बुधवार, 21 सितंबर 2022

जहां चार यार: एक अच्छी थीम की हत्या के साथ महिला आज़ादी का मज़ाक़ उड़ाती है

अगले दरवाज़े से महिला आज़ादी की चौखट फलांगती फिल्म 'जहां चार यार' पिछले दरवाज़े से उनके पिंजरे का इंतज़ाम करती नज़र आती है। या ये कहें कि इस फिल्म के बहाने से आज़ादी के नाम पर कुछ ऐसा प्रस्तुत किया गया है जिसका अंजाम बेड़ियां हो सकती हैं। प्रोड्यूसर विनोद बच्चन और राईटर डायरेक्टर कमल पांडेय की जुगलबंदी वाली इस पेशकश को महिला सशक्तिकरण से जोड़ें तो भविष्य में ये उनको अभी तक मिले अधिकार छीनने का प्रयास नज़र आता है। 

25 बरस पहले आज़ादी के नाम पर करण जौहर की सिमरन अगर यूरोप टूर पर जाने का सपना देखती थी तो आज उसका अगला चरण शादी के बाद कुछ सिमरनों का दारू पीना कैसे हो सकता है? वह भी सामानांतर सिनेमा की आड़ में। दर्शक से पहले फिल्म मेकर्स को महिला आज़ादी, महिलाओं के मुद्दे और उनकी लड़ाई को जानने की ज़रूरत थी। वही आज़ादी जिसके लिए सदियों की लम्बी मशक्कत का इतिहास है। वही आज़ादी जो आज भी 10वीं और बारहवीं के इम्तहानों में बड़ी संख्या में बड़ी संख्या में लड़कियों की कामयाबी दर्ज कराती है और फिर ग्रेजुएशन के बाद यही प्रतिशत काफूर हो जाता है। अगर इन काफूर हो चुकी लड़कियों का सपना गोवा ट्रिप, सिगरेट और दारु था तो बारहवीं और ग्रेजुएशन तक की ऐसी बेमानी पढ़ाई का कोई मतलब ही नहीं। ऐसे में इस फिल्म का सबसे पहला विरोध महिला मुक्ति मोर्चा की ओर से बनता है। इस स्पष्टीकरण के साथ कि न तो ये महिला आज़ादी है और नहीं महिला आंदोलन का उद्देश्य इस आज़ादी को पाना है। 

इस पूरी फिल्म में अगर कुछ सुन्दर है तो इसकी थीम मगर उसका भी कहानी के ज़रिये कचरा कर दिया गया है। ‘तनु वेड्स मनु’ और ‘शादी में जरूर आना’ जैसी फिल्मों से विनोद बच्चन ने हिंदी सिनेमा को कॉमर्शियल सिनेमा के बावजूद बहुत कुछ दिया था मगर 'जहां चार यार' दिखाकर उन्होंने आधी आबादी की परवरिश और नैतिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। ऐसा सिनेमा पाबंदी के अलावा शायद और कुछ नहीं दे सकता। आज भी बेटियों की बेदाग़ परवरिश कराने वालों ने बड़े ही संकोच के साथ उन्हें पढ़ाने का फ़र्ज़ ज़रूर निभा रहे हैं मगर उनके बेहतर भविष्य के लिए, जहांअपनी शिक्षा के बल पर उस माहौल के निर्माण मुमकिन हो जिसमे वह कम्फर्ट ज़ोन को खुद बना सकें न कि निकोटिन और अल्कोहल के साथ परिवार और ज़िम्मेदारियों से पिंड छुड़ाने के लिए। 

हालांकि एक मर्डर मिस्ट्री सुलझने के बाद कहानी ये सबक़ ज़रूर देती है कि ये रिश्ते दैहिक सुख से ऊपर हैं। घर पर दिनभर खटने वाली औरत का श्रम बाहर काम करने वाले मर्दों से ऊपर हैं। मगर इस सबको जताने के लिए कहानी को जिस टुच्चेपन के साथ बढ़ाया गया है वह मैसेज देने वाले फैमिली ड्रामा से ज़्यादा दिनभर मज़दूरी करने वाले मर्द तबके के लिए बेहूदी और फूहड़ कॉमेडी में इयर और आई टॉनिक बनकर निकला है। फिल्म उस तबके तक ही पहुंच बनाएगी जो इस बेहूदा कॉमेडी और डायलॉग का मज़ा लेगा और अपने साथ ये मैसेज लेकर जाएगा की शादी और बच्चों के बाद भी महिला यक़ीन के लायक नहीं। नतीजे में वह बीवी के साथ बेटियों पर भी पाबन्दी का पहरा और कड़ा कर देगा।    

