गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

अलविदा: मुर्दा से मुर्दा कलाम में भी अपनी आवाज़ से जान फूंक देने वाले ज़िया मोहिउद्दीन

 मीर, ग़ालिब, फ़ैज़ और इक़बाल से लेकर इंशा और मजाज़ जैसे शायरों का जब भी नाम लिया जायेगा तो जिया मोहिउद्दीन का भी ज़िक्र आएगा। शेक्सपियर के ड्रामों पर जब भी बात होगी तो डॉयलॉग की दुरुस्त अदायगी के लिए फ़नकार ज़िया मोहिउद्दीन की नक़ल करेंगे और अलफ़ाज़ के उतार चढ़ाव की बारीकियों के लिए भी ख़ुद को इनका ही शागिर्द पाएंगे। उनका किस्सागोई या कहानी सुनाने का अंदाज़ सुनने वाले पर जादू की तरह असर करता था।

उर्दू साहित्य के मशहूर व्यंगकार मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी का कहना था कि अगर ज़िया मोहिउद्दीन मुर्दा से मुर्दा लेखक की तहरीर पढ़ लें तो वह ज़िंदा हो जाए। अलफ़ाज़, आवाज़, अदब और अदाकारी के जानकार ज़िया मोहिउद्दीन 92 बरस की उम्र में 13 फ़रवरी 2023 चल बसे। पिछले कुछ दिनों से बीमार ज़िया मोहिउद्दीन कराची के एक निजी अस्पताल में भर्ती थे। उन्हें बुखार और पेट में तेज दर्द के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां आंत में ख़राबी पर उनका ऑपरेशन किया गया था। ऑपरेशन के बाद से ज़िया मोहिउद्दीन इंटेंसिव केयर वार्ड में थे जहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई।

जिन नायाब कलाकारों को सरहदों ने तक़सीम किया था, उनके फ़न ने उन्हें दुनिया में शोहरत दिलाई। मौजूदा वक़्त में जश्ने रेख़्ता ने उस पुल का काम किया जिसकी रिकॉर्डिंग ने ज़िया मोहिउद्दीन की सलाहियतों घर घर पहुंचा दिया। इन्हीं की बदौलत फैज़ अहमद फैज़ का कलाम भी कोने कोने में पहुंचा। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चाहने वालों में ज़िया मोहिउद्दीन का नाम सरे फ़ेहरिस्त जुड़ गया। और ये भी अजीब इत्तिफ़ाक़ कहा जायेगा कि जिस रोज़ दुनिया फ़ैज़ की 112वीं जयंती मना रही थी उसी दिन ज़िया मोहिउद्दीन ने इस दुनिया को अलविदा कहा।

20 जून 1931 को पाकिस्तान के फ़ैसलाबाद में जन्मे ज़िया मोहिउद्दीन के पिता पाकिस्तान की पहली फिल्म 'तेरी याद' के लेखक और डायलॉग राइटर थे। पिता ख़ादिम मोहिउद्दीन से इन्होंने संगीत का ज्ञान और मंच की बारीकियां सीखीं। संगीत और नाटक में महारत रखने वाले पिता ख़ादिम मोहिउद्दीन की संगीत और नाटक पर लिखी कुछ किताबें भी थीं। इकलौते बेटे ज़िया को भी इसी क्षेत्र की ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे। ज़िया मोहिउद्दीन सेंट्रल मॉडल स्कूल में पढ़ते थे, इसी स्कूल में ख़ादिम मोहिउद्दीन ने एक नाटक करवाया जिसका नाम था 'देवता'। इस नाटक में ज़िया मोहिउद्दीन ने बड़े आत्मविश्वास के साथ एक छोटे स्कूली छात्र की भूमिका निभाई थी।

स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद ज़िया मोहिउद्दीन ने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर का रुख़ और यहाँ से बी.ए. करने के बाद रेडियो पाकिस्तान से जुड़े। यहां इन्हे पितरस बुख़ारी, रफ़ी पीर, ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी, रशीद अहमद और शौक़त थानवी जैसे फ़नकारों की सरपरस्ती मिली। यहां बेहतरीन साहित्य से भी इनका परिचय हुआ और आवाज़ के उतार-चढ़ाव की जानकारी भी हासिल की।

