रविवार, 24 अप्रैल 2022

चेहरे पर पड़ा पर्दा अक़्ल पर पड़े परदे से बेहतर है

शादी के बाद हिन्दुस्तान से बाहर चली गई एक दोस्त कुछ वक़्त पहले अलीगढ़ में आबाद हो गई थी। करीब एक साल पहले उसका फ़ोन आया कि कॉलेज से उसे कुछ पेपर्स चाहिए है और अगर हम उसकी कुछ मदद कर दें तो उसे लखनऊ की भाग दौड़ से राहत मिल जाएगी। इस सिलसिले में जब स्कूल का नंबर तलाश किया तो मालूम हुआ कि वहां लैंडलाइन फ़ोन नहीं है। अफ़सोस और गुस्से से ज़्यादा शर्मिंदगी का एहसास हुआ। भला इतने पुराने और मशहूर स्कूल में लैंडलाइन फ़ोन न होने की क्या मजबूरी हो सकती है? 

किसी की मदद से ऑफिस के क्लर्क का नंबर मिला। काम की बात के बाद जब कॉलेज के बारे में जानना चाहा तो पता चला कि इतिहास रचने वाले कॉलेज का भूगोल भी चरमरा चुका है। इस अफ़सोस में तय किया कि वहां जाकर हालात का जायज़ा लेंगे। 

इसके बारे में ये ज़रूर जान लीजिए की पुराने लखनऊ के मंसूर नगर इलाके में बने इस का कॉलेज का नाम म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कॉलेज है। ये इमारत और इलाक़ा 250 बरस पहले कश्मीर से आने वाले कश्मीरी पंडित और मुसलमानों की उस दास्तान के खुशगवार पहलू पेश करता है जिन्हे विवेक अग्निहोत्री जैसे लोग कभी देख ही नहीं सकते। और यही वह जगह है जहां सख्त परदे में पढ़ने वाली लड़कियों ने दुनिया में अपना नाम रोशन किया। यहां से पढ़कर निकले बच्चे हमेशा ये साबित कर सकेंगे कि चेहरे पर पड़ा पर्दा अक़्ल पर पड़े परदे से बेहतर है। 

जायज़ा लेने के लिए जब यहाँ आये तो इस इमारत को देखना किसी डरावने ख्वाब की तरह था। ब्रिटिश पीरियड की बनी इस  इमारत को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था कि इसके कबाड़खाने में बदलने का सिलसिला कई बरसों की अनदेखी का नतीजा है। साइंस, स्पोर्ट्स और कल्चरल एक्टिविटीज़ के लिए जिस कॉलेज का एक सदी का इतिहास था वहां मौजूद दबी सहमी और घबराई लड़कियों की हालत पर कोविड महामारी का पर्दा डालना किसी तरह से समझ नहीं आ रहा था। 100 साल पुरानी लाइब्रेरी गायब हो चुकी थी, स्पोर्ट्स और म्युज़िक के कमरे में भी लोहे की बेंच और मेज़ जड़ी हुई थीं। आंखें नम कर देने वाला मंज़र यहां की लेबोरेट्री पेश कर रही थीं। जिन चमचमाती लेबोरेट्री ने हमें डार्विन, लेमार्क, न्यूटन, आइंस्टीन जैसे ढेरों नामों के करीब पहुँचाया था, आज उसके पास जाने की भी इजाज़त नहीं थी। क्यूंकि ईमारत के इस हिस्से के किसी भी लम्हे गिरने की उम्मीद यहाँ का हर स्टाफ लगाए बैठा था। 

प्रिंसिपल की बेहिसी इस लिए और ज़्यादा बुरी लगी क्योंकि वह खुद भी यहीं की पढ़ी थी और उनकी मां भी यहां से रिटायर हुई थीं। फिलहाल उन्हें भी बस किसी तरह अपने रिटायरमेंट का इन्तिज़ार है। उनके अलावा यहां कोई भी परमानेंट टीचर नहीं।  

मेरा ही क्या इस इलाके में रहने वाले कई नस्लों के बाशिंदे इस कॉलेज के शानदार इतिहास से वाक़िफ़ है और आज भी किसी को छेड़ भर दीजिये तो यहां के फख्र दिलाने वाले यादगार किस्सों की भरमार है उनके पास। और हम शायद किस्सा अल्फ़ लैल (जिसे आम भाषा में किस्सा अलिफ़ लैला) तैयार कर सकते हैं यहाँ के बारे में। 

