शनिवार, 31 जुलाई 2021

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर...

ताजमहल के दीदार की मेरी कभी ख्वाहिश ही नहीं हुई। इसमें ताजमहल की कोई खता भी नहीं, बस हालात ज़रा ज़ालिम बनते गए और जब भी ताज का ज़िक्र आया तो मुंह का ज़ायक़ा कसैला हो गया।   

ज़िंदगी की पहली पारी का शुरुआती दौर था, ज़रूरत भर का होश संभाल लिया था। शायद आठवीं क्लास में थे तो उर्दू के किसी अखबार में साहिर की ताजमहल पढ़ ली। उम्र के हिसाब से कलाम बहुत वज़नी था। ज़्यादातर बातें समझ से बाहर थीं। आधी अधूरी समझ में जो बात चुभी वह ये थी -

दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है

जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का खूं |

फिर कभी उस ख़ूनी संगमरमर को सफ़ेद न महसूस कर सके। ताज का ख़याल आया तो हड्डी से चिपके, सूखी, स्याह चमड़ी वाले संगमरमर ढोते मज़दूरों का मंज़र निगाह में घूम गया। संगमरमर की सिल्लियों में उनके पेवस्त जिस्म महसूस किये। चार सौ बरस पहले की ये घुटी हुई कराहें अपने शहर में सुनाई दीं। हर बार लाइट एंड साउंड वाले इस मंज़र की झलक और शोर ने सातवें अजूबे के हुस्न को स्वाहा कर दिया। ये इमारत मेरे लिए एक हॉन्टेड महल बन गई। बात बचपन से जुड़ी थी तो इसे भूलना भी मुमकिन नहीं था।  

भला हो हाजी युसूफ साहब का जिन्होंने इसके हुस्न और दूसरी हक़ीक़तों से रूबरू कराया। हाजी साहब थे तो दादा के दोस्त मगर पूरा घर उनसे मिलने का तलबगार होता था। इल्म का खज़ाना थे वह। मीर अनीस के मर्सिये हों या दुनिया के नक़्शे पर फिज़ी कितने लैटीट्यूड और लॉन्गीट्यूड पर है, ये भी उन्हें पता था। शेक्सपीरियन लैंग्वेज के जानकर भी थे, साथ ये खबर भी रखते थे कि देव कोहली ने किस वाहियात गाने पर कितनी भारी रक़म चार्ज की है। हाजी साहब उस वक़्त मेरे mentor थे  जब हम mentor  का मतलब भी नहीं जानते थे। ताजमहल पर मेरे तास्सुरात जानने के बाद उन्होंने ताज की ख़ूबसूरती, दुनिया में उसकी क़द्र, फुल मून लाइट में उसके बेमिसाल हुस्न और बतौर अजूबा उसकी अहमियत का जो नक़्शा खींचा उसने नफ़रत की लकीर तो नहीं कम की मगर उसके बराबर में जुस्तुजू का एक बीज रोप दिया था। हाजी साहब की हिदायत थी कि ज़िंदगी में एक बार ताज महल ज़रूर देखना। उसे देखना तो है मगर इसलिए नहीं कि दुनिया का सातवां अजूबा बना, मोहब्बत की मिसाल है और बहुतों की रोज़ी रोटी भी, बल्कि इसलिए देखना है कि हाजी साहब की हिदायत है।  

फिर बहुत सारे दिन गुज़र गए, इतने कि ज़िंदगी की दूसरी पारी में दाखिल हो गए। हालात की उठापटक और कशमकश में ताजमहल की नफ़रत और उसे देखने की हिदायत दिल में फ्रीज़ रही। हाजी साहब नहीं रहे तो ये हिदायत जैसे जज़्बात से जुड़ गई। 


इस बीच ताजमहल से एक और नज़रिया ऐसा जुड़ा जो नफरत वाले खाने में घर कर गया। पता नहीं कौन सा जादू था इस इमारत में और क्या तासीर थी इसकी मोहब्बत में जो शादी शुदा जोड़े पर मुसल्लत किये गए इश्क़ का सिम्बल बन गया। मोहब्बत के इस मंदिर को पीठ दिखाकर अपनी तस्वीर खिंचाने वाले कितने ही जोड़ों की कोल्ड वॉर से लेकर सर फुटौव्वल की गवाह  मेरी याददाश्त रही है। जो मिया बीवी एक दूसरे की शक्ल देखना बर्दाश्त नहीं करते उनकी दीवार या रैक पर ताजमहल के साथ मुस्कुराती और मोहब्बत लुटाती तस्वीर में हम हिपोक्रेसी से ज़्यादा कुछ न देख सके। मगर इस टोटके के असर में सिर्फ वही नहीं थे जो अपने बजट से चवन्नी चवन्नी जोड़ कर इस फोटोपॉइन्ट तक पहुंचे थे। बल्कि सास डायना की नाकामयाब शादी का हश्र देखने के बाद शायद प्रिंस विलियम और केट मिडल्टन ने भी यहां फोटो खिचवाने में अपनी खैरियत जानी। 1992 में जब डायना ने ताजमहल की अकेले सैर करते हुए तस्वीर खिंचवाई थी और उस वक़्त प्रिन्स चार्ल्स बंगलौर में अपनी एक मीटिंग अटेंड कर रहे थे। तब मीडिया की कवरेज ऐसी थी जैसे ताज की शान में गुस्ताख़ी हो गई हो। आज वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया होता तो इस रिश्ते की नाकामयाबी पर एक झमाझम बैक ग्राउंड म्यूजिक के साथ 'डायना और प्रिंस चार्ल्स को लगा ताज श्राप' हैश टैग वाली ऑफ़बीट ख़बर ज़रूर चलाता। 


ताज को लेकर कभी भी पॉजिटिव नहीं हो सके। जब जब साहिर के कलाम से दो चार हुए, खुद को ताज के बखिये उधेड़ने में घिरा पाया। इस सोच का नतीजा था कि शक की सुई शाहजहां तक पहुंच गई। अब ये सवाल सामने था कि शाहजहां का ये शाहकार ग़म में बना या ख़ुशी में? बेशुमार धन दौलत अगर क़ब्र पर खर्च की गई है  तो यक़ीनन मौत पर बहुत खुश होंगे। क्यूंकि ग़म फ़क़ीरी की राह ले जाता है। मगर यहां उजड़ी मोहब्बत ने बदहवास नही किया बल्कि धन दौलत और हुकूमत की बदौलत सातवें अजूबे की तामीर कर डाली। और गुस्ताखी माफ़! शाही खज़ाना उंडेलने और अवाम पर भारी टैक्स लगाने के बावजूद लैला - मजनू, शीरी - फरहाद, रोमियो-जूलियट की फेहरिस्त में कभी भी मुमताज़ और आपका नाम नहीं मिला। 

ये सारे सवाल आपके दौर में उठे होंगे मगर आपके ख़ौफ़ ने उन्हे भस्म कर दिया होगा। मीडिया और सोशल मिडिया के बग़ैर आप ने जैसा चाहा अपनी मोहब्बत का डंका पीटा। कई साहिर उस वक़्त भी हुए होंगे मगर या तो ख़ामोश रह गए होंगे या आपने करा दिया होगा। 

सदक़े इस डेमोक्रेसी के जो दिल बात बाहर ला सके और शुक्रिया उस अख़बार का जहां शकील बदायूंनी से पहले साहिर को पढ़ा, वरना मेरे कोरे दिमाग़ पर लिखा होता -

एक शहंशाह ने बनवा के हंसीं ताजमहल

सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है... 


अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...