सोमवार, 27 मई 2024

'सफ़र में इतिहास' संग जो महसूस किया

'सफर में इतिहास' हाथ में आई तो ख्यालात का एक न थमने वाला सफ़र साथ हो लिया। मेरे लिए इस किताब का अनुभव बड़ा ही दिलचस्प रहा। किताब के पलटते पन्नों के साथ इस दिलचस्पी में विस्तार होता गया जिसके नतीजे में ख़यालात की परवाज़ जैसे कई मैदानों और कई आसमानों के सफ़र कराती गई। इसमें कई काल थे, कई वंश थे, कई हुनर थे और हर ज़माने के अपने रीती-रिवाज और ज़बानें थीं।

हालांकि इतिहास के हवाले से सबसे सटीक पंक्तियां स्कॉटिश जीवविज्ञानी और समाजशास्त्री पैट्रिक गेडेस रच गए हैं। उनका कहना है- ''कभी-कभी रुककर सोचना और आश्चर्य करना दिलचस्प होता है कि जिस स्थान पर आप वर्तमान में हैं, वह अतीत में कैसा हुआ करता था, वहां किसने विचरण किया, वहां कौन काम करता था और इन दीवारों ने क्या क्या देखा है।''

मगर हमारे दौर का पाठक यानी होमो सेपियन्स इस ज़माने में अक़्ल के जिस उरूज पर है, वहां शांत मन एक न मयस्सर आने वाली शय है। मन की अशांति और इतिहास के इस सफ़र को साधने की भरपूर कोशिशों के बावजूद 'सफ़र में इतिहास' संग जो महसूस किया उसमें कुछ किरदार ख़ुद-बख़ुद दाख़िल होते गए। किताब पढ़ने के साथ एक समानांतर वार्तालाप और विचारों के सहयात्री अंत तक बने रहे। इनमे से कुछ का ज़िक्र करना चाहेंगे। 

किताब का शीर्षक, कवर पेज और प्रवेशिका पढ़ने तक मेरा यह ख़याल और मज़बूत हो गया था कि फॉरेस्ट गंप और टॉम हैंक्स से मुतास्सिर आमिर ख़ान को क्या ज़रूरत थी कि मुँह उठाकर बिना सोचे समझे निकल पड़ें और चार बरस से ज़्यादा चलते रहें, वह भी बिना मक़सद। 

इसके बरअक्स सफर में इतिहास की बात करें तो सवा दो सौ पन्नों की ये किताब महज़ आठ बरस में की गई कुछ यात्राओं की डायरीनुमा है जिसमें पहले पन्ने पर प्रोफ़ेसर नीलिमा पाण्डेय लिखती हैं- 'यात्राओं के दरमियान जनश्रुति, लोक परंपरा, पुराण, इतिहास और पुरातत्व का सानिध्य ज़रूरी होता है।' ठीक वैसे ही जैसे खुशवंत सिंह के बामक़सद सफ़र।

ऐसी बेशुमार पंक्तियाँ इस किताब के कई पन्नों पर दर्ज हैं जिन्हें एक बार पढ़ने के बाद दोबारा पढ़ने और अंडर लाइन किए जाने की ख़्वाहिश को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। 

मसलन-'महज़ जगहों से गुज़रना यात्राओं को कमतर करता है। यात्रा माने इतिहास से एकरूप हो जाना। इतिहास के गर्व और शर्म को दोनों हाथों से थाम लेना।' और इसी में यात्रा के लिए कहा गया है- ‘असल मुलाक़ात तो हम अपने आप से करते चलते हैं।' किताब की प्रवेशिका उस लिफ़ाफ़े की मानिंद है जो अंदर के मज़मून का हाल बयान कर जाती है। यक़ीनन इतिहास के गर्व और शर्म की बात करना बताता है कि किताब पूरी निष्पक्षता के साथ लिखी गई है। 

'सफ़र में इतिहास' में बारह अध्याय है और इनमें से ज़्यादातर बुद्ध के गिर्द परिक्रमा करते गुज़रते हैं। साल 2015 से 2023 के बीच किए गए इन सफ़र में जो कुछ लिखा गया है उसे तथ्यात्मक, दिलचस्प और शानदार बनाने वाली टूलकिट पाठक को न सिर्फ किताब से बांधकर रखती है बल्कि हर चैप्टर में पाठक को उस जगह के दीदार का न्योता देने की खूबी भी नज़र आती है। जी हाँ! इस टूल किट में शामिल है- इतिहास की विस्तृत और बारीक पकड़, स्याह को स्याह और सफ़ेद को सफ़ेद कहने की हिम्मत और भाषा पर बेहतरीन लगाम। हमेशा से एक धुंध और ग़ुबार में पाया जाने वाला इतिहास इस सफ़र और टूल किट के बहाने काफी शफ़्फ़ाफ़ नज़र आता है। 

