शनिवार, 6 नवंबर 2021

मेरी उम्र भर की तलाश है…

 नासा इसरो से लेकर इस जैसी तमाम इंस्टीट्यूशन को मेरी बात नागवार लग सकती है मगर हमें ये कहते कुए क़तई शक या शुबहा नहीं कि मेरे लिए टीम वर्क की सबसे बड़ी मिसाल फिल्म बरसात की रात की क़व्वाली-  'न तो कारवां की तलाश है...'ही है और रहेगी। जो इसके लुत्फ़ से महरूम हैं उन्हें पता होना चाहिए कि मौसिक़ी की दुनिया के इस शाहकार का शुमार रहती दुनिया तक किसी अजूबे से कम नहीं। 

1960 में आई फिल्म 'बरसात की रात' की क़व्वाली न तो कारवां की तलाश है... को सुनने के बाद ऐसा लगता है कि इसे स्कूल के सिलेबस में शामिल कर देना चाहिए। इसे लिखते वक़्त साहिर के ख़यालात की परवाज़ किन किन गोशों में गई है, वह न सिर्फ बहस का बल्कि रिसर्च का भी मुद्दा है। उर्दू, फ़ारसी, पंजाबी, इस्लाम, सूफिज़्म, कृष्ण लीला, बुद्धिज़्म, ईसाइयत को पिरोते हुए अनलहक़ यानी अहं ब्रह्मास्मि पर आकर वो इस कलाम को ये कहते हुए मुकम्मल करते हैं कि -

इन्तिहा ये है कि बन्दे को खुदा करता है इश्क

ये एक क़व्वाली नहीं कलाकारों का जुनून है। जिसमें मुक़ाबले के पहले अंतरे की शुरुआत ही ज़िंदगी और मौत के ज़िक्र से होती है। अव्वल इश्क़ ,आखिर इश्क़ और इन सबके दरमियान बैतबाज़ी,अल्फ़ाज़, मौसिक़ी और लय का सैलाब सुनने वाले को बहा ले जाने की खूबी रखता है। बहाव भी ऐसा जिसमें क़व्वाली के पीक पर जाने से लेकर खात्मे तक कभी सकते का आलम आता है और कभी धड़कनों को थाम देने का। जिन रूपक की साहिर ने झड़ी लगा दी है उसकी दूसरी मिसाल तलाशना भी साहिर के बस की ही बात हो। फ़ारसी का लफ्ज़ 'जां सोज़' मिसरे में ऐसा पेवस्त हुआ है कि शायद हमज़बान लफ़्ज़ लिरिक के बहाव में ख़लल ही डालता। 

मज़हब-ए-इश्क की हर रस्म कड़ी होती है

हर कदम पर कोई दीवार खड़ी होती है

इश्क आज़ाद है, हिंदू ना मुसलमान है इश्क

आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क

जिससे आगाह नहीं शेख-ओ-बरहामन (ब्राह्मण) दोनों

उस हक़ीक़त का गरजता हुआ ऐलान है इश्क

ऊपर लिखे अंतरे का एक मिसरा भी आज की तारीख़ में लिखे जाने का मतलब है देशद्रोह, लव जिहाद और भी न जाने क्या कुछ। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के 'लाज़िम है कि हम देखेंगे' को जितना इन दिनों कोसा गया है, साहिर ने उससे कई गुना ज़्यादा इस क़व्वाली में परोसा है और अभी तक मन्ज़रे आम पर नहीं आये हैं। कूपमंडूक जिस दिन इसे समझने और समझाने बैठेंगे उस दिन उनकी किसी भी अदालत में साहिर के इस कलाम के लायक चुनी जाने वाली हर सज़ा बहुत छोटी महसूस होगी।

मेरी नज़र में ये क़व्वाली पूरा हिन्दुस्तान भी है और पूरी कायनात भी। कोस कोस पर बदले पानी चार कोस पर बानी की तर्ज पर इसमें उर्दू, पंजाबी, ब्रज भाषाओं की दखलंदाज़ी के बावजूद क़व्वाली अपनी तलातुम को भी बरक़रार रखे नज़र आती है। कायनात की मिसाल का एहसास इसे सुनते वक़्त तब होता है जब आप इसकी टीमवर्क की ट्यूनिंग पर ध्यान देते हैं। कायनात में जिस तरह तमाम प्लेनेट एक दूसरे से एक ग्रैविटेशनल फ़ोर्स से बंधे हैं और किसी एक का भी माइक्रो या नैनो सेकेंड से कम वक़्त की लापरवाही सारे आसमानी निज़ाम को नेस्तनाबूद कर सकती है, वही निज़ाम इस क़व्वाली में नज़र आता है। यही इसके ख़ुमार और बहाव की वजह है। अंदाजा लगाइए मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा, एस डी बातिश जैसे दिग्गज गुलूकार, म्युज़िक डाइरेक्टर का मोर्चा संभाले रौशन, 80 से ज़्यादा साज़िंदे और टकरीबन 20 लोगों की टेक्नीशियन टीम ने आज से 60 बरस पहले जिस टीमवर्क की मिसाल इस क़व्वाली की शक्ल में पेश कर दी वो अपने आप में एकलौती है। मुंबई के महालक्ष्मी इलाक़े के फेमस स्टूडियो में इस क़व्वाली की रिकॉर्डिंग हुई थी और उस वक़्त सहूलियतों की इतनी कमी हुआ करती थी कि शोर कम से कम हो, इसलिए स्टूडियो पूरी रात के लिए बुक किया गया था।


 यूएनआई से फिल्म जर्नलिस्ट चंद्र प्रकाश झा बताते है कि जेएनयू स्टूडेंट के बीच 118 क़व्वालियों में से सबसे बेहतरीन की तलाश की जा रही थी और आखिरी दो में फिल्म 'मुग़ल ए आज़म' की 'जब रात हो ऐसी मतवाली...' और 'बरसात की एक रात' से 'न तो कारवां की तलाश...' के बीच चुनाव किया जाना था। बरसात की एक रात यहां पर बिना किसी बहस के अपनी लिरिक्स और रौशन के कम्पोज़िशन की बदौलत बाज़ी मार ले जाती है।  

जब फिल्म रिलीज़ हुई तो कुछ फिल्मी पंडितों का ख़याल था की 12 मिनट की क़व्वाली इस फिल्म को नाकामयाब बना देगी और इसके जवाब में रौशन ने बस इतना ही कहा था कि लोग इस क़व्वाली को ही देखने आएंगे। रौशन साहब यही थे। आज भी लोग इस क़व्वाली से ही फिल्म को याद रखते हैं। 

अलल-टप

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