लखनऊ इन दिनों अपने ख़ुमार के उरूज पर है। ख़ुमार है ज़ायक़े का। होना भी चाहिए। लखनवी ज़ायक़े और इनकी महक की शिद्दत को आखिरकार यूनेस्को ने भी महसूस किया। ज़ायक़ों की इस सदियों पुरानी तहज़ीब को उन 58 शहरों की फ़ेहरिस्त में जगह मिली, जिन्हें रचनात्मकता के लिए जाना जाता है। इस पायदान तक पहुंचने के लिए लखनऊ और यहां के हुनरमंदों के साथ दुनियाभर के उन शौक़ीनों को भी बधाई जो इस कामयाबी का हिस्सा बने।
इस चकाचौंध में एक पहलू और
भी है जो गुम हो रहा है। सिर्फ़ ज़ायकों के नाम से पहचाना जाने वाला लखनऊ जिस वक़्त कामयाबी
के पायदानों का सफ़र तय करते हुए ऊंचाइयों की तरफ बढ़ रहा था, ठीक उन्हीं दिनों में इस
इलाक़े की बेशुमार ख़ूबियां नाकामयाबी के पायदान उतरती हुई गर्त में जा रही थीं। ज़ायक़े
के इस स्टीकर ने कई ऐसी खूबियों को ढक लिया है, जिसने इस शहर को सांस धड़कन और परवाज़
दी थी। जहां की बोली ने इसे शहर-ए-सुख़न बनाया था और जहां की अदबी सर्गर्मियों ने इसे
जंगे आज़ादी के वह ख़िताब दिए थे, जिनका अब शायद कोई नामलेवा भी न बचे।
पांच फिट से बड़े और पचास किलो
से वज़नी जिस्म ने पांच सेंटीमीटर की जीभ के आगे हथियार डाल दिए। यूं कि हर नुक़सान से
निगाह फेर ली और हर दलील को अनसुना कर दिया। यहां दिल और दिमाग़ दरकिनार तो नहीं हुए
मगर इनके बीच मौजूद ज़बान ने दोनों को ही शिकस्त दे दी। शिकस्त इतने बड़े पैमाने पर हुई
कि ज़माना ज़ायक़ों की ग़ुलाम हो गया। ज़ायक़े का नशा ऐसा चढ़ा कि न तो ग़ुलामी का एहसास रहा
और न हीं इसकी बदौलत अदा होती कीमतों का। …और इस तरह बिना रीढ़ वाली जीभ की ख़्वाहिशों
ने एक रीढ़दार को अपना ग़ुलाम बना लिया।
ज़ाहिर सी बात है कि यूनेस्को
ने इस पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र किया होगा, इन पकवानों के चर्चे और क़िस्से सुने होंगे और दुनियाभर
में इन ज़ायकों की दीवानगी भी देखी होगी। यह हक़ीक़त भी है कि पुराना लखनऊ आज की तारीख़
में सिर्फ एक फ़ूड हब बन कर रह गया है। यूनेस्को ने अगर इस शहर को अपनी फेहरिस्त में
शामिल करके कोई ख़िताब दिया है तो यक़ीन कीजिए कि कोई एहसान नहीं किया है।
यह वही लखनऊ है जिसे शहर-ए-सुख़न
का ख़िताब मिला। एक सदी भी नहीं बीती और यहां के रहने वालों ने बहुत कुछ भुला दिया।
भुला दिया कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाने वाली पहली अदबी तंज़ीम का बीज इसी
शहर में रोपा गया था। साल 1936 में लखनऊ के रिफ़ा-ए-आम क्लब में मुंशी प्रेमचंद ने उस
जलसे की सदारत की थी जिसका विचार सज्जाद ज़हीर को 1935 में पेरिस के इंटरनेशनल कांग्रेस
ऑफ़ राइटर्स फॉर डिफेंस ऑफ़ कल्चर से मिला था। इस अदबी तहरीक का मेनिफेस्टो मुल्क राज
आनंद और सज्जाद ज़हीर लंदन में तैयार किया था। जो आज भी तरक़्क़ी पसंद अदब की बुनियाद
है।
इत्र, केवड़ा, जावित्री, जायफल
और कालीमिर्च में मदहोश यह पीढ़ी अपने इतिहास से कुछ ज़्यादा ही बेखबर है। थोड़ा और पहले
नज़र डालें तो इतिहास इन मसालों से जुड़े कुछ और पन्ने खोलता है। जिस कालीमिर्च को देखकर
हिन्दुस्तानियों के रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए, उस कालीमिर्च के फ्लेवर ने यहां हर किसी
को मदमस्त कर रखा है। अमरीकी लेखक लैरी कॉलिन्स और फ़्रांसिसी लेखक डोमिनीक लापिएर ने