1951 में ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन में ट्रेनिंग के लिए चुने गए। इस फेलोशिप ने उनकी ज़िंदगी में बहुत बड़ा बदलाव ला दिया। ऑस्ट्रेलिया रेडियो से जुड़ने के बाद उन्हें महसूस हुआ कि उनकी चाहत रेडियो नहीं बल्कि थिएटर है। यहां आने के बाद उन्होंने न सिर्फ ब्रॉडकास्टिंग की ट्रेनिंग लेना जारी रखा साथ ही थियेटर से जुड़कर अदाकारी और डायरेक्शन को भी निखारा। इन मसरूफियतों के बीच उन्होंने रेडियो पाकिस्तान को ऑस्ट्रेलिया से ही अपना इस्तीफा भेज दिया।

ज़िया मोहिउद्दीन की अगली मंज़िल लंदन थी। वह रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में शामिल हो गए। शेक्सपियर के ड्रामों ने उनके सामने एक अनूठा संसार खोल दिया। यहां उनका एक्टिंग का जुनून बखूबी परवान चढ़ा। उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से थियेटर को समर्पित कर दिया। यहीं रहते हुए ज़िया मोहिउद्दीन बतौर निर्माता बीबीसी से जुड़े और तक़रीबन डेढ़ बरस तक अपनी सेवाएं दीं।

1956 में पिता की बीमारी के कारण कुछ महीनों के लिए ज़िया मोहिउद्दीन का पाकिस्तान आना हुआ। इस सफ़र में उन्होंने ख़्वाजा मोइनुद्दीन का नाटक 'लाल क़िले से लालू खेत' तक देखा और बाद में उन्होंने इस नाटक पर एक व्याख्यान भी दिया। यहां रहते हुए उन्होंने शेक्सपियर सहित कई महान लेखकों के नाटकों का मंचन किया। 'मिर्ज़ा ग़ालिब बंदर रोड पर' उनका पसंदीदा नाटक था।

एक इंटरव्यू में स्टेज परफॉर्मेंस के बारे में ज़िया मोहिउद्दीन का कहना है कि मंच पर कोई माइक्रोफोन नहीं होता, अगर है तो वह नाटक नहीं बल्कि कुछ और ही है। उनके मुताबिक़ एक अदाकार के पास ये सलाहियत होनी चाहिए ऐसी आवाज़ होनी चाहिए कि चाहे 800 लोग हों, अपनी आवाज़ उन तक पहुंचा दे और ये भी न लगे कि वह चीख रहा है।

अंग्रेज़ी लेखक ई एम फ़ॉस्टर के 1924 में लिखे उपन्यास ए पैसेज टू इंडिया पर 1960 में एक फिल्म के लिए स्टार कास्ट का चुनाव हो रहा था। इस पर का काम करने वाली अंग्रेज़ी टीम ने डॉ. अजीज के रोल के लिए इन्हे चुना। इस फिल्म में अदाकरी ने ज़िया मोहिउद्दीन को प्रसिद्धि ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया और इनका शुमार एक अंतरराष्ट्रीय अभिनेता के रूप में होने लगा। 1962 में आने वाली मशहूर फिल्म 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' में उन्होंने यादगार भूमिका निभाई।

रेडियो ऑस्ट्रेलिया से ज़िया मोहिउद्दीन ने आवाज़ की दुनिया में अपना करियर शुरू किया, ब्रिटिश थिएटर में लम्बे समय तक काम करने के अलावा ब्रिटिश सिनेमा और हॉलीवुड में भी अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए। इनका फ़न हर दिन मक़बूलियत की मज़िलें तय करता रहा। ज़िया मोहिउद्दीन पहले दक्षिण एशियाई अभिनेता थे जिन्होंने ब्रॉडवे की शोभा बढ़ाई।

