मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

फ़ैज़- सहर ए उम्मीद का शायर

ज़िक्र है 1988 का और शहर है हिन्दुस्तान का लखनऊ। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को गुज़रे 4 बरस हो रहे थे। मगर उनको याद करने का सिलसिला थमा नहीं था। दुनियाभर में उनके चाहने वाले कार्यक्रम कर रहे थे। ऐसा ही एक जलसा 20, 21 और 22 मार्च को लखनऊ के रविंद्रालय में किया गया। जिसमे सरहद और समंदर पार से नामचीन हस्तियों ने शिरकत की थी। पकिस्तान से फ़ैज़ की बेगम एलिस फ़ैज़ और बेटी सलीमा हाशमी के अलावा लन्दन से ब्रिटिश स्कॉलर रॉल्फ रसेल (Ralph Russel) और इफ़्तिख़ार आरिफ़ थे। रूसी स्कॉलर डॉक्टर लुदमिला वसीलिया (Ludmila Vasilyeva) भी मौजूद थीं। स्वीडेन और डेनमार्क से भी मशहूर हस्तियां इस जलसे में शामिल होने के लिए आई थीं। इन सबके साथ हिन्दुस्तान के भी नामी गिरामी शायर और लेखक जमा थे, जिनमे कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी प्रोफ़ेसर गोपी चंद नारंग, प्रोफ़ेसर जगन्नाथ आज़ाद, अफ़सानानिगार रामलाल साहब, डॉक्टर अनीस अशफ़ाक़ के अलावा उस दौर के तमाम नामी शायर और लेखक इस यादगार जलसे के गवाह थे।

एलिस फ़ैज़ ने जलसे की शुरुआत में विश्व शांति और मानव अस्तित्व के खतरों का ज़िक्र करते हुए लेखकों और शायरों को मुखातिब किया। उनकी ज़िम्मेदारियों के हवाले से उन्होंने कहा था कि अदीब और शायर चाहे किसी भी क़िस्म के लेखन का इंतिखाब करें, उनको अवाम के क़रीब रहना होगा। उस अवाम के साथ जो अब भी एक बेहतर और खूबसूरत ज़िन्दगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

फैज़ अहमद फैज़ को इस अंदाज़ में याद किये जाने पर एलिस फैज़ हिन्दुस्तान और लखनऊ की शुक्रगुज़ार थीं। उन्होंने कहा कि तरक्क़ी पसंद तहरीक दरअसल इसी शहर से शुरू हुई थी। फ़ैज़ को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वह कभी भी अपने रास्ते से नहीं हटे और उन्होंने सरहदों को भी अदब और दोस्ती की राह में रुकावट नहीं बनने दिया।

ये जलसा तीन दिन तक जारी रहा। तीसरी बैठक में सोवियत यूनियन की स्कॉलर लुदमिला वसीलिया के आर्टिकल की धूम रही। मजरूह सुल्तानपुरी ने इसे बेहतरीन आर्टिकल क़रार दिया था। जिसका विषय था- 'फ़ैज़ सहर ए उम्मीद का शायर।'

फ़ैज़ की शायरी का ज़िक्र करते हुए अपने आर्टिकल में प्रोफ़ेसर लुदमिला वसीलिया कहती हैं- माना कि फ़ैज़ की शायरी में रात के मंज़र को बड़ी अहमियत हासिल है, लेकिन फ़ैज़ दरहक़ीक़त सुबह के शायर हैं। रात का ज़िक्र वह सुबह की रूहानियत को उभारने के लिए करते हैं। फ़ैज़ असली सहर ए उम्मीद के शायर हैं और उनकी शायरी में उम्मीद ख़ास तौर से नुमाया है।

क्योंकि फ़ैज़ उम्मीद के शायर है, उस उम्मीद के शायर जो हर दौर में प्रासंगिक रही है मगर आज के वक़्त ने शायद प्रासंगिकता की ऊंचाइया छु ली हैं। एलिस फ़ैज़ की बात दोहराएं तो पाएंगे कि यही वह वक़्त जब अदीब और शायर को उस अवाम के क़रीब रहना ही होगा जो एक खूबसूरत ज़िन्दगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

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