बहरहाल उसी लम्हा फैसला किया की इस पर एक डॉक्युमेंट्री बनाएंगे, इसे पूरा करने में साल लग गया। इसे बनाने की दास्तान भी कम दिलचस्प नहीं रही। जिसका ज़िक्र फिर कभी।  

इसे बनाने में कई लोगों ने रोड़े डाले तो कई ऐसे भी थे जिन्होंने हर मुमकिन कोशिश से उस रास्ते को आसान किया। मेरी रिसर्च, स्क्रिप्ट और वॉइसओवर पर शूटिंग और एडिटिंग की ज़िम्मेदारी Mrityunjay Singh और Priyanshu AP Singh ने निभाई। कई जगह से रिजेक्ट होने के बाद जब हम पूरी तरह से मायूस हो चुके थे तो Naish Hasan के साथ Amar Ujala जाना हुआ और शुक्रिया आपका  Roli Khanna जो इसे अपने प्लेटफार्म पर जगह दी। 

https://www.youtube.com/watch?v=ceireIm-Po0&t=1263s


रविवार, 10 अप्रैल 2022

सुभाषिनी- पटकथा

एक चीनी कहावत है कि अगर आप एक साल के लिए मंसूबा बना रहे हैं तो चावल लगाएं। अगर ये ख़याल दस बरस के लिए है तो पेड़ लगाएं और अगर आप 100 बरस के लिए इरादा कर रहे हैं तो तालीम दें।

अब सवाल उठता है कि अगर इससे ज़्यादा अरसे का इरादा बनाना हो तो क्या करें? इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही जवाब है कि कहीं भी और कभी बनाया जाने वाला मंसूबा अगर तालीम से जुड़ा है तो यही मुकम्मल है।

20 वीं सदी की शुरुआत में एक ऐसा ही मंसूबा आयरिश लेडी डॉ. एनी बेसेंट और पं.सूरज नारायण बहादुर ने बनाया। स्वामी विवेकानंद से मुतास्सिर एनी बेसेंट 1893 में वेदों को गहराई को जानने हिन्दुस्तान आईं थी। वीमेन एजुकेशन और एम्पॉवरमेंट की रहनुमा एनी बेसेंट ने थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के ज़रिए इस फिलॉस्फी को आम इंसान तक पहुंचाने का बेड़ा उठाया। एनी बेसेंट ने पुराने लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ला में रहने वाले जज पं.सूरज नारायण बहादुर को इस सोसाइटी का सेक्रेट्री बनाया।

कश्मीरी मोहल्ला की तारीख़ खंगालने पर जो जानकारी मिलती है उसके मुताबिक़ नवाब आसिफुद्दौला ने 1775 में जब अपनी राजधानी फैज़ाबाद से लखनऊ की तो उस वक़्त उनके साथ बड़ी तादाद में हिन्दू और मुसलमान कश्मीरियों ने भी इस शहर की तरफ कूच किया। ये वो कश्मीरी  खानदान थे जो कश्मीर को अलविदा कहने के साथ नार्थ इंडिया के किसी भी हिस्से में बसने को राज़ी थे। तहज़ीब, तौर तरीके और रंग रूप के मामले में इन कश्मीरियों का रहन सहन अवध के नवाबों से बहुत मेल खाता था। यही वजह थी कि इन कश्मीरियों का नवाबी घरानों में उठना बैठना और यहां तक कि उनकी अदालतों में ऊंचे ओहदों पर पहुंचना मुमकिन हुआ।

डॉ एनी बेसेंट ने पं.सूरज नारायण बहादुर को मिशनरी जज़्बे के तहत कश्मीरी लड़कियों के लिए रस्मी तालीम देने की गरज़ से इस इलाके में एक स्कूल शुरू करने का मशवरा दिया।

नतीजतन साल 1900 में पं सूरज नारायण बहादुर ने कम्युनिटी की लड़कियों की रस्मी तालीम की इब्तिदा के लिए अपनी ही हवेली में एक मुक़ामी प्राइमरी स्कूल शुरू करने का फैसला किया।