ज़िया मोहिउद्दीन ने पीटीवी पर पहली बार एक स्टेज शो करने का इरादा किया। जनवरी 1971 में शुरू होने वाले इस दिलचस्प प्रोग्राम का नाम था 'ज़िया मोहिउद्दीन शो'। इस शो में हिस्सा लेने वाली शख़्सियत जोश मलीहाबादी, मुश्ताक अहमद यूसुफी, हाफ़िज़ जालंधरी, रूना लैला, अशफाक अहमद जैसे नामों की एक लम्बी फेहरिस्त थी। बाद में यूट्यब के ज़रिये ये प्रोग्राम दुनियाभर में उनके चाहने वालों के बीच बहुत सराहे गए। उन्होंने कुछ फिल्मों में किरदार निभाए मगर उनसे मुतमइन न हो सके न ही उन्हें इसमें कामयाबी मिली।

ज़िया मोहिउद्दीन 1973 में पीआईए कला अकादमी के डाइरेक्टर नियुक्त हुए। ये अकादमी बहुत जल्द सियासी पैंतरों का शिकार होकर बंद हो गई और ज़िया मोहिउद्दीन बर्मिंघम में आबाद हो गए। इसके बावजूद उन्होंने पकिस्तान से अपना नाता नहीं तोड़ा। इस बीच पकिस्तान टेलीविज़न के लिए कई कार्यक्रम किये जिनमे से यादगार प्रस्तुति 1986 की फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी पर प्रस्तुति थी।

90 के दशक में उन्होंने स्थायी रूप से पाकिस्तान वापसी का फैसला किया। अंग्रेज़ी अख़बार 'द न्यूज' में उन्होंने कॉलम लिखे। ज़िया मोहिउद्दीन की किताब "ए कैरट इज ए कैरट" (A carrot is a carrot) को एक संपूर्ण साहित्यिक कृति का दर्जा मिला है।

पांच बेटियों के बाद पैदा होने वाले ज़िया मोहिउद्दीन अपने परिवार में बड़े लाडले थे। इत्मीनान और सुकून की ज़िंदगी जीने वाले ज़िया मोहिउद्दीन ने तीन शादियां की। इनकी पहली शादी घरवालों की मर्ज़ी से हुई। इनकी पहली बीवी का नाम सरवर ज़मान था और इनसे दो बेटे हुए जो परदेस में बस गए। नृत्य में माहिर नाहीद सिद्दीक़ी आर्ट्स अकादमी से थीं से और ये ज़िया मोहिउद्दीन की दूसरी बीवी बनीं। नाहिद से इनका बेटा हसन मोहिउद्दीन म्यूज़िक इंडस्ट्री में हैं और लम्बे अरसे से कोक स्टूडियो से जुड़े हैं। 1990 में इन्होंने अज़रा मोहिउद्दीन से शादी की जो उम्र में उनसे 39 बरस छोटी थीं। अज़रा भी अदाकार थीं और दोनों शादी को काफी कामयाब माना गया। अज़रा से 2002 में इनकी एक बेटी पैदा हुई जिसका नाम आलिया मोहिउद्दीन है।

2004 में ज़िया मोहिउद्दीन ने कराची में नेशनल एकेडमी ऑफ़ परफॉर्मिंग आर्ट की बुनियाद रखी और अपनी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों तक इसके प्रमुख बने रहे। पकिस्तान सरकार ने ज़िया मोहिउद्दीन को 2003 में सितारा ए इम्तियाज़ और 2012 में हिलाल-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया गया था। सितारा ए इम्तियाज़ नागरिकोंऔर फ़ौजियों को दिया जाने वाला तीसरा सबसे बड़ा सम्मान है। जबकि हिलाल ए इम्तियाज पाकिस्तान सरकार द्वारा नागरिकों को दिया जाने वाला दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।

