सोमवार, 27 अप्रैल 2020

बुआ


'फूलन।' बुआ के पीछे लोग उनके लिए यही नाम लेते थे। ये खिताब बुआ को ऐसे ही नहीं मिला था। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें ये तमग़ा मिला था। अपनी मज़बूती और दबंगपने से बुआ पूरे इलाक़े में मशहूर हैं। देखने में दुबली पतली सी बुआ चार आदमियों का काम अकेले कर डालती हैं। करती न तो जाती कहां। शादी के बाद मरद गावं से शहर ले आया और तब पता चला कि उसे काम करने की बिलकुल आदत नहीं है। कभी कभी रिक्शा चलाता था मगर शराब रोज़ पीता था। फिर तो बुआ ने ही हर ज़िम्मेदारी को अपने कंधे पर लादना शुरू कर दिया।

बुआ की दिनचर्या में इतनी भी फुर्सत नहीं बची थी कि दिन भर के कामों की गिनती कर सकें। रोज़ी जुटाना, रोटी बनाना और घर संभालने के साथ तीन लड़कों और एक लड़की की परवरिश भी कर डाली थी। इस बीच बुआ के मरद ने परिवार को जो कुछ दिया वह था लात जूते और गलियां। बुआ अगर शराफत से उसे शराब पीने के पैसे दे देतीं तो बच जातीं। लेकिन अगर वह शराब से पहले बच्चों की रोटी की फ़िक्र करतीं तो उनके हिस्से में आती भरपूर पिटाई। मगर बुआ ये सब सहन कर लेतीं। उन्होंने स्कूल तो नहीं देखा, हां! एक सबक़ ज़रूर पढ़ा था -'अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूतों के साथ भली।' लेकिन बात बुआ के मान मर्यादा की हो तो बुआ का सारा सब्र जवाब दे जाता। क्या मजाल कि कोई उनके किरदार के बारे में उंगली भी उठा सके। ऐसा करके न तो किसी को अपनी टांगे तुड़वाने का शौक़ था और न ही मुंह। इस मुद्दे पर बुआ की ताकत जुनून में बदल जाती और और सामने वाला का हुलिया बिगाड़ देती। बुआ ने काम भी उन्ही घरों में किया जहां का माहौल सही पाया।

अब बुआ के बच्चे बड़े हो चुके हैं। लड़की ससुराल में है। दो लड़कों की शादी भी कर दी है। बुआ घर में मुखियाइन के ओहदे पर हैं। घर का कोई काम उनके हिस्से में नहीं है। मगर आज भी चार घरों में झाड़ू बर्तन या खाना पकाना उन्होंने नहीं छोड़ा है। लड़कों की कमाई इसलिए बैठकर खाना नहीं पसंद करती थीं कि कहीं बहु ताना न दे। और फिर कुछ पैसे कमाकर लाने से घर में उनका असर भी बना रहेगा। यह बुआ का मानना है। अब बुआ अपनी कमाई बड़ी बहू के हाथ में देती हैं।

मुखियाइन होने के नाते घर में बुआ की वही आवभगत होती है जो एक कमाऊ आदमी की होनी चाहिए। उनके खाने की थाली भी बहुएं ही लगाती हैं और सोते वक़्त पीने का पानी भी सिरहाने रखना नहीं भूलतीं। बस बुआ की एक ही ख़्वाहिश है कि उनका परिवार एक साथ रहे। जब बेटों को पढ़ाने का मौक़ा नहीं मिला तो बेटी की क्या औक़ात। मगर बेटी ही नहीं बहुओं को भी बुआ ने यही जीवनसूत्र दिया है -'अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूते के साथ भली।'

