सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

बात मक़सद की कीजिए, मिज़ाज तो बदलते ही रहते हैं



आज घंटाघर की औरतों को उनका ही क़िस्सा सुनाते हैं! किन किन गली कूचों और दूर दराज़ के इलाक़ों से निकल कर यहाँ आती है ये औरतें। आसपास की ज़्यादा आबादी तो मुसलामानों की है मगर हवन भी होता है और रोज़ा इफ़्तार भी। हर मज़हब और हर तबके से आने वाली मिलेंगी यहाँ पर। इनकी ड्यूटी बदलती है मगर मक़सद नहीं। इनकी आज़माइशें भी बदलती हैं लेकिन हौसला नहीं। कभी मौसम, कभी घरदारी, कभी बच्चे के इम्तिहान तो किसी का हिचकोले लेता घर का बजट। ऐसे में बीमारी आज़ारी पूछ कर थोड़े ही आती है। इन तमाम कही अनकही मुश्किलों के बीच बड़े ही सलीके से इनका आंदोलन जारी है।

बताते हैं उस दिन की कहानी जब आंदोलन का दूसरा दिन था। मौसम की शिद्दत और भीड़ के जोश में टक्कर जारी थी। लगातार 4-5 दिन चलने वाली बारिश बंद हो चुकी थी। मगर बादलों की मौजूदगी कभी भी बरस जाने को तैयार नज़र आती थी। खुले इलाक़े में चलने वाली हवाओं में इतनी गलन थी कि जड़ावल काम नहीं कर रही थी। अलाव जलाने की इजाज़त नहीं थी। कम्बल भी पुलिस से खींचे जाने का डर था। ऐसे में सिर्फ जज़्बे की गर्माहट थी जिसने इसे जारी रखा था। इसी दूसरी शाम को जब सूरज बादलों के पीछे पीछे बिना निकले डूब चुका था। घंटाघर के आस पास की बिजली गुल की जा चुकी थी। उस वक़्त घेराबंदी की हुई रस्सियों को पार करते हुए एक आवाज़ कानों में टकराई। हलके अँधेरे में बस इतना समझ आया कि ड्यूटी से उकताये दो पुलिस वाले इन हालात पर अपना ख़याल ज़ाहिर कर रहे थे। उनमे से एक के लफ्ज़ थे - "ई कत्ते दिन बैठिहें? पलस्तर किये घरन मा तो छिपकरी, चूहा दियाख के डर के मारे तो चीखै लागत हैं।" बात ख़त्म हो गई थी। उसके बाद की बहुत सारी बातों में दब भी गई थी। मगर ज़िंदा थी। फिर बहुत सारे दिन गुज़र गए। इतने दिनों में बहुत कुछ बदल गया। मौसम, लोगों का रूटीन, खुले हुए स्कूल, बच्चों के इम्तिहान। बस नहीं बदला तो इन आने वालियों का मक़सद। अब बिजली गुल नहीं होती थी। इनके कम्बल भी नहीं खींचे जाते थे। अपनी अपनी घरेलू ड्यूटी के मुताबिक़ इनकी तादाद घटती बढ़ती रहती है। बिना नाम लिए बताना चाहेंगे, कुछ चेहरों पर कमज़ोरी नज़र आने लगी है। उनके वज़न गिर गए हैं मगर बड़ी महारत से  इन औरतों ने खुद को इस आंदोलन में ढाल लिया है। 

ये आंदोलन का 39वां दिन है। अब दिन भी कुछ बड़ा हो चुका है। बिजली, पानी और खाने का बिलकुल सधा हुआ इंतिज़ाम है। रस्सियों से खींची गई बॉउंड्री के वही तीन घेरे अभी भी मौजूद हैं। इस घेरे में दाखिल होने से पहले एक आवाज़ पर बढ़ते क़दम कुछ थमे। मुड़ कर देखा। चंद उम्रदराज़ और बेहद तजुर्बेकार लोगों के ग्रुप में एक साहब फरमा रहे थे - 'ऐसा मालूम होता है कि अब ये ख़्वातीन अपनी बात पर सरकार को राज़ी करवा कर ही यहाँ से हटेंगी!' इन अलफ़ाज़ ने दूसरे दिन की सुनी आवाज़ को जवाब दे दिया था। अंदर दाखिल होते वक़्त क़दमों में जोश महसूस किया था।

(फोटो साभार: avadhnama.com)

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...