बुधवार, 25 मार्च 2020

हमारी दुनिया पर किसी कोरोना ने क़ब्ज़ा कर लिया है - (1)


आज से 21 दिन का लॉकडाउन। पता नही हालात ज़्यादा खराब हैं या खराब होने से बचने के लिए। बहुत सारे सवालों का जवाब वक़्त के हाथों में है। आज 12 बजे रात से शुरु होने वाले बंद का एलान होते ही सड़कों पर लोगों का सैलाब नज़र आने लगा है। अनाज, दूध और दवाओं का ज़ख़ीरा हर किसी की कोशिश है। इन सबके लिए मोटी रक़म की ज़रूरत है।

यहां लोवर क्लास की दुनिया उसकी दिहाड़ी होती है। अच्छी कमाई हो गई तो अच्छा पक गया और जिस दिन जेब गर्म न हुई उस दिन चूल्हा भी ठंडा। लोवर मिडिल क्लास इस वक़्त एक सफ़ेद पोशी की ऐसी ज़िन्दजी गुज़ार रहा है जहां सर ढकने की हालत में खुले पैर को वह महज़ इस लिए नही समेट पा रहा कि दुनिया को भी दिखाना है। और जिनके पास अकूत दौलाद भरी है उनको मुमकिन है आखिर वक़्त तक सबसे बेहतरीन वेंटिलेटर मिल जाए या उनके स्टोर में खाने की हर नेमत जमा हो मगर मुलाज़िमों की फ़ौज से वह भी हाथ धो बैठे हैं।

हम तो विश्व गुरू बनने की राह पर थे। हमारे हाकिम पिछले कुछ अर्से से आग उगलते नज़र आते थे। अचानक ये क्या हो गया जो सबके तेवर ढीले पड़ गए। जिन्हें स्कूल, अस्पताल, सड़कों की कोई फ़िक्र नही थी। जो क़ुदरत को बिना ललकारे धूल चटा रहे थे और जिन्हें लगता था रात दिन उनकी माला जपने वाला मीडिया उन्हें हमेशा तख़्त पर विराजमान रखेगा। आज वही मीडिया इस कोरोना की ख़बरों से भर गया है। इसकी हर खबर दहशत में इज़ाफ़ा करती जा रही है। इस मीडिया को बहुत लंबे वक़्त के बाद किसी मसले से जूझते देख रहे हैं। मुल्क की खुशहाली के जो सब्ज़ बाग़ इसने पिछले कुछ सालों में तैयार किये थे वो अचानक कहीं गुम हो गए हैं।

सुना है WHO की निगाह हम पर है। एक अरब चालीस करोड़ की आबादी वाले मुल्क से सारी दुनिया पर असर पड़ने की बात समझ में आती है। जब हमारा डूबता जीडीपी पूरी दुनिया के स्लोडाउन में 2 फीसद की गिरावट ला सकता है तो यहां भी हमारे रिजल्ट का असर बाकियों पर पड़ना मुमकिन है। एक साथ 21 दिन का लॉकडाउन बड़ी बात है। हम सबके बस में बस इतना है कि हुकूमत की गाइड लाइन पर अमल करें। जितना हो सके गवर्मेंट का साथ दें। अफवाहों और हालात का मज़ाक़ बनाने वाली ख़बरों से बचें और दुआ करें कि ये मुश्किल वक़्त बिना कोई नुक़सान पहुंचाए जल्द से जल्द बीत जाये।

शनिवार, 21 मार्च 2020

भूख बहुत ज़ालिम होती है


'जान जाए लाख खराबी से 
हाथ न हटे रकाबी से' 

इसके माने आज समझ आये। इस कठिन वक़्त में भी हमारे आपके बीच इंसानों की एक ऐसी क़ौम मौजूद है जो फ़िक्र ए दुनिया से ज़्यादा फ़िक्र ए ख़ुराक़ में मुब्तिला है। ज़ात, मज़हब और ऊंच नीच से लापरवाह इस नस्ल के लोग अपने दस्तरख़्वान में मुर्ग़ - माही और पनीर - पूरी तलाश रहे हैं। मगर एक बात याद रखिएगा! अपने पड़ोस का जायज़ा ज़रूर लें। भूख बहुत ज़ालिम होती है। अकसर इन लोगों को कुछ ऐसे लोगों ने इतिहास में खुराक मुहैया कराई है जिन्हें बाद में गुजरात और दिल्ली जैसे दंगों में मुवावज़ा वसूलने के लिए बतौर असलहा इस्तेमाल किया गया है।







गुरुवार, 12 मार्च 2020

बेख़याली में ये ख़याल आया

अगर कभी अपनी कोई किताब लिखेंगे तो ये उन्ही ख़यालात के नाम होगी जो हमख़याल बने और गुम हो गए। जब मसरूफ होते हैं तो खयालात का एक झोंका आता है। इस पर लिखना है और हां ! इसपर भी लिखना है। ऐसे कितने ही खयालात ज़ेहन और दिल का सफर करते हुए दम तोड़ गए और दुबारा उनसे मुलाक़ात न होने पाई।