हवेली में स्कूल की शुरुआत किये जाने की जानकारी हमें ikashmir.net पर डॉक्टर बैकुंठ नाथ शर्ग़ा के ब्लॉग से मिलती है। 1938 में पैदा हुए डॉ शर्ग़ा ने 1967 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से केमेस्ट्री में पीएचडी की और 1973-76 तक लखनऊ यूनिवर्सिटी एसोसिएटेड कॉलेज टीचर एसोसिएशन (LUACTA) के जनरल सेक्रेट्री रहे हैं। साथ ये थियेटर की दुनिया का भी जाना माना नाम बने।

डॉक्टर बैकुंठ नाथ शर्ग़ा अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि हवेली में स्कूल की शुरुआत पर पंडित सूरज नारायण बहादुर को अपनी ही बिरादरी के लोगों की मुख़ालिफत का सामना करना पड़ा। ये वो दौर था जब लड़कियों के लिए परदे और पाबंदियों का दायरा बहुत सख्त हुआ करता था। शादी से पहले उन्हें मज़हबी जानकारी के अलावा खत लिखने भर की पढ़ाई के साथ कुछ हिसाब किताब सिखा दिया जाता था, जो घरदारी में काम आ सके।

आखिरकार इन हालात में पं. सूरज नारायण बहादुर के पास अपनी बहुओं को इस स्कूल में दाख़िल कराने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। ये तदबीर काम आई और दूसरी बच्चियों के दाखिले के इमकान बने। धीरे-धीरे पास पड़ोस और बिरादरी के दूसरे लोगों ने भी अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए इस स्कूल में भेजने की हिम्मत की।


स्कूल से छपने वाली सालाना मैगज़ीन सुभाषिनी से मिली जानकारी के मुताबिक़ सन 1904 में डॉक्टर एनी बेसेंट की सलाह पर जज सूरज नारायण बहादुर ने कुछ और कश्मीरियों से मशवरा करने के बाद एक प्राइमरी वर्नाक्यूलर स्कूल की नीव डाली। जिसमे उनकी बेटियों के अलावा पास पड़ोस की बच्चियां भी तालीम हासिल करने आ सकें। स्कूल से वाबस्ता लोगों के लिए ये फख्र की बात है कि इस स्कूल की बुनियाद रखे जाने के एक बरस बाद किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज और 16 बरस बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी वजूद में आए।   

15 लड़कियों के दाखिले के साथ स्कूल शुरू हुआ, मगर इस शुरुआत के लिए पंडित सूरज नारायण बहादुर को तमाम दुशवारियों का सामना करना पड़ा। रिहाइशी लोगों की दलील थी कि अगर उनकी बेटियां स्कूल जाएंगी तो उनसे शादी कौन करेगा?

साल 1905 में मिस बिर्केट (Birkett) को स्कूल में 25/- महाना की तनख्वाह पर यहां अंग्रेजी सिखाने के लिए रखा गया।

अक्टूबर 1905  तक स्कूल आने वाली बच्चियों की तादाद 29 से बढ़कर 39 हो गई जिसके चलते मिडिल सेक्शन शुरू किया गया। इसी वक़्त मिस रे (Miss Rae) ने बतौर इन चार्ज यहाँ की ज़िम्मेदारी संभाली।

साल 1908 तक ये स्कूल उम्मीदों से कहीं ज़्यादा आगे जा चुका था और ये वही वक़्त था जब इस फलते फूलते स्कूल को फाउंडर ने लखनऊ नगर पालिका को सौंप दिया।

साल 1910 में एजुकेशन कमिटी ऑफ़ म्युनिसिपल बोर्ड ने एक रेज़्युलेशन के तहत जिन चंद मांगो को सामने रखा वह ये थीं -

"कि कश्मीरी मोहल्ला वर्नाक्युलर मिडिल गर्ल्स स्कूल को बेहतर तनख़्वाह और एक बड़ा स्टाफ देकर सुधार के साथ इसे एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल गर्ल्स स्कूल बनाया जाए।''

''स्कूल की ईमारत बनाने के लिए ज़मीन का एक महफूज़ प्लॉट हो जिसकी ख़रीदारी के लिए डायरेक्टर पब्लिक इंस्ट्रक्शन से ग्रांट तलब की जाए।