अब घर के हालात कुछ बेहतर हैं। लड़के भी मज़दूरी करते हैं। फिर भला बुआ के मरद को काम करने की क्या ज़रूरत। थोड़ी झिक झिक के बाद ही सही, नशा चढ़ाने का पैसा मिल ही जाता है। बहुओं को ये खर्च अखरता ज़रूर है मगर बुआ तो दूर शौहर से भी यह कहने की हिम्मत नहीं। ...और बुआ भी ऐसी पतिव्रता कि अपनी दवा एक बार टाल सकती हैं मगर मरद की दारू नहीं। दो दिन पहले बुआ के मरद ने उन्हें बुरी तरह पीटा है। उसका कहना था कि बुआ के पास पैसा है मगर वह देना नहीं चाहतीं। आज बुआ काम पर पहुंचीं तो ठीक से चल नहीं पा रही थीं। मुख़्तार साहब की मंझली बहू ने खैरियत पूछी तो फूलन ने सारा क़िस्सा बता डाला।

'बुआ आप क्यों ऐसे आदमी के साथ रहती हैं ? अब आप यहीं रहिए, काम कीजिए और जब दिल चाहे बहू बेटों से मिलने चली जाइए।' मुख्तार साहब की बहू ने बहुत देर समझाया मगर बुआ का जवाब था- 'नहीं बिटिया! अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूते के साथ भली।'

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

शबेबारात मुबारक! कोई ऑफलाइन हलवा भी खिला दे

इनबॉक्स और वॉल  से खबर मिली कि आज शबेबारात है। इस बार मुबारकबाद के कार्ड से ज़्यादा हलवा भेजा जा रहा है। स्क्रीन के पीछे नज़र आती हलवे की प्लेटें बड़ी ज़ालिम नज़र आईं। सजावट से भरपूर दिख रही थीं महसूस भी हो रही थीं मगर छूने के कोशिश में यही कह देतीं - 'तूने हाथ बढ़ाया और मैं चली' तो शायद दिल को क़रार भी आ जाता। मगर ये ज़ालिम पूरी आन बान और शान के साथ तरसाती हुई मौजूद थीं। हम लोग हलवे वाले मुसलमान नहीं। हमारे घर साल में किसी भी दिन हलवा बना मगर शबेबारात में कभी नहीं। क्यों नहीं?  इस पर कभी इसलिए नहीं सोचा कि पड़ोसियों के हलवे ने इस महरूमी का एहसास ही नहीं होने दिया।

वो तो आज ऑनलाइन हलवे ने कई एहसास जगा दिए। ये मुआ ऑनलाइन हलवा एक और मामले में बड़ा वाहियात निकला। ऑफ़लाइन हलवे का वाक़ई कोई जवाब नहीं। जब आपके घर हलवा न बना हो तो पड़ोस से आये हलवे को शेप बदलते हुए सिर्फ अपने घर की तश्तरी में रखना होता है और इधर का माल उधर। मतलब पड़ोसियों का माल पड़ोसियों के घर अपने हुनर की ब्रांडिंग के साथ भेजा और ताल्लुक़ात बहाल कर डाले। अब ज़रा सोचिये कि ऑनलाइन हलवे के साथ ये हरकत करें तो ऑल्टन्यूज़ या न्यूज़लॉन्ड्री वाले ही सबसे पहले पोस्टमॉर्टम कर दें। यहाँ तो फोटोशॉप पर भी महारत नहीं हासिल है।

इस हलवे का ज़ाइक़ा लेने के जतन  में एक और नाकामयाब कोशिश कर डाली। सोचा कि आँखों से ऐसी मशक्कत कर डाले और उन मर्दों जैसे बन जाएं जो सड़क पार खड़ी लड़की को घूरकर गटक लेने की सलाहियत रखते हैं। थोड़ी ही देर में अंदाज़ा हो गया कि हलवा तो नहीं नसीब होगा अलबत्ता चश्मे का नंबर ज़रूर बढ़ जायेगा। यक़ीन मानिये अंदर से भले ही मिस्टर बीन वाली नाकामयाबी और खिसियाहट महसूस हो रही हो मगर चेहरे से कोई इस टूटे दिल का अंदाजा नहीं लगा सकता।

