सोमवार, 27 अप्रैल 2020

बुआ


'फूलन।' बुआ के पीछे लोग उनके लिए यही नाम लेते थे। ये खिताब बुआ को ऐसे ही नहीं मिला था। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें ये तमग़ा मिला था। अपनी मज़बूती और दबंगपने से बुआ पूरे इलाक़े में मशहूर हैं। देखने में दुबली पतली सी बुआ चार आदमियों का काम अकेले कर डालती हैं। करती न तो जाती कहां। शादी के बाद मरद गावं से शहर ले आया और तब पता चला कि उसे काम करने की बिलकुल आदत नहीं है। कभी कभी रिक्शा चलाता था मगर शराब रोज़ पीता था। फिर तो बुआ ने ही हर ज़िम्मेदारी को अपने कंधे पर लादना शुरू कर दिया।

बुआ की दिनचर्या में इतनी भी फुर्सत नहीं बची थी कि दिन भर के कामों की गिनती कर सकें। रोज़ी जुटाना, रोटी बनाना और घर संभालने के साथ तीन लड़कों और एक लड़की की परवरिश भी कर डाली थी। इस बीच बुआ के मरद ने परिवार को जो कुछ दिया वह था लात जूते और गलियां। बुआ अगर शराफत से उसे शराब पीने के पैसे दे देतीं तो बच जातीं। लेकिन अगर वह शराब से पहले बच्चों की रोटी की फ़िक्र करतीं तो उनके हिस्से में आती भरपूर पिटाई। मगर बुआ ये सब सहन कर लेतीं। उन्होंने स्कूल तो नहीं देखा, हां! एक सबक़ ज़रूर पढ़ा था -'अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूतों के साथ भली।' लेकिन बात बुआ के मान मर्यादा की हो तो बुआ का सारा सब्र जवाब दे जाता। क्या मजाल कि कोई उनके किरदार के बारे में उंगली भी उठा सके। ऐसा करके न तो किसी को अपनी टांगे तुड़वाने का शौक़ था और न ही मुंह। इस मुद्दे पर बुआ की ताकत जुनून में बदल जाती और और सामने वाला का हुलिया बिगाड़ देती। बुआ ने काम भी उन्ही घरों में किया जहां का माहौल सही पाया।

अब बुआ के बच्चे बड़े हो चुके हैं। लड़की ससुराल में है। दो लड़कों की शादी भी कर दी है। बुआ घर में मुखियाइन के ओहदे पर हैं। घर का कोई काम उनके हिस्से में नहीं है। मगर आज भी चार घरों में झाड़ू बर्तन या खाना पकाना उन्होंने नहीं छोड़ा है। लड़कों की कमाई इसलिए बैठकर खाना नहीं पसंद करती थीं कि कहीं बहु ताना न दे। और फिर कुछ पैसे कमाकर लाने से घर में उनका असर भी बना रहेगा। यह बुआ का मानना है। अब बुआ अपनी कमाई बड़ी बहू के हाथ में देती हैं।

मुखियाइन होने के नाते घर में बुआ की वही आवभगत होती है जो एक कमाऊ आदमी की होनी चाहिए। उनके खाने की थाली भी बहुएं ही लगाती हैं और सोते वक़्त पीने का पानी भी सिरहाने रखना नहीं भूलतीं। बस बुआ की एक ही ख़्वाहिश है कि उनका परिवार एक साथ रहे। जब बेटों को पढ़ाने का मौक़ा नहीं मिला तो बेटी की क्या औक़ात। मगर बेटी ही नहीं बहुओं को भी बुआ ने यही जीवनसूत्र दिया है -'अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूते के साथ भली।'

अब घर के हालात कुछ बेहतर हैं। लड़के भी मज़दूरी करते हैं। फिर भला बुआ के मरद को काम करने की क्या ज़रूरत। थोड़ी झिक झिक के बाद ही सही, नशा चढ़ाने का पैसा मिल ही जाता है। बहुओं को ये खर्च अखरता ज़रूर है मगर बुआ तो दूर शौहर से भी यह कहने की हिम्मत नहीं। ...और बुआ भी ऐसी पतिव्रता कि अपनी दवा एक बार टाल सकती हैं मगर मरद की दारू नहीं। दो दिन पहले बुआ के मरद ने उन्हें बुरी तरह पीटा है। उसका कहना था कि बुआ के पास पैसा है मगर वह देना नहीं चाहतीं। आज बुआ काम पर पहुंचीं तो ठीक से चल नहीं पा रही थीं। मुख़्तार साहब की मंझली बहू ने खैरियत पूछी तो फूलन ने सारा क़िस्सा बता डाला।

'बुआ आप क्यों ऐसे आदमी के साथ रहती हैं ? अब आप यहीं रहिए, काम कीजिए और जब दिल चाहे बहू बेटों से मिलने चली जाइए।' मुख्तार साहब की बहू ने बहुत देर समझाया मगर बुआ का जवाब था- 'नहीं बिटिया! अपने मरद की आधी रोटी भी लात जूते के साथ भली।'

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