सफ़र के दौरान इतिहास और वर्तमान के बीच तारतम्य बैठाते हुए कुछ कटाक्ष भी हमसफ़र हुए हैं जिनमें से कुछ का ज़िक्र किए बिना आगे बढ़ना ज़रा नाइंसाफी होगी। ‘यह वह मगध नहीं’ अध्याय में ‘गया से बोधगया’ शीर्षक के तहत पृष्ठ 37 पर दर्ज इबारत- "गया पितृ तीर्थ का प्रसिद्ध स्थल है। फल्गु नदी के किनारे बसे इस शहर की प्रसिद्धि विष्णु पद मंदिर से है। नदी तट पर स्थित मंदिर पण्डे, पुरोहितों का प्रिय ठीहा हैं। यहाँ स्वर्ग और नर्क की रस्साकशी में फंसा जनसमुदाय उनको रोज़गार मुहैया करवाता है। यजमान यहाँ आडम्बर और पाखंड की तनी हुई रस्सी पर भयग्रस्त क़दम साधे चलते हैं।"

या फिर इसी शीर्षक के तहत पृष्ठ संख्या 43 से - '...बनारस में मृत्यु का कारोबार प्रबल है जबकि गया में श्राद्ध का।"इसी पृष्ठ से- "देवलोक तो देवलोक पृथ्वीलोक के वासी भी आए दिन इंद्र को हैरान करते रहते हैं, इधर किसी तपस्वी ने आसान जमाया और उधर इंद्र का सिंहासन डोला।"

‘भोपाल से आगे... ‘अध्याय में ‘पुरखों का घर भीमबेटका’ शीर्षक में जिन औज़ारों की जानकारी दी गई है वह एक लाख से चालीस हज़ार वर्ष पुराने हैं और इस तरह मानव विकास के साथ औज़ार और चित्रकारी के विकास तक की झलक मिलती जाती है। 

इतिहास के साथ भूगोल की जानकारी विस्मृत करने वाली है जब ‘नवाबों का शहर भोपाल’ के सफ़र में ज़िक्र आता है- '…जहां से कुछ ही दूरी पर कर्क रेखा गुज़रती है।' इस मालूमात ने शाह अज़ीमबादी की याद दिला दी जिनकी मालूमात की कमी उन्हें मक़बूल कर गई थी, उनकी ही ज़ुबानी कुछ इस तरह -  

सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियां से सुनी
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम

मगर इस सफ़र में इब्तिदा और इंतिहा के साथ बहुत कुछ ऐसा था जिसने हैरान भी किया। मसलन पृष्ठ 77 पर 'कुशीनगर में एक दिन' शीर्षक के तहत बुद्ध और आनंद का वार्तालाप। "महापरिनिब्बान सुत्त में गौतम बुद्ध के अंतिम संस्कार से सम्बंधित सूचनाऐं दर्ज हैं। इसी सुत्त में हमें जानकारी मिलती है कि जब आनंद ने बुद्ध से यह जानना चाहा कि, 'उनका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए?' तो उन्होंने संक्षेप में उत्तर दिया, "जैसा चक्रवर्ती सम्राटों का होता है।" 

ज्ञान प्राप्ति के लिए राज-पाठ और परिवार का त्याग करने वाले बुद्ध का यह जवाब हैरान करने वाला लगा और एक बार ख़याल आया कि कहीं कुछ टाइपो एरर तो नहीं। आगे बढ़ने के लिए डनिंग-क्रूगर प्रभाव से बाहर निकलना बेहतर लगा ताकि बाक़ी के पन्ने पलटे जा सकें। 

क्योंकि इतिहास में इतिसिद्धम नहीं होता इस लिए इस पर ईमान लाना आसान नहीं, वह भी ऐसे युग में जब व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी का प्रोडक्शन अपने उरूज पर हो। जिन दिनों व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी नहीं थी तब भी इस विषय की गॉसिप की परवाज़ बड़ी लम्बी हुआ करती थी। हम में से ज़्यादातर का बचपन इस क़िस्से को सुनते बीता है कि शाहजहां ने ताजमहल बनाने वाले मज़दूरों के हाथ कटवा दिए थे।

जिन्होंने इतिहास को विषय की तरह चुना उनका पता नहीं मगर बाक़ियों के साथ यह क़िस्सा ताउम्र साथ चला और ज़रूरत पड़ने पर उसने इस दलील का भी सहारा भी लिया। 

इसलिए ‘सफ़र में इतिहास’ के पाठक को इस किताब और लेखिका का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। खासकर हिंदी पाठक को जिसके पास दुरुस्त इतिहास तक पहुंचने के विकल्प बहुत कम रह जाते हैं। ऐसे में किताब और भी प्रासंगिक हो जाती है जब इतिहास का अंड-बंड संस्करण और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की सप्लाई का सैलाब, सूनामी का रूप धार चुका हो। 

पत्रकारिता कहती है- ‘जो चल कर आए वह खबर नहीं’ और यही बात इतिहास के लिए भी लागू होनी चाहिए कि जो रात-दिन मुहैया कराया जाए उसका पाठक होने से कोरा रह जाना बेहतर है। सटीक से सटीक इतिहास की तलाश हिंदी पाठक को हमेशा मायूस करती है और नीलिमा पाण्डेय की यह किताब इस मायूसी को दरकिनार करने का ज़रिया बनती है। 

इस किताब को पढ़ते समय टेलीविजन की दुनिया से जुड़ी कुछ यादें भी मस्तिष्क पटल पर दोहराती गईं। किताब के शीर्षक ने कई ऐसे चेहरे सामने ला दिए जो खुद को बुद्धिजीवी वर्ग में रखने के माहिर रहे हैं। अपनी दलीलों में जिन्हे ये कहते सुना है- 'भई हम तो सिर्फ डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफिक चैनल ही देखते हैं। क्या कमाल की रिसर्च करते हैं ये अंग्रेज़, फोटोग्राफी का भी जवाब नहीं। एक बार इस चैनल की आदत पड़ जाए तो उसके बाद कोई इंडियन प्रोग्राम भाता नहीं।" 

यह किताब ऐसे लोगों के सिरहाने होनी चाहिए और एक से ज़्यादा बार पढ़ी जानी चाहिए। महज़ इस लिए नहीं कि इसमें सफ़र है, रिसर्च है, इतिहास और भूगोल है, वर्तमान है, भाषा है, मौसम है, रीति-रिवाज और साहित्य है, इसमें अगर धरोहरों को सहेजने का शुकराना तो उनसे ज़्यादती की आलोचना भी है, बल्कि इसे इस नज़रिए से भी पढ़ा जाना चाहिए कि इतिहास पर रिसर्च करने वाली एक घुमक्कड़ महिला की डायरी में उसके विषय से हटकर भी कितना कुछ दर्ज करने की खूबी हो सकती है।

इस किताब के साथ जिस एक कमी कों बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया है वह है इसमें मानचित्र का न होना। कई बार अपने सूबे या फिर देश के कुछ हिस्सों का इतिहास पढ़ते समय उसके भूगोल को जानने की ललक में नक़्शे की कमी बहुत खली। ऐसा लगा बीच में न सही अंत में ही अगर कुछ ऐसा इंतिज़ाम हो जाता तो जानकारी को जैसे मज़बूती मिल जाती। 

सफ़र में इतिहास पढ़ते समय आधुनिक इतिहास से एक बेहद अज़ीज़ चेहरा लगातार साथ रहा था। उसके ज़िक्र के साथ अपने इस सफ़र का समापन करना चाहेंगे-

मोहन दास करमचंद गांधी, देश या दुनिया के किसी भी हिस्से में होते और उन तक ये किताब पहुंचती तो इसे पढ़ने के बाद वह तीन चिट्ठियां लिखते। लखनऊ भेजे जाने वाले पहले पोस्टकार्ड पर लिखा होता- 'नीलिमा! तुम ईमानदार लेखिका हो। तुम्हारी रिसर्च और यात्रा ने इस किताब को लिखकर तुम्हारे होने का हक़ अदा कर दिया है। दूसरी अच्छी बात है तुम्हारी भाषा। यह वही भाषा है जिसकी मैं पैरवी करता हूं, हम सबकी हिंदुस्तानी भाषा। आगे भी ऐसी यात्राएं करती रहो और लिखती रहो। शुभकामना।" 

दूसरी चिट्ठी में वह सेतु प्रकाशन को धन्यवाद के साथ ताकीद भी करते कि इस मिशन को जारी रखना और तीसरी चिट्ठी में नेहरू को मुख़ातिब करते हुए कहते- 'अब तुम्हे चिंता करने की ज़रूरत नहीं। डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया के बाद भी न सिर्फ इतिहास रचा जाएगा बल्कि रिसर्च, ईमानदारी और तटस्थता के साथ रचा जाएगा।" 

(साभार- hindi.news18.com) 

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