खैर उन सभी हलवा बनाने वालों को हलवा और शबेबारात मुकारक हो जिन्हे हलवे से ज़्यादा ज़ाइक़ा इस बात में मिल रहा है कि लॉकडाउन के चलते ये सारा का सारा उनका है। आज इन सबको पुलिस बहुत अच्छी लग रही होगी जिसके चलते इसमें हिस्सा बाँट नहीं होगा। मगर याद रखिएगा, फिर वक़्त का पहिया घूमेगा, फिर शबेबारात आएगी और फिर आप ऐसे ही सजे बने हलवे बनाएंगे और हम ऑफ़लाइन आपके दरवाज़े पर दस्तक देते मिलेंगे। तब आपके पास पूरा मौक़ा होगा अपनी मेहमाननवाज़ी दिखाने का।

(मेहरबानी करके इस पोस्ट को मज़हब, जेंडर, कंजूसी, काहिली या चालाकी से न जोड़ें।)

रविवार, 5 अप्रैल 2020

रंगत आसमान सी


वह एक्टिविस्ट बनना चाहती थी क्यूंकि उसे अच्छा लगता था।
वह उसका दीवाना था क्यूंकि उसे वो अच्छी लगती थी।
दोनों को अपनी राह आसान और मंज़िल सामने नज़र आती थी। बिलकुल सामने।
वह जानती थी कि घर वाले इस रिश्ते पर कभी ऐतराज़ नहीं करेंगे।
वह भी समझता था कि मां - बाप उसकी पसंद में रोड़ा नहीं डालेंगे।
दोनों को कभी छुप कर मिलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। शायद इसकी वजह घरवालों की किसी तरह की पाबन्दी से आज़ाद उनका रिश्ता था। मगर दोनों को अपनी हदें भी मालूम थीं। क्या गज़ब का ताल मेल था इस आज़ादी और हद का। उन्होंने कभी इस बारे में बात भी नहीं की थी और सब कुछ तय भी था। उन्हें ये ज़रूर पता था कि  किसी से मिलने के लिए अगर घरवालों की रज़ामंदी न हो तो क्या क्या जतन करने होते हैं।
पिछले कुछ दिनों से दोनों की मुलाक़ात का अड्डा प्रदर्शन स्थल था।
वह अपनी क्लासेज करके घर आ जाती।
वह भी अपनी पढ़ाई के बाद दिनभर के काम निपटा लेता।
डूबते सूरज के साथ दोनों अलग अलग उसी राह पर निकल लेते।
कभी सूरज डूब रहा होता कभी डूब चुका होता। आसमान के इतने सारे रंग गवाह थे इस मोहब्बत के। आसमानी से सुर्ख और सुर्ख से स्याह होते इन रंगो में ये मोहब्बत परवान चढ़ रही थी।

घेरे के इस पार खड़ा वो बस निहारता था उसे। घेरे के इस तरफ मौजूद साथियों में वह भी मगन थी। अपने मिशन में जुटी हुई। कोई एक काम नहीं था उसके पास। कभी मंच पर सामान तरतीब देते दिखी तो कभी माइक और स्पीकर के ताम झाम की वायरिंग सुलझाते। उसकी चाल की तेज़ी बाक़ियों की निगाह में थी। दौड़ भाग के काम में भी वही दबोची जाती थी सबसे पहले। मंच के पीछे वाले मेडिकल कैंप से कोई सरदर्द की दवा लाने का हुक्म देता तो रफ़्तार का ये हाल कि वालिंटियर वाला बेवज़न कार्ड उससे पिछड़ जाता, भला हो उस नीली डोरी का जिसके सहारे वह गले में अटका रह जाता था। काम की इस रफ़्तार के साथ उसका सुकून भी साफ़ नज़र आता था। शायद यही वजह थी कि बिखरी हुई दरियां समेटते वक़्त न तो उसका जबड़ा कसता था और न हीं भवें तनती थीं। कोई भी थोड़ी देर उसपर निगाह डाल कर ये अंदाज़ा लगा सकता था कि उसमे कम से कम वक़्त में ज़्यादा से ज़्यादा काम निकाल लेने की सलाहियत है।