इस फिल्म का ट्रेलर उस लिफाफे जैसा है जो अंदर की चिट्ठी का सारा मज़मून बयान कर रहा है। ट्रेलर में फिल्म मिडिल क्लास औरतों पर तंज़ करती है- 'यही प्रॉब्लम है सारी मिडिल क्लास औरतों की, अपनी सारी क्षमताओं को गैस के चूल्हे में झोंक देती हैं।' ट्रेलर में महिला आज़ादी के शैशवकाल में आपस में सम्बोधन के लिए चुड़ैल शब्द का प्रयोग होता है जो अंत तक अपनी सारी क्षमताओं को झोंक कर जिस गाली की गूंज सारी दुनिया को सुनाना चाहती है उसे कोई भी सभ्य समाज स्वीकार नहीं करेगा। पुरुषों द्वारा महिलाओं को दी गई गाली का बदला महिलाओं द्वारा महिलाओं को दी गई गाली कैसे हो सकती है? अगर इस खेमाबंदी को महिला सशक्तीकरण से जोड़ा जा रहा है तो ये शर्मनाक है।  

अच्छी और बामक़सद फिल्मों के चयन के लिए जानी जाने वाली स्वरा ने इस फिल्म के चुनाव में चूक कर दी है। ये न्यूड मेकअप का दौर है। अब घरों की मेड भी इस गेटअप में नहीं रहतीं है जो इस फिल्म में उनका अंदाज़ है। बल्कि सोशल मीडिया के इस दौर में एजुकेशन सेन्स से ज़्यादा फैशन सेन्स डेवलप है। ये सच्चाई मध्यम वर्ग के बदलाव का हिस्सा भी है। स्वरा के अदाएं किसी मेड से ज़्यादा भोजपुरी सिनेमा के करीब नज़र आती हैं। 

महिला सशक्तिकरण की इस समय की सबसे सटीक प्रस्तुति उन पाकिस्तानी ड्रामा में देखने को मिलती है जिन्होंने बड़ी ही ख़ामोशी से इन मुद्दों को उठाया है और घर घर अपनी पहुंच बनाई है। ये ड्रामा अपने क्राफ्ट, कहानी और पेशकश के बूते एशिया ही नहीं यूरोप और अमरीकी एशियाई लोगों की पहली पसंद बन चुके हैं। जो बताते हैं कि महिला सशक्तिकरण पर अगर दिल को छूने वाला काम किया जा रहा है तो इस इंडस्ट्री में। 


शनिवार, 10 सितंबर 2022

अर्नेस्ट चे ग्वेरा की पहली पत्नी हिल्डा गेडिया अकोस्टा को लिखी चिट्ठी

 प्यारी हिल्डा कैसी हो। 

मैं तुम्हे ये चिट्ठी उस वक़्त लिख रहा हूं जब क्यूबा के बादल ज़ोरदार बारिश कर रहे हैं और हम पहाड़ों की गुफ़ाओं में पनाह लिए हुए हैं। 

ये चिट्ठी लिखते समय हमारे चारों तरफ तोपख़ाने के गोलों की बौछार है। हम इन्तिज़ार कर रहे हैं कि गोले आने बंद हो जाएं, मूसलाधार बारिश रुक जाए और सुबह का सूरज निकल आए ताकि हम खाना लाने के लिए बाहर निकल सकें। हम तर हो चुके कपड़े सुखा सकें और थोड़ा सा तंबाकू भी ला सकें। 

हिल्डा !!

मुझे बाहर से गोलियों के तबादले की आवाज़ें आ रही हैं। मुझे अब अपनी बंदूक लेकर निकलना होगा। ये लोग कमीने हैं। रात में हमला करते हैं ताकि हम आराम न कर सकें। ये हमारे हौसले पस्त करना चाहते हैं लेकिन तुम जानती हो?

मुझे उनका ये तक़ाज़ा क़ुबूल है कि वह हम पर रात में हमला करें, इसलिए कि हम उनको दिन में मिलेंगे ही नहीं। क्योंकि उस वक़्त वह खुद हमारे हमले की ज़द में होंगे... 

अगर मेरी वापसी हुई तो मैं तुम्हें एक और चिट्ठी भेजूंगा। 

सदा से तुम्हारा प्रेमी 

अर्नेस्ट चे ग्वेरा 

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...