महज़ 7 बरसों में ये स्कूल कामयाबी की एक सुनहरी दास्तान लिख चुका था। 23 दिसंबर 1911 की यादगार तारीख़। बड़े बड़े मैदानों के साथ बरामदों और आठ बड़े कमरों वाले इस स्कूल को लेडी पोर्टर ने खोला। उस वक़्त स्कूल की इस ईमारत की कीमत थी 15928/-। यहां पढ़ने वाली बच्चियों की तादाद बढ़ कर 90 हो चुकी थी और इन्हें पढ़ाने के लिए एक हेड मिस्ट्रेस के साथ 6 टीचर्स का स्टाफ मौजूद था। अब इस स्कूल के पास एजुकेशन डिपार्टमेंट की तरफ से मिडिल स्कूल की मान्यता थी। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि हिन्दुस्तान के पहले प्राइम मिनिस्टर की होने वाली बीवी कमला नेहरू भी इसी दौरान यहीं अपनी शुरूआती पढ़ाई कर रही थीं।

फ़रवरी 1915 में सरकार की तरफ से अमरीका से ट्रेंड प्रिंसिपल मिसेज़ नेफ़ को इस स्कूल में अपॉइंट किया गया, साथ ही 5000 रुपयों की ग्रांट भी दी गई। लड़कियों के लिए इंडोर और आउटडोर एक्टिविटीज़ का एहतिमाम किया गया।

1923 का साल एक बार फिर से इस स्कूल को हमेशा के लिए फख्र करने का मौक़ा दे गया। इस बरस स्कूल में गर्ल गाइड मूवमेंट शुरू हुआ और स्कूली लड़कियों ने म्युनिसिपल एजुकेशनल एक्ज़ीबीशन के तहत "पर्दा डे कॉम्प्टीशन" में हिस्सा लेकर 16 मेरिट प्राइस जीते।

साल 1924, मिस रोज़लाइन एंगेल्स (Rosline Engles) ने बतौर प्रिंसिपल इस स्कूल की ज़िम्मेदारी संभाली।

1925 में नवीं क्लास की शुरुआत हुई मगर 1927 में इसे बंद करना पड़ा।

स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के रिटायर्ड ऑफीसर राजीव प्रसाद 1915 में लिखे अपने ब्लॉग में इस स्कूल के इतिहास पर रौशनी डालते हैं। 1930 से 1967 तक स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज़ द्रौपदी दास गुप्ता रहीं। ये राजीव प्रसाद की नानी थीं और साल 1929 में इन्होंने बतौर मैथ्स टीचर यहां का चार्ज संभाला था। 1930 में स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज़ रोज़लाइन एंगेल्स को स्कूल छोड़ना पड़ा और ये ज़िम्मेदारी मिसेज़ गुप्ता को मिली। मिसेज़ गुप्ता इस ओहदे पर पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उस वक़्त स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद 149 थी।  


ब्लॉग में अपनी नानी का ज़िक्र करते हुए राजीव प्रसाद लिखते हैं कि- ' कुछ ब्रिटिश और भारतीय सिविल सर्वेंट एक प्रोग्राम में मेरी नानी से मिले , यहाँ पर नानी अपने मेज़बान से तालीमी मुद्दों पर बात कर रही थीं। उस वक़्त मौजूदा प्रिंसिपल मिस एंगेल्स स्कूल को छोड़ना चाहती थीं। इन ब्रिटिश सर्वेंट ने नानी से इस इंस्टीट्यूट में शामिल होने और लड़कियों की एजुकेशन के लिए खुद को वक़्फ़ करने की पेशकश की।"

सन 1931 तक लड़कियों के स्कूल आने का ज़रिया हाथ से खींचा जाने वाल ठेला था जिन्हें चलाने का ज़िम्मा भी औरतों का था। उन दिनों की एक दिलचस्प बात ये थी कि मिसेज़ गुप्ता ने ख़ास तौर से डिज़ाइन किए गए इन हाथ से चलने वाले ठेलों को बनवाया था। मिसेज़ गुप्ता की नवासी डॉक्टर राका अपनी यादों के हवाले से उस दौर का ज़िक्र करती हैं कि किस तरह नानी उसूलों की पाबन्दी के साथ अनुशासन डिसिप्लिन के मामले में भी बड़ी ही सख्ती का रवैया रखती थीं।