जब वह मिशन पर होती थी तो उसकी निगाहों से बिलकुल बेखबर होती थी। वह भी शांत सा उस खंभे में टेक लगाए कितना सारा वक़्त उसे देखते और ओझल होते गुज़ार देता था। बीच बीच में आने वाले फोन के अलावा बेवजह स्क्रीन में आंखे धंसाने की शायद उसे आदत नहीं थी। वह नहीं दिखती तो कभी पेड़ों का नज़ारा कर लेता, कभी आसमान के रंगों में खो जाता और कभी सड़क से गुज़रती गाड़ियां और लोग उसे उलझाने में कामयाब हो जाते थे।

दोनों की वापसी का वक़्त भी तय था। उसकी पूरी कोशिश होती कि ठीक आठ बजे वो उस घेरेबंदी से बाहर आ जाये। दोनों की वापसी साथ होती थी। एक दूसरे से दोनों के दिनभर के सवाल होते थे। वह भी कुछ ख़ास गुज़रा हुआ बड़ी खुशदिली से बताती थी। ये 15 मिनट का रास्ता दोनों साथ चलते थे। घंटाघर से निकल कर छोटे इमामबाड़े की तरफ जाना होता था दोनों को। 500 मीटर बाद बायीं तरफ वाले मोड़ पर भी 200 क़दम तक दोनों हमक़दम होते।

आज वापसी पर दोनों आठ बजे अपनी राह पर थे। घेरे के अंदर का कुछ भी हाल बताये बिना वह बोली - "मुझे जूता लेना है। ये अब बेकार हो गया। ऐसा करते हैं, कल तुम बाइक लेते आना और हम थोड़ा जल्दी निकल कर मार्केट चले चलेंगे।'
'ठीक है। कल जब हम लोग यहां आएंगे तो सीधे मार्केट ही जायेंगे।' उसने जवाब दिया। फिर अचानक कुछ याद आया तो बोला - 'तुम स्टाइल वाला जूता मत लेना, इतने सारे काम होते हैं इसलिए स्पोर्ट्स शू लेना। तुम्हे आराम मिलेगा।'

'वो लड़कों जैसा जूता! कितना अजीब लगेगा ?' बात करते हुए वह रुकी थी। अजीब क्यों? ये लड़का लड़की क्या होता है? तुम लोग कितनी मेहनत का काम कर रही हो। ज़रूरी है कि अब अपनी ड्रेसिंग ऐसी रखो जो तुम्हारे काम में कोई अड़चन न डाले। ... और प्लीज़ आज के बाद मुझसे ये लड़का लड़की वाली बातें मत करना। दिमाग़ खराब होता है मेरा। ये जो तुम लोग ऐसी सोच रखती हो न, इसलिए अपनी दुरगत की भी ज़िम्मेदार हो। बेचारा बनने का शौक़ होता है तुम लोगों को और उसकी आड़ में अपने फैशन के शौक़ भी पूरे कर लेती हो।' दोनों भूल गए थे कि वो सड़क किनारे रुके है। वह हैरत से उसके बिना रुके बोलने पर देखे जा रही थी। इतना और लगातार तो वो कभी नहीं बोला। शायद किसी और बात की झुंझलाहट थी। मगर उसके खयालात अंदर तक सुकून देते थे उसे, वह खामोश रही और मुस्कुरा कर सिर्फ इतना बोली- 'अब चलें?'