क्या कहीं मौजूद होंगे ये इस कायनात में ? बिखरे हुए, टहलते हुए। सिर्फ मेरे ही नहीं, लाखों - करोड़ों लोगों के सैकड़ों हज़ारों साल के ख़याल। सोचो! एक पूरी कायनात, जिसमें ख़याल टहल रहे हैं। मरे तो नहीं होंगे वह? शायद इनका भी पुनर्जन्म होता होगा ? ये फिर मंडराते होंगे। किसी ज़ेहन में दस्तक देते होंगे फिर ये अपने को ज़िंदा करने की आस लिए आते होंगे। फिर ये किसी की पनाह चाहते होंगे। मगर हम सबको आदत है इन्हे झिटक देने की और फिर मायूस से लौट जाते होंगे। तैरते रहते होंगे कि कब कोई हमख़याल मिले तो उसके ज़ेहन में दस्तक दें। जब एक शख्स को इतने ख़याल आते हैं तो इस दुनिया में उनकी गिनती करना मुमकिन ही नहीं। ऐसी तो कोई गिनती बनी ही नहीं होगी।

और इन ख़यालों की क़िस्मे ! कोई मासूम सा ख़याल और कोई ज़ालिम भी। कोई तो क़ातिलाना भी होगा और किसी में किसी को अपने सहर में कर लेने की सलाहियत भी। क्या ये सब आपस में साथ रहते होंगे या यहां भी दादागीरी चलती होगी। वह ख़याल उनसे रूठा बैठा है तो फलां ख़याल ने उधर वाले को दहशत में ले लिया है। नहीं! नहीं! ऐसा बिलकुल नहीं होगा! ये तो टकराते हैं हमारे ज़ेहन में आकर। ज़ेहन के बाहर एक रूह जैसे होंगे ख़याल। हवा या पानी से भी से भी आसान, बिना किसी रगड़ के एक दूसरे से गुज़र जाने वाले। बगैर किसी धर पटक दूसरे के आर पार हो जाने वाले।

कितनी सलोनी दुनिया होगी इनकी। जो क़ातिल या ज़ालिम ख़याल है वह किसी मासूम ख़याल के साथ टहल रहा होगा। दोनों का अपना वजूद होगा। कोई किसी पर हावी नहीं होगा। कोई किसी से दहला न होगा। रात दिन से बेफिक्र, जाड़ा गर्मी से बेअसर। ...और उम्र? ये सवाल अजीब है। वो तो हम लोग हैं जो लफ़्ज़ीजामा पहनाते वक़्त कहते हैं - ये एक नया ख़याल है और एक पुराने ख़याल के मुताबिक़...।

ख़यालों की दुनिया में दाख़िल हों तो महसूस होता है की लाखों करोड़ों या जहां तक निगाह जाती है बेशुमार ख़याल एक स्पर्म की तरह तैर रहे हैं। इनके लिए ज़ेहन एक ओवम (डिम्ब) है, जिसकी इन्हे तलाश है। एक ख्याल को पनाह मिली फ्यूज़न हुआ और कायनात बन गई।

'बेख़याली' - ज़रा इसके होने पर ध्यान दें।
लफ्ज़ नहीं जादू है।
वजह भी जायज़ है। 
जब हम गहरे ख़याल में हों वही बेख़याली है। 
यही हक़ीक़त है। ख्याल इतना ताक़तवर होता है कि जो इसकी गिरफ्त में आ जाये उसपर बेख़याली का इलज़ाम आ जाता है। उफ़! जिसका कोई वजूद नहीं उसकी इतनी मज़बूत गिरफ़्त?

इंसान किस ख़याल की गिरफ़्त में है उसका चेहरा ये सबूत दे जाता है। चेहरे से मासूमियत और मक्कारी ऐसे ही नहीं टपकती। यूं ही नहीं ज़ालिम ख़याल भवें टेढ़ी करके जबड़ा कसने में माहिर होते हैं। इन्ही ख़यालों की भीड़ में शामिल होता है एक बहरूपिया ख़याल। ये ही तो सबसे खतरनाक किस्म है ख़याल की। इसकी पहचान ये है कि इसे पहचाना ही नहीं जा सकता। ये ही है जो ज़ेहन में होता है और चेहरे पर नहीं आता। बस यहीं पर सारा निज़ाम गड़बड़ा जाता है। एक शातिर ख़याल जब मासूम बनने की सलाहियत दे दे तो उस वक़्त असल मासूमियत का क़त्ल हो जाता है। ऐसे ख़यालों को कोई भी वजूद नहीं मिलना चाहिए। कभी भी नहीं। यही तो हैं जो घर कर लेते हैं और फिर कुछ भी पाक नहीं बचता। इन नापाक ख़यालों को अपनी दुनिया में चले जाना चाहिए। अफ़सोस कि ये मर नहीं सकते मगर दूर तो रह सकते हैं। इतना दूर कि कोई भी वजूद इनकी पहुंच में न हो।

काश ! कुछ ऐसा हो जाए कि जितने भी पाक ख़याल हैं वो सारे हरकत में आ जाएं। हर वजूद पर दस्तक दें। हर जिस्म में समां जाने की कोशिश करें और ज़ेहन में चिपक जाएं। हज़ार कोई दुत्कारे, लाख कोई झिटके मगर ये न मानें। क़तई न मानें और अपनी मनवा लें। सच कितना खूबसूरत होगा वो मंज़र। सारे ज़ालिम और शातिर ख़याल दूर बहुत दूर चले गए। बचे रह गए पाक मासूम से ख़याल जो हम में घर कर गए। हम उनके इशारों पर चल रहे हैं। मासूम और पाकीज़ा इशारों पर। मगर अफ़सोस। ये भी तो एक ख़याल ही है।

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...