अपनी किताब मिडनाइट फ्रीडम में इसी कालीमिर्च का ज़िक्र इस तरह किया है-
"हॉलैंड के समुद्री लुटेरों ने, जो
मसालों के एकाधिकार पर वर्चस्व रखते थे, कालीमिर्च के दामों में अचानक एक पौंड के लिए
पांच शिलिंग का इज़ाफ़ा कर दिया।
अंग्रेज़ों को यह बढ़ोत्तरी सख्त नागवार गुज़री।
15 सितंबर, 1599 की तारीख़ ढल रही थी। लंदन
के 24 व्यापारी लेडनहॉल स्ट्रीट की एक खस्ता इमारत में जमा हुए। उन्होंने एक कंपनी
क़ायम करने का फैसला किया, जिसकी शुरूआती पूंजी 72000 पौंड तय की गई। यह पूंजी 125 हिस्सेदारों
को मिलकर जमा करनी थी।
इस संस्था का मक़सद मुनाफा कमाना था।
इस कंपनी ने तरक़्क़ी कर के हिन्दुस्तान में
अंग्रेज़ों की हुकूमत क़ायम कर दी, जो पूंजीवाद का एक नमूना बन गई। जो किस्सा मुनाफे
के शौक़ से शुरू हुआ था वह लूट-खसोट और जुल्म की एक दास्तान बन गई।"
...और इतिहास गवाह है कि इस
मुल्क ने कालीमिर्च से कोहिनूर तक गवांने के साथ कई ऐसे ज़ख्म झेले हैं जिसकी टीस आज
भी मौजूद है। इन सबके बावजूद भी इस खूबी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रवाद
के नाम पर जिन क़ौमों को लड़ाने वालों ने अपनी पूरी ताक़त को झोंक दिया है, उसका जवाब
उस मेज़बानी के दौरान बखूबी देखा जा सकता है जब इस फ़ूड हब में तिलक और टोपी हमज़ायक़ा
बने किसी डिश का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं।
पुराने लखनऊ के इस फ़ूड हब के
सर्फ एक किलोमीटर के दायरे का जायज़ा लें तो कई राज़ खुलते हैं। यहां के ज़ायकों का लुत्फ़
लेते लोग पूरब की तरफ अपना रुख करें तो वह जान सकेंगे कि इसी रिफ़ा-ए-आम क्लब से कुछ
पहले मेडिकल चौराहे पर सुल्तानुल मदारिस की इमारत है। यह वही मदरसा है जहां से कैफ़ी
आज़मी की ज़िंदगी की बग़ावत की शुरुआत हुई। इस फ़ूड हब के बाईं तरफ हिंदी का साहित्य अकादमी
पाने वाले अमृतलाल नागर का मकान है और दाहिनी तरफ उर्दू के लिए साहित्य अकादमी हासिल
करने वाले तरक्की पसंद अदीब नय्यर मसूद की रिहाइशगाह, अदबिस्तान है।
जिस कूचे की कगार पर यह फ़ूड
हब आबाद है, उसे मीर बब्बर अली अनीस के नाम पर कूचा-ए-मीर अनीस कहा गया। उनका मकान
और मक़बरा आज भी यहां मौजूद है। उनके अदब की क़द्र करने वाले दुनिया के किसी भी छोर से
यहां आते हैं और उनके मक़बरे की ज़ियारत को अपनी ख़ुशक़िस्मती समझते हैं। इस कूचे से कुछ
दूरी पर मिर्ज़ा दबीर दफ़न हैं। उर्दू अदब ने समकालीन रहे अनीस और दबीर का वह दौर भी
देखा है ऐसा कि इनके चाहने वाले 'अनीसिया' और 'दबीरिया' नाम से जाने गए। फ़ूड हब के
पश्चिम की तरफ है हकीमों वाली गली। हकीमों के पुश्तैनी क़ब्रिस्तान में दुनिया को लखनऊ
का इतिहास बताने वाले अब्दुल हलीम शरर दफ़न हैं। इनकी लिखी गुज़िश्ता लखनऊ आज भी इस शहर
का अहवाल सुनाने वाला बेहद खास और ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
इसी हकीमों वाली गली का जंगे
आज़ादी में यादगार रोल था। हकीम अब्दुल अज़ीज़ (1855–1911) के नाम से इस गली को शोहरत
इस लिए मिली थी क्यूंकि उनके घराने के मर्द और औरतों ने जंगे आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा
लिया था। उनके पोते एम शकील ने इस रवायत को क़ायम रखा। शायद ही अब कोई इस बात पर शर्मिंदा
होने वाला बचा हो कि जिस गली के गिर्द यह फ़ूड हब आबाद है, वह गली एम शकील के नाम पर