उसे मुस्कुराने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ी मगर मुस्कुरा दिया। दोनों चल दिए। कुछ हलकी फुल्की बातें भी आगे जाकर शुरु हो गई थीं। तय ये हुआ था कि वह अगले दिन बाहर ही उसका इन्तिज़ार करेगी। उसे कुछ काम निपटाते हुए आना था तो वह बाइक से उसे लेने आएगा और वहां से मार्केट चलेंगे। अगले दिन जब वह घंटाघर की तरफ बढ़ रही थी, ये सोचते हुए कि पता नहीं कितनी देर इन्तिज़ार करना होगा तो कुछ क़दम पहले ही उसपर निगाह पड़ी। अपनी हमेशा वाली जगह पर खड़ा था। उसकी तरफ देख रहा था, मुस्कुराते हुए। पहले आने पर खुद को एक विनर जताने का भाव था उसके चेहरे पर। उसकी मुस्कान देखकर वह खुश हो गई थी। कल वाली झुंझलाहट सिरे से गायब थी। उसे ख़ुशी हुई। उसका साथ आने वाले वक़्त के सुकून की ज़मानत लगता था।

पास पहुंच कर वह बोली - 'गाड़ी लाये हो न? अब चलें?'
उसने मुट्ठी खोली और चाबी दिखाते हुए बोला - 'पहले चाय पियेंगे।' इस आंदोलन ने सामने कितनी ही चाय की दुकानों को गुलज़ार कर दिया था। वैसे तो देर रात तक पहले भी यहाँ चाय की दुकानें रौनकभरी होती थीं मगर जब से आंदोलन वजूद में आया था तबसे अलग मिज़ाज के लोग ज़्यादा हो गए थे। अब हंसते खिलखिलाते और पुरानी इमारतों का नज़ारा करते टूरिस्ट की जगह आंदोलनकारी, मीडिया और हालात का मुआयना करने आने वाले लोग थे। इक्का दुक्का पुलिस का कोई आदमी कभी आता तो इन लोगों की आवाज़ें खुद बखुद धीमी होती हुई या खामोश हो जातीं या किसी दूसरे मुद्दे में बदल जातीं। 'तुम गाड़ी तक पहुंचो, मैं चाय वहीं लेकर आ रहा हूं। फिर चलेंगे।'

पार्किंग में खड़ी गाड़ियों के बीच ज़मीन पर पड़े टूटे कुल्हड़ पर उसकी निगाह थी। उसने अपने पुराने जूतों से उन्हें रौंदने की कोशिश की। थोड़ी मुश्किल हो रही थी। फिर खुद ब खुद ख़याल आने लगा। उसके पैरों में स्पोर्ट्स शू हैं और वो बड़ी महारत से एक के बाद एक उन टूटे हुए टुकड़ों को चकनाचूर करती जा रही है। वाक़ई उसका आईडिया कितना मुनासिब था। जब उसके पैरों में स्पोर्ट्स शू होंगे तो ज़िन्दगी कितनी आसान होगी। वह हवाओं में थी। खुद को सरपट चलते महसूस कर रही थी। फिर अचानक पीछे से आवाज़ आई- 'चाय गरम।' दोनों ने चाय शुरु ही की थी कि उसका फ़ोन आ गया और वह वापस अपने ख्यालों में थी। उसकी गाड़ी का हैंडिल अपने हाथ में थामे अपने पैरों को स्टार्ट किक पर महसूस करते हुए। उसकी आवाज़ पर फिर उसने चौंकते हुए 'हूं' कहा था। 'रेडी ? अब चलें ?'

हूं! कहते हुए वह मुड़ी और बेखयाली में हथेली उसकी तरफ बढ़ाते हुए उसने कहा- 'चाबी दो! हम चलाएंगे। तुम पीछे बैठना।'
'क्या? दिमाग़ ठीक है? मैं? पीछे बैठूं? तुम्हारे?' उन निगाहों से बिना उलझे उसकी आंखें झुकते झुकते चकनाचूर हो चुके कुल्हड़ को देख रही थीं। उसने खुद को ज़मीन पर महसूस किया।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

क़िबला! यक़ीन कीजिए नौ और दो भी ग्यारह होते हैं...


