शुक्रवार, 1 मई 2020

सुनो ख़ानाबदोशों! तुम्हे तुम्हारा दिन मुबारक हो




जब तक हिरन अपना इतिहास
खुद नही लिखेगें तबतक
हिरनों के इतिहास मे
शिकारियों की शौर्य गाथाएं
गायी जाती रहेंगी।---

चिनुआ अचेबे

तुम अपने दिन से बेखबर हो मगर फिर भी तुम्हे तुम्हारा दिन मुबारक! तुमसे एक शिकायत सदा से रही है। तुमने एक गुस्ताखी की है। खानाबदोशी की। जड़ें हिल जाएं तो पहाड़, पहाड़ नहीं रहता। ढह जाता है भरभरा कर। बिखर जाता है। उसकी और अपनी उम्र का फ़र्क़ देखा है? इस क़ुदरत को बेमोल जानकर पीठ फेरी थी इससे। जिसके लिए फेरी थीं, आज उसने आंखें फेर ली हैं तुमसे। पहले भी कौन सा सिर आंखों पर बिठाया था तुम्हे। अपनी जगह होते तो पहाड़ बन जाते। तुम्हारी अपनी मिट्टी का मोल तुम्हे अनमोल कर देता। अपनी हरियाली बनाते और उसमे अपनी ऊर्जा तलाशते।

जानते हैं, कहना आसान है और करना हर किसी के बस का नही। मगर जिसे तुम बेमोल जानकर गये थे आज उसके पास आने की छटपटाहट देख रहे हो न। परदेस में रहने से हज़ार किलोमीटर का सफर तुमने मुनासिब जाना। जिसने सुना उसके मुंह से आह निकल गई। मगर तुम जानते थे ये मुश्किल नहीं। तुम्हे तो बल्लियों और मचानों पर चलने की आदत है। फिर ये तो सीधी सपाट सड़क का सफर था। तुम्हे तो इतनी वज़नी बोरी लादने की आदत है कि कमर झुक जाये फिर अपनी औलाद को कंधे पर बैठाकर चलना सुखभरा ही होगा। और तुम्हारे लिए धूप में चलना कोई मसला ही नहीं क्यूंकि तुम कौन सा किसी साये के आदि हो। इसलिए उनलोगों को बता दो की हज़ार किलोमीटर का सफर तुम्हारे लिए मामूली सा काम है। इसे सुनने वालों को अपनी आंखे चौड़ी करने की ज़रूरत नहीं। ये उनकी और तुम्हारी ज़मीन का फ़र्क़ है।

तुम्हे तुम्हारा वतन हमेशा ही बुलाता रहा है। सच तो ये है कि उसने कभी चाहा ही नहीं कि तुम यहां से कूच कर जाओ। तुम दोनों एक दूसरे के लिए थे। वह दरख़्त आज भी ऊगा हुआ है जिसे तुम छोड़ आये थे। क्या हुआ जो तुमने कभी उसकी सुध नहीं ली फिर भी उसने अपना साया देना बंद नहीं किया। वह दरख़्त तुम्हारे बग़ैर मरे नहीं। आज भी वैसे ही खड़े हैं जैसे तुम्हारे पुरखों के वक़्तों में थे और जैसे तुम्हारी नस्लों के लिए रहेंगे। सायादार। बशर्ते, कोई उन्हें काट न दे।

जिन पगडंडियों पर तुम चलना छोड़ चुके हो उसकी आवारा धूल को तड़पड़े नहीं देखा तुमने। कैसी अजीब चाह है उसकी, तुम्हारे क़दमों तले रौंदे जाने के बाद ही उसको क़रार आता है। तुम गए तो ये पत्ते भी शाखों से कई बार बग़ावती अंदाज़ में जुदा हुए। वैसे तो ये इनकी आदत थी। मगर फितरत ने इन्हे हर बार हरा-  भरा किया है। तुमने अपने फ़र्ज़ से मुह मोड़ा मगर ये बदस्तूर वैसे ही रहे।

कितना बड़ा दिल था तुम्हारा, जो इनका दिल दुखा दिया। तुम जहां की आबादी बढ़ा रहे हो, वहां तुम्हारे लिए हिक़ारत है। कभी मत सोच लेना कि ये जगह तुम्हे आबाद कर देगी। कमर को दोहरा कर तुमने जिन इमारतों की तामीर की उसे निहारने में तुम्हारी कमर पीछे को झुकती चली जाएगी। तुम्हरे नसीब में इसे सिर्फ ताकना होगा। बस दूर से ताकना, मगर ऐसा करते तुम्हे कभी देखा नहीं। ठीक भी है, सर पटक देने के बाद भी यहां तुम्हारे लिए दाखिला नहीं है। क़तई नहीं।

कभी तो खुद को देखो! उस चौराहे से किनारे हटकर जहां तुम्हारी मंडी लगती है। तब तुम देखोगे अपनी वक़त। वो कितने समझदार हैं जो तुम्हे चुनने आते हैं। तुम्हारे झुण्ड पर निगाह डालते हैं, आंखों से तुम्हारी उम्र, सेहत और फितरत तौलते हैं। फिर सयानेपन का अगला क़दम। तुम्हे तो पता ही नहीं, वो आज भी तुममे से उस जंतु की तलाश करते हैं जो घड़ी देखना भी न जनता हो। वजह पता है क्या है? बस इतनी कि तुम्हारी तय की दिहाड़ी से घंटाभर ज़्यादा मेहनत ले  लें, तुम्हे क़ीमत से महरूम करके।

आज क़ुदरत ने ऐसा वक़्त ला दिया है कि तुम अपनी मिटटी की तरफ लौट रहे हो। वापस आ जाओ। इसे आबाद करो। खुद को आबाद करो। अपने आबाद होने के तरीकों को तलाश करो। मुश्किल होगा मगर मुमकिन भी। अपनी ताक़त सहूलियतों के पीछे भागने में नहीं उन्हें अपने पास बुलाने में लगा दो। मगर अपनी मिटटी को मत छोड़ो। इसकी पनाह तुम्हे तुम्हारे पते से जोड़ती है। खानाबदोश होने से बचाती है।



                                                                                                                                              फोटो साभार : live law hindi 

2 टिप्‍पणियां:

  1. समस्या यह है कि हिरन भी विकास कर के शिकारी ही बनना चाहते हैं, ट्रेनिंग ही ऐसी है।

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  2. बात आपकी जायज़ है मगर हमारे समाज में जिस तरह से एजुकेशन माफिया, कल्चरल माफिया और मेडिकल माफिया है तो लेबर माफिया को जगह न देना नाइंसाफी होगा।

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