सोमवार, 25 मई 2020

नक्खास का बाज़ार, ईद और लॉकडाउन



मास कम्युनिकेशन की फील्ड से जुड़े एक इंटरव्यू में सवाल पूछा गया था कि 'नक्खास की बाज़ार में होने वाली भीड़ को डिस्क्राइब कीजिए?' पैनल को दिया गया जवाब था - 'यकीन मानिए अगर इन बुर्केवालियों के हुजूम में दम घुटने से किसी की मौत हो जाए तो इस बात की गारंटी है कि लाश गिरेगी नहीं। भीड़ के साथ इस सिरे से उस सिरे तक चलती ही रहेगी।'

आज वही नक्खास है और ये ईद से एक दिन पहले की तस्वीरें। ईद का नक्खास से नाता भी बता दें आपको। जब रमज़ान का चाँद होता है उस रात से इस बाज़ार में दुकानें सज जाती हैं। उस दिन से ईद की चाँद रात तक ये बाज़ार पूरा महीना गुलज़ार रहता है। अकसर दुकानों में ताला लगने का कोई तुक नही बचता। ख़रीदारी के अलावा कितने लोग इन रौनक़ों के दीदार के लिए आते थे। हामिद के चिमटे से लेकर लखनऊ का फर्शी ग़रारा तक आपको यहाँ मिल जायेगा। टुंडे के कबाब पराठे और रहीम के क़ुलचे नहारी की महक कहाँ कहाँ से शौक़ीनों को खींच लाती थी मत पूछिए। चौक की इन पेचीदा गलियों में मौजूद बंगला कुर्ते पायजामे की खपत सारी दुनिया के मर्दों का तन ढक दे। चूड़ी, छल्ला, चोटी, चम्मच, कटोरी, फूलदान क्या नही होता था जिसकी ख्वाहिश आपको मायूस नही होने देगी। हर फुटपाथ, ठेले और स्टोर पर इन बुर्केवालियों का झुण्ड और उनकी ख़रीद फ़रोख़्त हर इतवार इस बाज़ार के सेंसेक्स को नई ऊंचाइयां देते रहे हैं। इसके बावजूद इन्हें गुज़रते टेम्पोवाले ने भी झिड़का है और फुटपाथ पर बैठे चिमटी छल्ला बेचने वालों ने भी फटकारा है। मगर ये झुण्ड के झुण्ड यहां की इन सुरंग जैसी गलियों से निकल कर आये और वापस इन्ही में समा गये।



बुर्केवालियां इस बाज़ार के हुजूम का सबसे बड़ा हिस्सा रही हैं। इन्होंने सबसे ज़्यादा जिस जज़्बे का सामना किया है वो बाक़ी दुनिया का इनसे नागवारी का रिश्ता। आजतक समझ नही आया कि इस नक़ाब से नफरत का रिश्ता कैसे फल फूल गया। फेमिनिस्ट बनाम बुर्का से हट कर देखें तो इस बुर्के ने बाक़ी दुनिया का उस नकाबपोश के साथ एक दरार का रोल निभाया है। 

लॉकडाउन के चलते ईद के एक दिन पहले नक्खास के इस मंज़र ने उन बुर्केवालियों की याद ताज़ा कर दी जो इन बाज़ारो का हिस्सा होकर लखनऊ व्यापार मंडल के आंकड़ों में यहां की खरीदोफरोख्त को वो ऊंचाइयां दे गईं है जो कारोबार की रीढ़ रही है। ईद के एक दिन पहले नक्खास के इस सुनसान चौराहे को देखना एक ऐतिहासिक नज़ारे को देखना है। कम बजट में बड़े सलीक़े से अपना घर चलाने वाली इन नकाबपोश औरतों के भारतीय अर्थशास्त्र को दिए योगदान पर शायद कोई वैसा आंकड़ा न हो जैसा पिछले दिनों शराबियों और अर्थव्यस्था को लेकर सामने आया। 



बुर्केवालियों कि ग़ैरमौजूदगी ने एक साल के अंदर एक बार फिर से इतिहास रच दिया। पिछ्ला इतिहास याद आया आपको! अगर नहीं तो हम याद दिला देते हैं। घंटाघर की वह बुर्केवालियां जो शाहीनबाग की बुर्केवालियों की तर्ज़ पर इसी साल इस संविधान की हिफाज़त के लिए मोर्चे पर डटी थीं। जी हां! आज उन्हें बुर्केवाली नहीं 'ब्लैक कमांडो' कहने का दिल कर रहा है।

शुक्रवार, 1 मई 2020

सुनो ख़ानाबदोशों! तुम्हे तुम्हारा दिन मुबारक हो




जब तक हिरन अपना इतिहास
खुद नही लिखेगें तबतक
हिरनों के इतिहास मे
शिकारियों की शौर्य गाथाएं
गायी जाती रहेंगी।---

चिनुआ अचेबे

तुम अपने दिन से बेखबर हो मगर फिर भी तुम्हे तुम्हारा दिन मुबारक! तुमसे एक शिकायत सदा से रही है। तुमने एक गुस्ताखी की है। खानाबदोशी की। जड़ें हिल जाएं तो पहाड़, पहाड़ नहीं रहता। ढह जाता है भरभरा कर। बिखर जाता है। उसकी और अपनी उम्र का फ़र्क़ देखा है? इस क़ुदरत को बेमोल जानकर पीठ फेरी थी इससे। जिसके लिए फेरी थीं, आज उसने आंखें फेर ली हैं तुमसे। पहले भी कौन सा सिर आंखों पर बिठाया था तुम्हे। अपनी जगह होते तो पहाड़ बन जाते। तुम्हारी अपनी मिट्टी का मोल तुम्हे अनमोल कर देता। अपनी हरियाली बनाते और उसमे अपनी ऊर्जा तलाशते।