तबलीग़ी जमात के वाक़ये ने जिन दो मुद्दों पर सोचने को मजबूर किया है उनमे से पहला है कि भक्त दोनों तरफ हैं और इन पर हंसने के बजाय इनके इलाज की ज़रूरत है। दूसरा मामला ज़रा पेंचीदा है, जिसने करीब दस साल पहले पढ़े एक किस्से की याद ताज़ा कर दी। असल खेमे के भक्तों का मसला सिर्फ इतना है कि वो भक्त हैं और बीमार हैं। मगर इस खेमे के भक्तों की बीमारी सिर्फ कोढ़ नहीं उसमे खाज भी है। 

बात हो रही थी तबलीग़ी जमात की जो अपनी कमअक्ली या सूफी फितरत से देखते देखते मुल्क का सबसे बड़ा मुद्दा बन गई। दिल्ली के मरकज़ में मौजूद ये जमात  बाहर आने के लिए अल्लाह की मदद के इन्तिज़ार में बैठी रह गई। इन्होने अपनी लिखा पढ़त वाली खानापूरी के बाद कोई दूसरी कोशिश की ही नहीं। इनको अगर बाहर नहीं निकलने को मिला था या हुक्मरानों तक सुनवाई नहीं हो पा रही थी तो एक छोटी सी वीडियो तो बना कर बाहर भेज ही सकते थे या भीड़ एक मीटर के फासले पर लाइन बनाती खुद बखुद सड़क पर आ जाती तो कम से कम सबकी निगाह में आपकी एक कोशिश तो सामने आती। मगर इनमे से कोई भी तदबीर नहीं की गई। देखते देखते तबलीग़ी जमात एक तमाशा बन गई। इस तमाशे में सामने आया दुसरा मुद्दा। तबलीग़ी जमात की इस हरकत ने बरेलवी जमात को इस पर पाबन्दी लगाने का सुनहरा मौक़ा दे दिया। इस पाबन्दी की बात ने तमाशे को नया क्लाइमेक्स दे डाला। एक बार फिर कोढ़ में खाज की शक्ल लिए मुस्लिम फ़िरक़ापरस्ती दुनिया के सामने आ गई।  

मुसलामानों का मसला बस इतना है कि दीनी तालीम को पूरे ज़ेहन में इतना भर दिया कि लॉजिक जैसी गुंजाईश ही नहीं बची। अब अगर इन्हें ये बता दिया गया कि फलां हदीस से 7 और 4 के जोड़े जाने पर 11 आने की तस्दीक़ मिलती है मगर 9 और 2 के 11 होने की कोई तस्दीक़ नहीं तो आप किसी भी मुसलमान को इस बात पर राज़ी नहीं कर सकते कि 9 और 2 भी 11 होते हैं। यही मसला यहां भी था। रमज़ान और ईद के जिस चांद की तस्दीक के लिए ये जिस साइंस और टेक्नोलॉजी का मुंह ताकते थे उसी तकनीक के तहत आने वाले कोरोना से बेखबर इन्होने ये ठान लिया था कि अल्लाह पर यक़ीन इन्हे बीमारी से बेअसर रखेगा। 

कोरोना इस वक़्त बतौर महामारी हमारे बीच है मगर आज नहीं तो कल इसका वैक्सीन आ जायेगा और इसे भी पोलियो और टीबी वाला दर्जा मिल जायगा। मगर मज़हब और फ़िरक़ापरस्ती फिर लाइलाज रह जायेंगे। इन हालात ने एक ऐसे किस्से की याद दिला दी जो ई मेल के ज़रिये फॉरवर्ड होता हुआ हमतक आया था। ये 'जमाती लतीफ़ा 'उर्दू में था जिसे अनुवाद करके आप तक लाने की कोशिश कर रहे हैं।


जमाती लतीफ़ा 

एक बेहद गरीब और भूखा मुसाफिर, जिसकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी, कुछ मदद मांगने निकला और अलग अलग जमातों के दरवाज़े खटखटाने लगा।
हर एक से कहता - 'भाई ! अल्लाह के नाम पर कुछ दे दो। दो दिन से भूखा हूं।'
हर तरफ से जो जवाब मिले वो इस तरह हैं -