इसी बरस मिसेज गुप्ता ने नगरपालिका बोर्ड से 475 /-पर मंथ के खर्चे पर दो स्कूल बसें किराए पर दिए जाने पर जोर दिया, जो लड़कियों को स्कूल लाने और वापस ले जाने की सहूलियत दे सके। 11 मार्च 1932, ये वो तारीख थी जब स्कूल ने अपनी बस खरीदी। और इसी साल स्पोर्ट्स और कल्चरल एक्टिविटीज़ को लेकर वॉलीबॉल, बैडमिंटन जैसे कई इनडोर और आउटडोर खेलों की शुरुआत हुई।

गर्ल गाइड इनिशिएटिव में लड़कियों की शानदार परफॉर्मेंस रही। जिसकी बदौलत 14 दिसंबर 1932 की तारीख इस स्कूल के लिए यादगार बन गई, मिसेज मोती लाल नेहरू जो कि कश्मीरी थीं, उन्होंने न सिर्फ इस स्कूल का दौरा किया बल्कि बच्चों के साथ पूरा दिन बिताया।

स्कूल की तारीख में साल 1933 इसलिए यादगार बना क्योंकि स्कूल की गर्ल गाइड्स ने लेडी हाईली (Lady Hailey) चैलेंज शील्ड पर फतह हासिल की।

1935 में एंग्लो-वर्नाक्यूलर मिडिल एग्जाम की मेरिट लिस्ट में स्कूल की एक बच्ची का नाम शामिल हुआ।

1936 में म्यूजिक क्लासेस का आगाज़ हुआ।

साल 1937 दोहरी खुशिया लेकर आया। स्कूल की कुछ लड़कियों ने यू.पी. इंडस्ट्रियल एक्सिबिशन में हिस्सा लिया जिनमे से चार सिल्वर मैडल की हक़दार बनीं और यही वो साल था जब एक बार फिर से नवीं क्लास की शुरुआत हुई।

साल 1938, स्कूल की तारीख में एक और मील का पत्थर जड़ गया। हाई स्कूल के इम्तिहान में शामिल 6 लड़कियों वाले पहले बैच का 100 फीसद कामयाब नतीजा मुस्तकबिल की अनगिनत कामयाबियों का इशारा कर रहा था।

अगले 2 बरसों में लड़कियों की परफॉर्मेंस पर इस इंस्टीट्यूशन को यूपी बोर्ड की तरफ से हाई स्कूल के लिए रिकग्नीशन मिल गया।

टीचर्स की मेहनत, लगन और बच्चियों के जोश की बदौलत स्कूल हर दिन कामयाबी की नई तहरीर लिख रहा था।

जिस वक़्त मुल्क की ग़ुलामी की बेड़िया टूटीं उस वक़्त स्कूल की कामयाबियों की परवाज़ उसके हिस्से के कई और आसमान खोल चुकी थी। 1947 में न सिर्फ यहां पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद 406 हो गई थी बल्कि दो और पायदान की तरक्की करता हुआ स्कूल इंटरमीडिएट की क्लासेस शुरू कर चुका था।

स्कूल को इंटर कॉलेज क्लासेस की तामीर के लिए 9150/- की सरकारी ग्रांट मिली और इसी वक़्त कॉलेज का नया नाम म्यूनिसिपल गर्ल्स इंटर कॉलेज पड़ा। दस्तावेज़ बताते हैं कि ज़रूरत की बाक़ी रक़म का इंतिज़ाम अंदरूनी ज़रिए से किया गया।

1950 में इंटरमीडिएट की दो स्टूडेंट पूरे स्टेट में उर्दू में सबसे ज़्यादा नंबर लाईं, 1952 में स्पोर्ट्स और दूसरी एक्टिविटीज़ में मेडल बटोरे और 1953 में कॉलेज अपनी खूबियों के बल पर हाई स्कूल एग्जाम के लिए सेंटर के लायक साबित हुआ।

