रविवार, 5 अप्रैल 2020
रंगत आसमान सी
वह एक्टिविस्ट बनना चाहती थी क्यूंकि उसे अच्छा लगता था।
वह उसका दीवाना था क्यूंकि उसे वो अच्छी लगती थी।
दोनों को अपनी राह आसान और मंज़िल सामने नज़र आती थी। बिलकुल सामने।
वह जानती थी कि घर वाले इस रिश्ते पर कभी ऐतराज़ नहीं करेंगे।
वह भी समझता था कि मां - बाप उसकी पसंद में रोड़ा नहीं डालेंगे।
दोनों को कभी छुप कर मिलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। शायद इसकी वजह घरवालों की किसी तरह की पाबन्दी से आज़ाद उनका रिश्ता था। मगर दोनों को अपनी हदें भी मालूम थीं। क्या गज़ब का ताल मेल था इस आज़ादी और हद का। उन्होंने कभी इस बारे में बात भी नहीं की थी और सब कुछ तय भी था। उन्हें ये ज़रूर पता था कि किसी से मिलने के लिए अगर घरवालों की रज़ामंदी न हो तो क्या क्या जतन करने होते हैं।
पिछले कुछ दिनों से दोनों की मुलाक़ात का अड्डा प्रदर्शन स्थल था।
वह अपनी क्लासेज करके घर आ जाती।
वह भी अपनी पढ़ाई के बाद दिनभर के काम निपटा लेता।
डूबते सूरज के साथ दोनों अलग अलग उसी राह पर निकल लेते।
कभी सूरज डूब रहा होता कभी डूब चुका होता। आसमान के इतने सारे रंग गवाह थे इस मोहब्बत के। आसमानी से सुर्ख और सुर्ख से स्याह होते इन रंगो में ये मोहब्बत परवान चढ़ रही थी।
घेरे के इस पार खड़ा वो बस निहारता था उसे। घेरे के इस तरफ मौजूद साथियों में वह भी मगन थी। अपने मिशन में जुटी हुई। कोई एक काम नहीं था उसके पास। कभी मंच पर सामान तरतीब देते दिखी तो कभी माइक और स्पीकर के ताम झाम की वायरिंग सुलझाते। उसकी चाल की तेज़ी बाक़ियों की निगाह में थी। दौड़ भाग के काम में भी वही दबोची जाती थी सबसे पहले। मंच के पीछे वाले मेडिकल कैंप से कोई सरदर्द की दवा लाने का हुक्म देता तो रफ़्तार का ये हाल कि वालिंटियर वाला बेवज़न कार्ड उससे पिछड़ जाता, भला हो उस नीली डोरी का जिसके सहारे वह गले में अटका रह जाता था। काम की इस रफ़्तार के साथ उसका सुकून भी साफ़ नज़र आता था। शायद यही वजह थी कि बिखरी हुई दरियां समेटते वक़्त न तो उसका जबड़ा कसता था और न हीं भवें तनती थीं। कोई भी थोड़ी देर उसपर निगाह डाल कर ये अंदाज़ा लगा सकता था कि उसमे कम से कम वक़्त में ज़्यादा से ज़्यादा काम निकाल लेने की सलाहियत है।
जब वह मिशन पर होती थी तो उसकी निगाहों से बिलकुल बेखबर होती थी। वह भी शांत सा उस खंभे में टेक लगाए कितना सारा वक़्त उसे देखते और ओझल होते गुज़ार देता था। बीच बीच में आने वाले फोन के अलावा बेवजह स्क्रीन में आंखे धंसाने की शायद उसे आदत नहीं थी। वह नहीं दिखती तो कभी पेड़ों का नज़ारा कर लेता, कभी आसमान के रंगों में खो जाता और कभी सड़क से गुज़रती गाड़ियां और लोग उसे उलझाने में कामयाब हो जाते थे।
दोनों की वापसी का वक़्त भी तय था। उसकी पूरी कोशिश होती कि ठीक आठ बजे वो उस घेरेबंदी से बाहर आ जाये। दोनों की वापसी साथ होती थी। एक दूसरे से दोनों के दिनभर के सवाल होते थे। वह भी कुछ ख़ास गुज़रा हुआ बड़ी खुशदिली से बताती थी। ये 15 मिनट का रास्ता दोनों साथ चलते थे। घंटाघर से निकल कर छोटे इमामबाड़े की तरफ जाना होता था दोनों को। 500 मीटर बाद बायीं तरफ वाले मोड़ पर भी 200 क़दम तक दोनों हमक़दम होते।
आज वापसी पर दोनों आठ बजे अपनी राह पर थे। घेरे के अंदर का कुछ भी हाल बताये बिना वह बोली - "मुझे जूता लेना है। ये अब बेकार हो गया। ऐसा करते हैं, कल तुम बाइक लेते आना और हम थोड़ा जल्दी निकल कर मार्केट चले चलेंगे।'
'ठीक है। कल जब हम लोग यहां आएंगे तो सीधे मार्केट ही जायेंगे।' उसने जवाब दिया। फिर अचानक कुछ याद आया तो बोला - 'तुम स्टाइल वाला जूता मत लेना, इतने सारे काम होते हैं इसलिए स्पोर्ट्स शू लेना। तुम्हे आराम मिलेगा।'
'वो लड़कों जैसा जूता! कितना अजीब लगेगा ?' बात करते हुए वह रुकी थी। अजीब क्यों? ये लड़का लड़की क्या होता है? तुम लोग कितनी मेहनत का काम कर रही हो। ज़रूरी है कि अब अपनी ड्रेसिंग ऐसी रखो जो तुम्हारे काम में कोई अड़चन न डाले। ... और प्लीज़ आज के बाद मुझसे ये लड़का लड़की वाली बातें मत करना। दिमाग़ खराब होता है मेरा। ये जो तुम लोग ऐसी सोच रखती हो न, इसलिए अपनी दुरगत की भी ज़िम्मेदार हो। बेचारा बनने का शौक़ होता है तुम लोगों को और उसकी आड़ में अपने फैशन के शौक़ भी पूरे कर लेती हो।' दोनों भूल गए थे कि वो सड़क किनारे रुके है। वह हैरत से उसके बिना रुके बोलने पर देखे जा रही थी। इतना और लगातार तो वो कभी नहीं बोला। शायद किसी और बात की झुंझलाहट थी। मगर उसके खयालात अंदर तक सुकून देते थे उसे, वह खामोश रही और मुस्कुरा कर सिर्फ इतना बोली- 'अब चलें?'