तबलीग़ी जमात वालों ने फ़रमाया -
'भाई ! भूख और प्यास का मिटाना अल्लाह के हाथ है। आप अल्लाह पर यक़ीन कीजिये और चालीस दिन की जमात में नाम लिखा दीजिये। अल्लाह ताला कारसाज़ है, वो हर परेशानी दूर करेगा।'

जमात ए इस्लामी वालों ने कहा –
'हम पहले करीबी और फिर इलाक़े की काउंसिल में बात रखते हैं। वहां से मंज़ूरी मिलने पर सेन्ट्रल काउंसिल को लिखते हैं। जैसे ही वहां से मंज़ूरी आती है, आपको जमात की तरफ से एक सिफ़ारिशी खत देंगे, जिसे दिखाकर आप किसी से भी मदद हासिल कर सकते हैं।'

अहले हदीस वालों ने फ़रमाया -
'हर नई चीज़ बिदअत (मज़हब में किसी नये काम की शुरुआत) है और हर बिदअत गुमराही है। पहले अपनी दाढ़ी बढ़ाइये। अल्लाह के रसूल ने कभी अल्लाह के नाम पर कुछ नहीं मांगा। अगर बुखारी और मुस्लिम में ऐसा कोई सबूत हो तो लाइए। लेकिन किसी हनफ़ी, बरेलवी या देवबंदी का फ़तवा मत लाइएगा।'

अहले सुन्नतउल जमात (बरेलवी) हज़रात ने फरमाया -
'इस तरह अगर अल्लाह के नाम पर सारा दिन भी मांगते रहोगे तो कोई जेब से कुछ न निकालेगा। या ग़ौस! या ख्वाजा! का नारा लगाओ फिर देखो वह कैसे तुम्हारी झोली भर देते हैं।'

देवबंदी हज़रात ने फ़रमाया -
'शरीयत ने मांगने से मना किया है। अल्लाह के रसूल के पास अगर कोई मांगने आता तो आप उससे कहते कि एक कुल्हाड़ी लो,जंगल से लकड़ियां काट कर उसे बेचो और कमाओ।'

मदरसे वालों ने कहा -
'भाई ! हमारे साथ फंड और चावल जमा करने निकलो, शाम में मिलकर पकायेंगे और मिलकर खायेंगे। अगर अनाज के साथ साथ पैसे भी जमा हुए तो चौथाई कमीशन आपका होगा।'

इमामबाड़े वालों ने कहा -
'आपका नाम क्या है? क्या मोमिन हो?'

क़ादियानी जमात ने कहा -
'अगर आप कलमा अहमदी पढ़ लें तो आज ही से हम आपको हर महीने पांच हज़ार रुपये का वज़ीफ़ा जारी कर सकते हैं।'

मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन वालों ने कहा -
'आप ऐसा कीजिए, हमारे एरिया की किसी मस्जिद का चुनाव कीजिए। हम वहां के वार्ड के सदर को बता देंगे। फिर आप मस्जिद के बाहर हर नमाज़ के बाद मिलने वाली मदद वसूल कीजिए। फ़िफ्टी परसेंट दारुल इस्लाम में जमा कीजिए और फ़िफ्टी परसेंट आप अपने पास रख सकते हैं और दूसरे मांगने वालों पर नज़र रखिये। सही मुख़बिरी करने पर आपको रहने के लिए किसी ज़मीन पर क़ब्ज़ा भी दिलाया जा सकता है।'

ज़ाहिद अली खान साहब ---
ने फ़ौरन जेब से सौ रुपये निकालकर दिए और फ़ोटोग्राफ़र को बुलवाकर उस भूखे के साथ तस्वीर खिंचवाई। अगले दिन सियासत और मुंसिफ में तस्वीर के साथ छपा कि -'पुराने शहर से ग़रीबी दूर करने के लिए ज़ाहिद अली खान की दरियादिली और मदद का सिलसिला जारी।'