जानते हैं, कहना आसान है और करना हर किसी के बस का नही। मगर जिसे तुम बेमोल जानकर गये थे आज उसके पास आने की छटपटाहट देख रहे हो न। परदेस में रहने से हज़ार किलोमीटर का सफर तुमने मुनासिब जाना। जिसने सुना उसके मुंह से आह निकल गई। मगर तुम जानते थे ये मुश्किल नहीं। तुम्हे तो बल्लियों और मचानों पर चलने की आदत है। फिर ये तो सीधी सपाट सड़क का सफर था। तुम्हे तो इतनी वज़नी बोरी लादने की आदत है कि कमर झुक जाये फिर अपनी औलाद को कंधे पर बैठाकर चलना सुखभरा ही होगा। और तुम्हारे लिए धूप में चलना कोई मसला ही नहीं क्यूंकि तुम कौन सा किसी साये के आदि हो। इसलिए उनलोगों को बता दो की हज़ार किलोमीटर का सफर तुम्हारे लिए मामूली सा काम है। इसे सुनने वालों को अपनी आंखे चौड़ी करने की ज़रूरत नहीं। ये उनकी और तुम्हारी ज़मीन का फ़र्क़ है।

तुम्हे तुम्हारा वतन हमेशा ही बुलाता रहा है। सच तो ये है कि उसने कभी चाहा ही नहीं कि तुम यहां से कूच कर जाओ। तुम दोनों एक दूसरे के लिए थे। वह दरख़्त आज भी ऊगा हुआ है जिसे तुम छोड़ आये थे। क्या हुआ जो तुमने कभी उसकी सुध नहीं ली फिर भी उसने अपना साया देना बंद नहीं किया। वह दरख़्त तुम्हारे बग़ैर मरे नहीं। आज भी वैसे ही खड़े हैं जैसे तुम्हारे पुरखों के वक़्तों में थे और जैसे तुम्हारी नस्लों के लिए रहेंगे। सायादार। बशर्ते, कोई उन्हें काट न दे।

जिन पगडंडियों पर तुम चलना छोड़ चुके हो उसकी आवारा धूल को तड़पड़े नहीं देखा तुमने। कैसी अजीब चाह है उसकी, तुम्हारे क़दमों तले रौंदे जाने के बाद ही उसको क़रार आता है। तुम गए तो ये पत्ते भी शाखों से कई बार बग़ावती अंदाज़ में जुदा हुए। वैसे तो ये इनकी आदत थी। मगर फितरत ने इन्हे हर बार हरा-  भरा किया है। तुमने अपने फ़र्ज़ से मुह मोड़ा मगर ये बदस्तूर वैसे ही रहे।

कितना बड़ा दिल था तुम्हारा, जो इनका दिल दुखा दिया। तुम जहां की आबादी बढ़ा रहे हो, वहां तुम्हारे लिए हिक़ारत है। कभी मत सोच लेना कि ये जगह तुम्हे आबाद कर देगी। कमर को दोहरा कर तुमने जिन इमारतों की तामीर की उसे निहारने में तुम्हारी कमर पीछे को झुकती चली जाएगी। तुम्हरे नसीब में इसे सिर्फ ताकना होगा। बस दूर से ताकना, मगर ऐसा करते तुम्हे कभी देखा नहीं। ठीक भी है, सर पटक देने के बाद भी यहां तुम्हारे लिए दाखिला नहीं है। क़तई नहीं।

कभी तो खुद को देखो! उस चौराहे से किनारे हटकर जहां तुम्हारी मंडी लगती है। तब तुम देखोगे अपनी वक़त। वो कितने समझदार हैं जो तुम्हे चुनने आते हैं। तुम्हारे झुण्ड पर निगाह डालते हैं, आंखों से तुम्हारी उम्र, सेहत और फितरत तौलते हैं। फिर सयानेपन का अगला क़दम। तुम्हे तो पता ही नहीं, वो आज भी तुममे से उस जंतु की तलाश करते हैं जो घड़ी देखना भी न जनता हो। वजह पता है क्या है? बस इतनी कि तुम्हारी तय की दिहाड़ी से घंटाभर ज़्यादा मेहनत ले  लें, तुम्हे क़ीमत से महरूम करके।

आज क़ुदरत ने ऐसा वक़्त ला दिया है कि तुम अपनी मिटटी की तरफ लौट रहे हो। वापस आ जाओ। इसे आबाद करो। खुद को आबाद करो। अपने आबाद होने के तरीकों को तलाश करो। मुश्किल होगा मगर मुमकिन भी। अपनी ताक़त सहूलियतों के पीछे भागने में नहीं उन्हें अपने पास बुलाने में लगा दो। मगर अपनी मिटटी को मत छोड़ो। इसकी पनाह तुम्हे तुम्हारे पते से जोड़ती है। खानाबदोश होने से बचाती है।



                                                                                                                                              फोटो साभार : live law hindi 

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...