटेस्ट में शामिल होना चाहते हैं।' फ़ौरन ही अगली लाइन लिखी- 'बिलक़ीस के लिये।' लगातार टाइपिंग का स्टेटस अचानक गायब हो गया था। दोनो मैसेज पर ब्लू टिक बता रहे थे कि उसने अपनी बात सामने वाले तक पहुंचा भी दी है। ब्लू टिक देखकर उसे तसल्ली हो चुकी थी और इस बात का यक़ीन भी कि अब इस नंबर से कोई रिप्लाई नहींआएगा। उसने नंबर को लिस्ट से रिमूव किया और फ़ोन को लैपटॉप के बराबर रख दिया था। इस यक़ीन के साथ कि अब इस नंबर को दोबारा ब्लॉक करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। कत्थई आंखों की चमक कुछ और बढ़ गई थी।  

साभार- संडे नवजीवन  

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