बेचारा भूख से हार गया और चल बसा। सड़क के किनारे उसकी लाश के चारों तरफ लोग जमा हो गए। खुसुर फुसुर होने लगी। हिन्दू था कि  मुसलमान ? शिया था की सुन्नी? बरेलवी था कि देवबंदी? अपने इलाक़े का था कि बाहर का? पुलिस ने उसकी जेब की तलाशी लेने से पहले एहतियातन एंटी बम स्कॉयड को भी बुला लिया। इतनी ही देर में अलग अलग जमातों के ज़िम्मेदार भी जमा हो गए और अपनी अपनी बात आगे रखने लगे।

तबलीग़ी जमात वालों का कहना था -
'जो लोग अल्लाह के रास्ते की मेहनत छोड़ देते हैं और घरों से दीन की तबलीग़ के लिए नहीं निकलते और मस्जिदें खाली रखते हैं तो उनपर अल्लाह का अज़ाब ऐसे ही भूख़, ग़रीबी, सूखे या सैलाब की शक्ल में आता है।'

जमात ए इस्लामी के अमीर ने कहा -
'आम इंसान की ख़िदमत सबसे बड़ी इबादत है। हम पिछले साठ साल से बड़ी ही मेहनत और ईमानदारी से इस काम में लगे हुए हैं। यहां मौजूद लोगों से अपील है कि ज़्यादा से ज़्यादा फंड जमा करने में मदद करें जिससे इस मौके पर हम कुछ मदद कर सकें।'

अहले हदीस ने फ़रमाया -
'जो हुआ अल्लाह की मर्ज़ी थी। हम सबको चाहिए कि आपसी मतभेद से दूर रहते हुए हमख़याल हों और ख़बरदार! कोई मरने वाले के लिए फातिहा, फूल या पक्की क़ब्र की बात न करे।'

अहले सुन्नतउल जमात ने कहा कि -
'मरहूम हज़रत भूखे शाह रहमतुल्लाहअलैह का सय्यूम जुमे के दिन होगा। बाद नमाज़ अस्र ख़त्म क़ुरआन और फ़ातिहा होगी और अल्लामा फ़खरुल उलेमा ताजुल मशायख़ीन आरिफ बिल्लाह हज़रात मौलाना ग़ौस जमाली चिश्ती व नक्शबंदी चादरे गुल पेश करेंगे। पहली बरसी पर ख़ास एहतिमाम किया जायेगा   और महफ़िल का भी इंतिज़ाम होगा।'

देवबंदी जमात के अमीर ने पूरे दर्द के साथ फ़रमाया -
'हमको चाहिए कि ज़कात का मरकज़ी निज़ाम क़ायम करें, बैतुलमाल का चलन करें ताकि लोगों को बैंक और सूद से छुटकारा मिले।'

मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के बन्दे ने बहते हुए आंसुओं के साथ बड़ी ही जोशीली और जज़्बाती तक़रीर करते हुए फ़रमाया -
'सरकार ग़रीबी को मिटाने में नाकाम हो चुकी है। हम अल्पसंख्यकों के साथ और ज़्यादा नाइंसाफी बर्दाश्त नहीं कर सकते। कल चारमीनार से असेंबली तक हम एक मुखालिफत का जुलूस निकालेंगे और हुकूमत से मांग करेंगे कि हमारे सभी फ़िरक़े के मुसलामानों के लिए एक हज़ार करोड़ रुपया फ़ौरन मंज़ूर करें और हमारे हवाले करें।'

ज़ाहिद अली खान साहब ने फिर से मय्यत की तस्वीर खिंचवाई और अगले दिन सियासत और मुंसिफ में तस्वीर के साथ छपा -
'पुराने शहर की एक छोटी सी जमात के लूटमार के नतीजे में ग़रीबी में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा। सरकारी बजट के नाजायज़ इस्तेमाल का अंदेशा, एक ग़रीब की फ़ाक़ों से मौत।'

मदरसे वालों ने फ़ौरन एक्शन लेते हुए आवाज़ लगा दी -
'हज़रात! एक लावारिस मय्यत के कफ़न दफ़न के लिए फ़ौरन दिल खोल कर चन्दा इनायत फरमाएं।'

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...