हाई स्कूल के लिए साइंस क्लासेस का आगाज़ 1956 में हुआ और 1958 में मेडिकल में मुस्तक़बिल तलाशने वाली लड़कियों के लिए इंटरमीडिएट दर्जे की साइंस की शुरुआत के साथ एक साइंस लैब भी तामीर हुआ। इन सबके साथ अगले बरस तक यूनिफार्म, प्रेयर और फिज़िकल ट्रेनिंग भी यहां के रूटीन का हिस्सा बन चुकी थी।

(1960-61 में कश्मीरी मोहल्ला गर्ल्स कॉलेज का पहला साइंस ग्रुप)

साल 1972 में बायोलॉजी फैकल्टी में जॉइनिंग लेने वाली मिस शहनाज़ ज़रीना खान का कहना है कि हमारे स्कूल की लेबोरेट्री शहर की सबसे रिच लेबोरेट्री हुआ करती थी। फ़िज़िक्स, केमेस्ट्री और बाइलॉजी की इन लेबोरेट्री में बच्चों की बेहतरीन ट्रेनिंग के लिए आला दर्जे के सभी टूल, फर्नीचर और साफ सुथरे हॉल  का इंतिज़ाम किया गया था।

कॉलेज आला तालीम के साथ खेल और अदब के मैदानों में कामयाबी का परचम लहरा रहा था। इसमें सेंट जॉन एम्बुलेंस की सरगर्मियां और पढ़ाई के शानदार नतीजे भी शामिल थे।

1966 में कॉलेज ने हैदराबाद में होने वाले आल इंडिया कम्पटीशन में ऑल इंडिया राज कुमारी अमृत कुमारी ट्रॉफी जीती।

01मार्च1967 को मिसिज़ गुप्ता रिटायर हुईं। उनकी 37 बरस और 3 माह की मेहनतों का नतीजा था कि इस वक़्त कॉलेज में 1133 बच्चियां तालीम हासिल कर रही थीं। हाई स्कूल की साइंस लेबोरेट्री के वास्ते 15000/- की रकम के साथ कॉलेज 33636/- की ग्रैंड हासिल कर रहा था। यक़ीनन मिसिज़ ओ पी गुप्ता की सरपरस्ती में इस कॉलेज ने अपना उरूज हासिल किया। मिसिज़ ओ पी गुप्ता के रिटायरमेंट का वक़्त वो बरस था जब कॉलेज को लखनऊ रीजन में 12000/- फंड इस कामयाबी पर मिला था क्योंकि यहां के बच्चों ने साइंस में सबसे शानदार नतीजे स्कोर किये थे।

कॉलेज स्टाफ की तरफ से उनको पेश किये गए अलविदाई पैग़ाम की तहरीर के चंद अलफ़ाज़ -

"हम लंबे अरसे तक फख्र के साथ याद रखेंगे कि प्रिंसिपल के तौर पर आप हमेशा ड्यूटी के लिए वक़्फ़ थीं। तालीम और इस इंस्टीट्यूशन के लिए आपने अड़तीस बरस तक अपनी खिदमतें वक़्फ़ कर दीं। कभी भी किनाराकशी या आराम की ख्वाहिश नहीं की, कभी थकान महसूस नहीं की- आख़िरी घंटे तक। हकीकत में आपने इस इंस्टीट्यूशन को बनाया, फेहरिस्त में बच्चों की गिनती15 से आग़ाज़ करने वाले इस स्कूल को 1133 तक पहुंचा दिया। यह छोटे कमरों वाले एक सेट से एक शानदार और वेल फर्निश्ड स्कूल में तब्दील हुआ। मिडिल स्कूल से आग़ाज़ करने वाली ये ईमारत आर्ट्स और साइंस के साथ एक इंटरमीडिएट कॉलेज बन गया, जो कि कोई मामूली कामयाबी नहीं है।"

मिसेज़ गुप्ता ने बतौर प्रिंसिपल जिस वक़्त स्कूल की ज़िम्मेदारी संभाली थी उस वक़्त 149 बच्चे, सख्त पर्दा, चारों सिम्त खुले मुखालिफत के मोर्चे और 2-3 चुनिंदा सब्जेक्ट थे। मगर अपने अज़्म, हिम्मत और मेहनत के बल पर उन्होंने इस स्कूल में रौशन तालीम की मशाल को ऐसा जगमगाया जो आज भी सारी दुनिया में अपनी चमक बिखेर रही है।

मिसेज़ गुप्ता के रिटायरमेंट के वक़्त कॉलेज के हर स्टाफ और मुलाज़िम की आंख नम और दिल उनके ज़रिए मिलने वाली कामयाबियों का शुक्रगुज़ार था। एक कट्टर आर्य समाजी ज़िंदगी बिताने वाली मिसेज़ गुप्ता ने उनकी याद में कॉलेज में स्टेच्यू लगाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह "कर्म" में यकीन रखती थीं। 17 मई1979 को मिसेज़ गुप्ता ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

मिसेज़ गुप्ता के बेटे कर्नल वी.के. गुप्ता ने मिसेज़ गुप्ता की मौत के बाद उनके नाम पर दो स्कॉलरशिप शुरू कीं - हर साल ये स्कॉलरशिप एक टॉपर स्टूडेंट के लिए और दूसरी मुफ़लिस मगर होनहार बच्ची के लिए थी। साल 2010 में बतौर प्रिंसिपल रिटायर होने वाली मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान बताती हैं कि स्कूल से रिटायरमेंट के वक़्त तक उन्होंने स्कॉलरशिप के फंड को पूरी तरह मेनटेन रखा था।

1967 से 1982 तक इस स्कूल की रहनुमाई प्रिंसिपल मिसेज़ अख़्तर शकील के हाथों में रही। विरासत में मिली इस अमानत की मिसेज़ शकील ने अपने दौर में भरपूर निगेहबानी की। तालीम, डिसिप्लिन और तमाम एक्टिविटीज़ को उन्होंने मिसेज़ गुप्ता की तर्ज़ पर बरकरार रखने की मिसाल कायम की।


1982 में कॉलेज के प्राइमरी सेक्शन को अलग किया गया अब स्कूल एक ही ईमारत में दो शिफ्ट में चलने लगा। 

साल 1983 से 1988 तक मिसेज़ चंद्र मोहिनी हजेला ने प्रिंसिपल के ओहदे पर रहते हुए कालेज की रवायात को बरकरार रखा। और इनके बाद मिसेज़ शांति कुमार ने साल 1988 से 2003 तक इस ज़िम्मेदारी को निभाया।


20 वीं सदी की शुरुआत में क़ायम हुए इस स्कूल ने अपने उरूज का दौर देखा था। यहां पढ़ने वाली लड़कियों ने हर मैदान में फतह का परचम फैराया। होम साइंस, म्यूज़िक, लिटरेचर के साथ फ़िज़िक्स केमेस्ट्री और बायोलॉजी की तालीम देने वाली टीचर के अलावा हर टूल और इंस्ट्रूमेंट से लैस शानदार लैब उसी आन बान और शान से अपने फ़र्ज़ को अंजाम देने में मुस्तैद थे। नगर निगम की सरपरस्ती में ये कॉलेज बड़ी ही मामूली फीस के साथ बेशुमार ऐसी बच्चियों की पढ़ाई का जरिया बना हुआ था जिनके लिए शायद यहां के अलावा इतनी आला तालीम हासिल करना मुमकिन नहीं था। मगर 20 वीं सदी के खात्मे और 21 सदी की शुरुआत ने ये बता दिया था कि कामयाबी की इबारत सिर्फ अंग्रेज़ी ज़ुबान में ही लिखी जा सकती है और म्युनिसिपल गर्ल्स इंटर कॉलेज अपनी तमामतर खूबियों के बावजूद इस रेस में शामिल न हो सका।

लगभग हर मोर्चे पर जीत हासिल करने वाले इस कॉलेज में अब सिर्फ वही बच्चे दाखिल होने लगे जो अंग्रेजी तालीम के लिए भारी कीमत अदा नहीं कर सकते थे। यहां धीरे धीर उन बच्चियों की तादाद बढ़ने लगी जिनके घरों में तालीम से पहले ज़िंदगी की दूसरी ज़रुरियात का इंतिज़ाम अहम था। और इनमे से ज़्यादातर सरपरस्तों को तालीम का ठप्पा महज़ इस लिए चाहिए था ताकि बेटी की शादी के वक़्त उसे अनपढ़ कहने से बचा सकें और इस पर बिलकुल भी लागत न आये। इन सबके बावजूद भी टीचर्स की मुस्तैदी और लगन का नतीजा था जिसने कई ज़हीन बच्चों को तराशा और उस मुक़ाम तक पहुंचाने में मदद की जहां उन्होंने कॉलेज का नाम रौशन किया। 

साल 2007 में मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान ने बतौर प्रिंसिपल स्कूल का शताब्दी समाहरोह मनाया तो उस समय मौजूद सभी यादगार शख्सियतों को बुलाया था। जिसमें स्कूल फाउंडर सूरज नारायण बहादुर के पोते डॉ हरी नारायण बहादुर, मिसेज़ अख्तर शकील, महापौर दिनेश शर्मा के अलावा कई पुरानी टीचर्स और स्टूडेंट ने हिस्सा लिया। जुलाई 2006 से जून 2010 तक प्रिन्सिपल रही मिसेज़ शहनाज़ ज़रीना खान ने अपनी प्रिन्सिपलशिप के दौरान स्कूल की कम हुई साख को एक बार फिर से उरूज पर लाने की हर मुमकिन कोशिश की। 

मिसेज़ ओ पी गुप्ता की तर्ज़ पर कर्म को अहमियत देते हुए वो न सिर्फ बच्चों की तालीम बल्कि स्पोर्ट्स और कल्चरल एक्टिविटीज़ के ग्राफ को फिर से उन्ही ऊंचाइयों तक लाने की जिद्दोजहद में लगी रहीं। वॉटर हार्वेस्टिंग की कोशिश के साथ इंटर कालेज को डिग्री कॉलेज बनाने का हर जतन उन्होंने किया। यहां तक के जिस दिन उनका रिटायरमेंट होना था उस दिन भी अपने ही अलविदाई प्रोग्राम में शरीक होने से बजाए उन्होंने दफ्तरों के चक्कर काटते हुए गुज़ारा। उनकी सारी प्लानिंग, प्रेजेंटेशन और जी तोड़ कोशिशें नाकामयाब रहीं और उन्हें डिग्री कॉलेज की मंज़ूरी न मिलने का कोई माकूल जवाब तक न मिल सका। 

बातचीत और शूटिंग के इस सिलसिले में जब  स्कूल के प्राइमरी सेक्शन को कवर किया तो कोविड के दिनों में होने वाली अनदेखी से उबरते प्राइमरी स्कूल की प्रिंसिपल ने एक बार फिर से बच्चों के बढ़ते दाखिले की जानकारी दी साथ ही उन्होंने स्कूल और बच्चों से जुड़े अपने मुद्दे भी बयान किये।

जबकि इंटर सेक्शन से हमें इस तरह की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। स्कूल का इतिहास, अवार्ड, विज़िटर बुक भी स्कूल में नहीं मिली। फ़िज़िक्स और केमेस्ट्री लैब के ताले इस वजह से नहीं खोले जा सके क्यूंकि इमारत का ये हिस्सा इतना कमज़ोर हो गया है कि किसी भी लम्हे गिरने का खतरा है।

बायलॉजी लैब की तस्वीरें लेना इसलिए मुमकिन हुआ क्यूंकि यहां का दरवाज़ा टूटा हुआ था। पुरानी लाइब्रेरी को क्लास में तब्दील कर दिया गया है। म्यूज़िक रूम और कंप्यूटर रूम की भी कवरेज मुमकिन नहीं हो सकी। स्कूल की बच्चियों को दी जाने वाली स्कॉलरशिप की जानकारी हमें नहीं मिल सकी।

एक नायाब विरासत को समेटे इस कालेज से दुनिया को रूबरू कराना हमारा मक़सद था जिसके शानदार मुस्तक़बिल की ख्वाहिश इस स्कूल से वाबस्ता हर शख्स और यहां से तालीम पाने वाली हर हस्ती की दुआ है। कॉलेज के शताब्दी समारोह में शामिल होने वाले डॉ हरी नारायण बहादुर के दिल से निकलने वाले ये लफ्ज़ हर किसी को आमीन कहने पर मजबूर करते हैं। 

''ऐ खुदा अपनी अदालत में मेरी जमानत रखना

मैं रहूं या न रहूं इस कालेज को सलामत रखना ''


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अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...