आज दादी को गुज़रे 14 बरस बीत गए। इन बीते सालों में उन्हें हर लम्हा और करीब पहले से भी ज़्यादा शिद्दत से अपने साथ महसूस किया है। उनकी ज़िन्दगी की झलक को अपनी डायरी के कुछ हिस्सों के ज़रिये आप तक लाने की जसारत कर रहे है...
दादी यानी अम्मीजान। बिलकुल वैसी ही थी जैसी होनी चाहिये। चांदी जैसे बाल, माथे पर तजुर्बे की सिलवट, चेहरे और हाथ पर उम्र की झुर्रियां।
...सूरज निकलने से बहुत पहले बेदार हो जाना और उसके बेदम होकर ग़ुरूब हो जाने के बाद भी उसी रफ़्तार से अपने गुलशन के कारोबार में मशगूल रहना। न जाने कहां से ट्रेनिंग ली थी अम्मीजान ने!!! स्याह या चांदनी रात हो, कोहरे से धुंधलाई दोपहर हो, खून जमा देने वाली सर्दी हो या थपेड़े मारती झुलसाती गर्मियां। उनके किसी मामूली से मामूली काम में ये सब खलल न डाल सके।
...अम्मीजान को उर्दू ज़बान के साथ समझौता ज़रा नही बर्दाश्त था। मजाल नहीं दौराने गुफ्तगू कोई शीन क़ाफ़ या ज़ेर ज़बर की शान में गुस्ताखी कर सके।
...मैनेजमेंट की पूरी यूनिवर्सिटी थी अम्मीजान। निगाहों से ज़ेहन के बीच का ऐसा ताल मेल कि मौजूदा दिन नहीं ज़माने की जिम्मेदारियां किसी कंप्यूटर प्रोग्रामर की तरह अपडेट।
....उनसे पांच बरस छोटा हो या पचास बरस बड़ा, उन्हें हर शख्स ने अम्मीजान का लक़ब दिया था। हत्ता की दादा ने भी मुखातिब किया तो "आपकी अम्मीजान" कह कर ही किया।
...आज होती तो 90 बरस की होती। अम्मीजान उस वक़्त भी कितनी आला सोच की मालिक थी जब मुल्क ग़ुलाम था। इसे साबित करने को बस एक ही मिसाल काफी है। पुराने लखनऊ की जिन आरामतलब गलियों में आज भी लड़कों को पढ़ाने का रिवाज नहीं वहां 75 साल पहले पैदा हुई उनकी बेटी जॉइंट मेडिकल डाइरेक्टर की पोस्ट से 2004 में रिटायर हुई।
...अम्मीजान ने इरादा कर लिया कि कड़वे तेल और हल्दी वाले आलू के सालन के साथ उलटे तवे की चूल्हे वाली चपाती ही खाई जायगी, बस फिर आंगन के एक हिस्से का इंतिखाब हुआ, मिटटी लायी गई, एक जानकार की सरपरस्ती में चूल्हे की बुनियाद पड़ी और तामीर अम्मीजान के हाथों हुई। इतना ही नहीं जब तक सेहत ने इजाज़त दी उसकी मरम्मत भी होती रही। बात सिर्फ यहीं पर ख़त्म नहीं होती। क़रीबी ही नहीं किसी दूर दराज़ वाले को भी अगर ये चूल्हा पसंद आ गया तो जब तक बन कर उसके घर न पहुंच जाए अम्मीजान की रूह बेचैन रहती।
...अम्मीजान कार्ल मार्क्स से करीब 100 साल छोटी रही होंगी। जिस सवाल ने मार्क्स को बेचैन किया, वतन छोड़ने पर मजबूर किया और तब जाकर मार्क्सवाद सामने आया, उस मार्क्सवाद को हमने अपनी आंखों से अम्मीजान की ज़िंदगी में रचा बसा पाया। अगर अम्मीजान बड़ी होती तो हम मार्क्सवाद को राबियावाद का नाम देते। उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं था कि मुख्तार साहब (दादा) के घर में गंदुम या आलू के बोरे इफरात रहें और पास पड़ोस में मुफलिसी। उनके अंदर का साम्यवाद दादा की गैरमौजूदगी में चीज़ों का इस तरह हिस्सा बांट करता कि किसी तरह उनका ये अरमान पूरा हो जाए कि सबको सबकुछ मिल सके। ईद पर दादा से लेकर जमादार तक को 5 रुपये का सिक्का मिलता था जो बाद में 10 रुपये हो गया था।
...अम्मीजान की जिंदगी के तमाम फलसफों में एक था 'न बैठेंगे न बैठने देंगे।' यही वजह है कि उनसे वाबस्ता हर शख्स आज तक अपने दिल में उनके साथ गुज़रे तमाम लम्हो को महफूज़ किये है। जब कभी वो फुर्सत में होती तो अपने ये पसंदीदा अलफ़ाज़ ज़रूर दोहरातीं ... बदल जाये अगर माली...
आज दादी नहीं हैं। वो दौर भी नहीं है।... और इसीलिए किसी से कोई शिकायत भी नहीं है..
(23 जनवरी 2019 में फेसबुक पर लिखी पोस्ट)
https://www.facebook.com/khan.suboohi/posts/2648228905193164
Mazmoon likhne me mahir ho
जवाब देंहटाएंBehtreen
जवाब देंहटाएंWow you are too good with words and emotions
जवाब देंहटाएंToo good with words and emotions
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंबात भी, जज्बात भी और अन्दाज-ए-बया भी।
बहुत लाजवाब लिखा... मगर मुख़्तसर है.
जवाब देंहटाएंGhazab likha h
जवाब देंहटाएंGreat 👌
जवाब देंहटाएंAisa lagta hain jo mazi tasawor me tha aaj Haqeeqat me ru baru hain mashaallah nice
जवाब देंहटाएंAisa lagta hain jo mazi tasawor me tha aaj Haqeeqat me ru baru hain mashaallah nice.... Azra
जवाब देंहटाएंVery nice lines mam...dil s
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा, हमेशा की तरह बेहतरीन, अगर दादी के आखरी अल्फ़ाज़ अगर माली बदल जाये. . .को पूरा लिख देती तो अच्छा रहता।
जवाब देंहटाएंसमीना पहले भी पढ़ा है और आज फिर से पढ़ते हुए लगा कि अभी और पढ़ते जाएँ उनके बारे में..ये सिलसिला चलता रहे..अम्मीजान को सादर नमन🙏🏻💐—@शालिनी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दोस्त।
हटाएंबहुत अच्छा लिखा है समीना ....लफ़्ज़ों की बुनावट और कहन के अंदाज़ ने इस संस्मरण को दिल के क़रीब रख दिया। आपको पढ़ना सुखद है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आभा जी।
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