उसे मुस्कुराने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ी मगर मुस्कुरा दिया। दोनों चल दिए। कुछ हलकी फुल्की बातें भी आगे जाकर शुरु हो गई थीं। तय ये हुआ था कि वह अगले दिन बाहर ही उसका इन्तिज़ार करेगी। उसे कुछ काम निपटाते हुए आना था तो वह बाइक से उसे लेने आएगा और वहां से मार्केट चलेंगे। अगले दिन जब वह घंटाघर की तरफ बढ़ रही थी, ये सोचते हुए कि पता नहीं कितनी देर इन्तिज़ार करना होगा तो कुछ क़दम पहले ही उसपर निगाह पड़ी। अपनी हमेशा वाली जगह पर खड़ा था। उसकी तरफ देख रहा था, मुस्कुराते हुए। पहले आने पर खुद को एक विनर जताने का भाव था उसके चेहरे पर। उसकी मुस्कान देखकर वह खुश हो गई थी। कल वाली झुंझलाहट सिरे से गायब थी। उसे ख़ुशी हुई। उसका साथ आने वाले वक़्त के सुकून की ज़मानत लगता था।
पास पहुंच कर वह बोली - 'गाड़ी लाये हो न? अब चलें?'
उसने मुट्ठी खोली और चाबी दिखाते हुए बोला - 'पहले चाय पियेंगे।' इस आंदोलन ने सामने कितनी ही चाय की दुकानों को गुलज़ार कर दिया था। वैसे तो देर रात तक पहले भी यहाँ चाय की दुकानें रौनकभरी होती थीं मगर जब से आंदोलन वजूद में आया था तबसे अलग मिज़ाज के लोग ज़्यादा हो गए थे। अब हंसते खिलखिलाते और पुरानी इमारतों का नज़ारा करते टूरिस्ट की जगह आंदोलनकारी, मीडिया और हालात का मुआयना करने आने वाले लोग थे। इक्का दुक्का पुलिस का कोई आदमी कभी आता तो इन लोगों की आवाज़ें खुद बखुद धीमी होती हुई या खामोश हो जातीं या किसी दूसरे मुद्दे में बदल जातीं। 'तुम गाड़ी तक पहुंचो, मैं चाय वहीं लेकर आ रहा हूं। फिर चलेंगे।'
पार्किंग में खड़ी गाड़ियों के बीच ज़मीन पर पड़े टूटे कुल्हड़ पर उसकी निगाह थी। उसने अपने पुराने जूतों से उन्हें रौंदने की कोशिश की। थोड़ी मुश्किल हो रही थी। फिर खुद ब खुद ख़याल आने लगा। उसके पैरों में स्पोर्ट्स शू हैं और वो बड़ी महारत से एक के बाद एक उन टूटे हुए टुकड़ों को चकनाचूर करती जा रही है। वाक़ई उसका आईडिया कितना मुनासिब था। जब उसके पैरों में स्पोर्ट्स शू होंगे तो ज़िन्दगी कितनी आसान होगी। वह हवाओं में थी। खुद को सरपट चलते महसूस कर रही थी। फिर अचानक पीछे से आवाज़ आई- 'चाय गरम।' दोनों ने चाय शुरु ही की थी कि उसका फ़ोन आ गया और वह वापस अपने ख्यालों में थी। उसकी गाड़ी का हैंडिल अपने हाथ में थामे अपने पैरों को स्टार्ट किक पर महसूस करते हुए। उसकी आवाज़ पर फिर उसने चौंकते हुए 'हूं' कहा था। 'रेडी ? अब चलें ?'
हूं! कहते हुए वह मुड़ी और बेखयाली में हथेली उसकी तरफ बढ़ाते हुए उसने कहा- 'चाबी दो! हम चलाएंगे। तुम पीछे बैठना।'
'क्या? दिमाग़ ठीक है? मैं? पीछे बैठूं? तुम्हारे?' उन निगाहों से बिना उलझे उसकी आंखें झुकते झुकते चकनाचूर हो चुके कुल्हड़ को देख रही थीं। उसने खुद को ज़मीन पर महसूस किया।
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بہت عمدہ تحریر. اللہ کرے زور قلم اور زیادہ
जवाब देंहटाएंبیحد شکریہ بابا
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