है। एम शकील जो एक स्वंत्रता सेनानी, एक तरक़्क़ी पसंद लेखक, एक लीडर के अलावा मज़लूमों
और मज़दूरों के रहनुमा रहे। इसी फ़ूड हब में नगर निगम द्वारा लगाया गया एम शकील रोड वाला
पत्थर चूल्हे के धुंए की परतों में गुम हो गया है। हर दिन सड़क घेरती दुकानों ने इस
पत्थर को धुंधला करने के साथ पीछे भी धकेल दिया है।
इस आंच और धुंए ने यहां सिर्फ
गुज़रे हुए कल को ही नहीं गुम कर दिया बल्कि आने वाला कल भी खसारे में है। यहां रहने
वाले लोकल लोगों को भी इस उपलब्धि पर फख्र ज़रूर है मगर इससे जुड़े दुखों की भी न पूछिए।
इन दुखों की गिनती तो इतनी ज़्यादा है कि एक किताब लिखी जा सके, मगर अफ़सोस कि उस किताब
को रखेंगे कहा! यह भी एक कड़ुवा सच है कि इस फ़ूड हब के आसपास क्या दूर-दराज़ तक कोई लाइब्रेरी
नहीं है। यहां तो बस खाने के होटल खुलते हैं, वह भी इस रफ़्तार में कि सुबह उठो तो पता
चलता है कि रातों-रात एक और होटल का इज़ाफ़ा हो गया। इन होटलों में आने वाली भीड़ ऐसी
कि रात दो बजे भी यहां की सड़क पर ट्रैफिक जाम रोज़ की बात है। दुकाने सड़क की सिम्त बढ़ते
हुए डिवाइडर तक पहुंचने को बेताब रहती हैं। भट्टियों ने इलाक़े की हरारत ऐसी बढ़ा दी
है कि गुलाबी सर्दियां इधर का पता ही भूल गई हैं। बल्कि मौसम की ठंड भी अब यहां तक
बहुत बाद में आती है और कहीं पहले रुख़सत हो जाती है। सांस लेने पर लगता है कि चिकनाई
अंदर दाखिल हो रही है। खाने के शौक़ीन इन आने वालों का सिलसिला रात के दो-तीन बजे तक
जारी रहता है। नतीजे में बाक़ी मार्केट भी देर रात तक खुलने और सुबह देर तक बंद रहने
की आदी हो गई है।
इन बाज़ार से जुड़े घरों में
रात तब होती है जब सूरज निकलने वाला होता है। तालीम के मामले में इस इलाक़े का पिछड़ापन
अफसोसनाक और शर्मनाक है। यह समझ लीजिए कि मुर्ग़ और मछली के इस दस्तरख्वान ने तालीम
को ही ढक दिया है। इन कामों में लगे ज़्यादातर छोटे दुकानदार या मज़दूर तबके के लिए रात-दिन
पकवानों की दुकाने सजाने के फेर में तालीम हर बार दोयम दर्जे पर आ जाती है। फैसल मियां
इसी इलाक़े में बेकरी की दुकान के मालिक हैं। उनसे बातचीत के दौरान जब पूछा कि बच्चे
किन क्लासों में हैं तो जवाब मिला- "दुकान बंद करते-करते रात के दो बज जाते हैं।
घर आकर खाना खाते और सोते सुबह के चार बजते हैं। बारह-एक बजे से पहले उठना ही नहीं
हो पाता। बेटे का कुछ बरस पहले स्कूल में दाखिला कराया था मगर उसे पाबन्दी से भेज नहीं
सके और अब तो वह इतना बड़ा हो गया है कि बेकरी पर बैठता है।" इस जवाब पर मेरा सवाल
था- "आप तो होटल नहीं चलाते फिर देर रात का रूटीन क्यों अपनाया है?" उनका
जवाब मिला- "अब तो सबका वही रूटीन है, जो इन होटलों का है। यहां साबुन बेचने वाला
भी दो बजे रात तक अपनी दुकान इसलिए खोले रहता है कि कस्टमर आते रहते हैं।"
अब्दुल हलीम शरर ने गुज़िश्ता
लखनऊ में जिन लखनवी पकवानों का ज़िक्र यह सोचकर किया होगा कि नवाबी दौर के ये क़िस्से
इतिहास की किताबों में महफ़ूज़ कर दें, उन्हें क़तई अंदाजा भी नहीं होगा कि जो नवाबों
को नसीब नहीं था उसका लुत्फ़ सदियों बाद की अवाम उठा सकेगी। नवाब तो बादाम के चावल और
पिस्ते की दाल वाली खिचड़ी और छिंटाक भर चावल में सेर भर घी अपने बावर्चीखाने में बनवा
लिया करते थे मगर ऑनलाइन की बदौलत यहां हर काउंटर पर मौजूद स्टाफ़ रात-दिन एक शीरमाल
और हाफ प्लेट बिरयानी भी शहर के कोने-कोने में पहुंचाने का फ़र्ज़ निभा रहा है।
नवाबी दौर के ज़ायकों के साथ
अब इनमें आधुनिक दौर के खाने भीं शामिल हुए है। मगर इस इलाक़े में हंडिया के नाम पर
क़ोरमा, नहारी, पुलाव, कबाब और रोटियों के नाम पर शीरमाल, कुलचे पराठे, तंदूरी जैसी
अनगिनत क़िस्मों का बोल बाला है। शौकीनों की ख़्वाहिशों पर पूरा उतरने के लिए ये बावर्ची
हर लगन और हर जतन कर डालते हैं। जवाब में शौक़ीन भी टूटकर अपनी मोहब्बत का इज़हार करते
हैं और मंज़र यह होता है- "जान जाए लाख ख़राबी से, हाथ न हटे रकाबी से"। इस
शौक़ में सेहत से विरासत तक दावं पर लग चुके हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि पुराना
लखनऊ ज़ायकों का गढ़ है। पकवानों की महक से लबरेज़ यहां की फ़िज़ाएं इतनी काफिर हो चुकी
हैं कि मज़बूत से मज़बूत इंसान का ईमान डोल जाए। यह महक जब भगोनों के ढक्कनों को चीरती
हुई इंसानी नाक से गुज़रती है तो सुध-बुध का गुम जाना कोई बड़ी बात नहीं। मुंह में ख्वाहिशों
का सलाइवा सैलाब की शक्ल में फूट पड़ता है और बेकाबू इंसान अपनी पसंद की डिश के आगे
यूं सिर झुकाए मिलता है कि अगर निवाला अंदर न गया तो रूह बाहर आ जाएगी।
यूनेस्को की मेहरबानी के बाद
लखनऊ अब एक ऐसे ग्लोबल नेटवर्क का हिस्सा बन गया है, जिसमें सौ से ज़्यादा देशों के
408 शहर शामिल हैं। इस नेटवर्क में हर शहर को किसी न किसी क्रिएटिव फील्ड, मसलन क्राफ्ट,
लोक-कला, डिज़ाइन, फ़िल्म, पाक-कला, साहित्य, मीडिया कला और संगीत में योगदान के लिए
पहचाना गया है। इस वर्ष इसमें एक नया विषय ‘वास्तुकला’ भी
जोड़ा गया है। ऐसे में लखनवी ज़ायक़ों की तासीर कहें या खुशबू का असर, लखनऊ और मुल्क
के बाहर रहने वाले भी इन ज़ायकों की मोहब्बत में बड़ी दूर-दूर से सफ़र करते हुए यहां आते
हैं। यहां आने वाले सैलानी कहीं और जाएं या न जाएं इस फ़ूड हब की ज़ियारत और यहां के
ज़ायकों से इंसाफ किये बिना उनकी लखनऊ विज़िट अधूरी होती है।
यह भी एक अजीब इत्तिफ़ाक़ है
कि जिस समय में यूनेस्को लखनऊ को ज़ायक़ों की फेहरिस्त में जगह देता है उसी महीने आने
वाली डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के 16 देशों व इलाक़ों में एक बड़ी
आबादी के पास पेट भरने के लिए पर्याप्त खाना नहीं है। इनके अकाल के गर्त में धंसने
का जोखिम गहराता जा रहा है। यह वही वक़्त है जब हमारी धरती जंग, क्लाइमेट और आर्थिक
परेशानियों के ऐसे मकड़जाल में उलझी है जहां इस भुखमरी को टालने के लिए वक़्त हाथ से
फिसलता जा रहा है।
माना कि हर दौर में ज़ायके की
दुनिया सबसे दिलकश और इसका नशा सबसे आला रहा है। बंटवारे के बाद इब्ने इंशा की लिखी
किताब 'खुमार-ए-गंदुम' ने बता दिया था कि गेहूं का नशा सबसे ऊपर है। बाज़ारों ने भी
इस शौक़ को जाना और नाज़-नख़रा उठाते हुए पाल-पोस कर इस मुक़ाम तक लाया गया। इस परवरिश
और इन मेहनतों के सदक़े आज इस शहर का यह रूप है, इस रूप में ज़ायक़े हैं, इन ज़ायक़ों के
चाहने वालों का सैलाब है, इस सैलाब में गुम होती तमाम ऐसी रवायतें, जिनसे शायद किसी
को कोई मतलब नहीं। इसी ज़ायक़े में गुम होता यहां के इलाक़ाई लोगों का आने वाला कल है।
फिर भला कैसे कहें- 'मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं।'
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