साभार न्यूज़क्लिक 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

फ़ैज़- सहर ए उम्मीद का शायर

ज़िक्र है 1988 का और शहर है हिन्दुस्तान का लखनऊ। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को गुज़रे 4 बरस हो रहे थे। मगर उनको याद करने का सिलसिला थमा नहीं था। दुनियाभर में उनके चाहने वाले कार्यक्रम कर रहे थे। ऐसा ही एक जलसा 20, 21 और 22 मार्च को लखनऊ के रविंद्रालय में किया गया। जिसमे सरहद और समंदर पार से नामचीन हस्तियों ने शिरकत की थी। पकिस्तान से फ़ैज़ की बेगम एलिस फ़ैज़ और बेटी सलीमा हाशमी के अलावा लन्दन से ब्रिटिश स्कॉलर रॉल्फ रसेल (Ralph Russel) और इफ़्तिख़ार आरिफ़ थे। रूसी स्कॉलर डॉक्टर लुदमिला वसीलिया (Ludmila Vasilyeva) भी मौजूद थीं। स्वीडेन और डेनमार्क से भी मशहूर हस्तियां इस जलसे में शामिल होने के लिए आई थीं। इन सबके साथ हिन्दुस्तान के भी नामी गिरामी शायर और लेखक जमा थे, जिनमे कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी प्रोफ़ेसर गोपी चंद नारंग, प्रोफ़ेसर जगन्नाथ आज़ाद, अफ़सानानिगार रामलाल साहब, डॉक्टर अनीस अशफ़ाक़ के अलावा उस दौर के तमाम नामी शायर और लेखक इस यादगार जलसे के गवाह थे।

एलिस फ़ैज़ ने जलसे की शुरुआत में विश्व शांति और मानव अस्तित्व के खतरों का ज़िक्र करते हुए लेखकों और शायरों को मुखातिब किया। उनकी ज़िम्मेदारियों के हवाले से उन्होंने कहा था कि अदीब और शायर चाहे किसी भी क़िस्म के लेखन का इंतिखाब करें, उनको अवाम के क़रीब रहना होगा। उस अवाम के साथ जो अब भी एक बेहतर और खूबसूरत ज़िन्दगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

फैज़ अहमद फैज़ को इस अंदाज़ में याद किये जाने पर एलिस फैज़ हिन्दुस्तान और लखनऊ की शुक्रगुज़ार थीं। उन्होंने कहा कि तरक्क़ी पसंद तहरीक दरअसल इसी शहर से शुरू हुई थी। फ़ैज़ को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वह कभी भी अपने रास्ते से नहीं हटे और उन्होंने सरहदों को भी अदब और दोस्ती की राह में रुकावट नहीं बनने दिया।

ये जलसा तीन दिन तक जारी रहा। तीसरी बैठक में सोवियत यूनियन की स्कॉलर लुदमिला वसीलिया के आर्टिकल की धूम रही। मजरूह सुल्तानपुरी ने इसे बेहतरीन आर्टिकल क़रार दिया था। जिसका विषय था- 'फ़ैज़ सहर ए उम्मीद का शायर।'

फ़ैज़ की शायरी का ज़िक्र करते हुए अपने आर्टिकल में प्रोफ़ेसर लुदमिला वसीलिया कहती हैं- माना कि फ़ैज़ की शायरी में रात के मंज़र को बड़ी अहमियत हासिल है, लेकिन फ़ैज़ दरहक़ीक़त सुबह के शायर हैं। रात का ज़िक्र वह सुबह की रूहानियत को उभारने के लिए करते हैं। फ़ैज़ असली सहर ए उम्मीद के शायर हैं और उनकी शायरी में उम्मीद ख़ास तौर से नुमाया है।

क्योंकि फ़ैज़ उम्मीद के शायर है, उस उम्मीद के शायर जो हर दौर में प्रासंगिक रही है मगर आज के वक़्त ने शायद प्रासंगिकता की ऊंचाइया छु ली हैं। एलिस फ़ैज़ की बात दोहराएं तो पाएंगे कि यही वह वक़्त जब अदीब और शायर को उस अवाम के क़रीब रहना ही होगा जो एक खूबसूरत ज़िन्दगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर ...