शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

ज़माने से आगे तो बढ़िए मजाज़

इश्क़ के एहसास को, वक़्त की नब्ज़ को, औरत के हक़ को और मज़लूम की आवाज़ को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ बयान करने का सलीका मजाज़ में था। असरारुल हक़ मजाज़ तरक्की पसंद तहरीक के नुमाइंदे थे और ये वह दौर था जब इनका इन्किलाबी कलाम हर किसी के दिल में जगह बना चुका था। 

मजाज़ 19 अक्तूबर 1911 को बाराबंकी ज़िले के रुदौली क़स्बे में पैदा हुए जो इस वक़्त अयोध्या में आता है। महज़ 44 बरस की उम्र में मजाज़ इस दुनिया से कूच कर गए और उर्दू अदब का वह खज़ाना दुनिया को दे गए जिसे उनके चाहने वाले हर मुनासिब मौके पर दोहरा कर उन्हें अमर कर देते हैं। आज भी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की सुबह मजाज़ की लिखी उस दुआ से होती है जिसे हर कोई नस्ल दर नस्ल दोहराना चाहेगा। 

जो अब्र यहां से उठेगा, वो सारे जहां पर बरसेगा।
हर जू-ऐ-रवां पर बरसेगा, हर कोहे गरां पर बरसेगा।

मजाज़ की ज़िंदगी उनकी शाइरी के दो हिस्से पेश करती है। पहले में वो इश्क़ में डूबा शायर नज़र आता है जबकि दूसरा हिस्सा एक तरक्कीपसंद इन्किलाबी शायर से रूबरू कराता है। 

मजाज़ के कलम की अदायगी कभी मज़दूरों के हक़ की बात करती है तो कभी ग़ुलामी से आज़ादी की मांग करती है। इसमें बराबरी से औरतों को शामिल किया जाना उनके इन्साफ पसंद दिल की दलील थी। जब वो कहते हैं -

तेरी नीची नज़र खुद तेरी असमत की मुहाफ़िज़ है 
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था। 
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

दिलवालों की दिलदार दिल्ली से ऊबे तो मजाज़ ने उस वक़्त की बम्बई का रुख किया। दिल्ली से मजाज़ का कुछ बैर का रिश्ता था। बेशुमार लोगों की मुराद पूरी करने वाली इस नामुराद मुंबई की बेज़ारी ने उनसे ऐसा कुछ कहलवा दिया जो यादगार हुआ, और ऐसा यादगार हुआ कि हमेशा हमेशा के लिए लोगों के दिलों में दर्ज हो गया। 

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूं 
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं 
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं 

कुछ अरसे बाद मजाज़ मुंबई से लखनऊ आ गए। ये शहर उन्हें बेहद अज़ीज़ था।  ये उनकी लखनऊ से मोहब्बत ही थी जो उनके कलाम में नज़र आती है। इसी कलाम की चंद लाइनें बयान करती हैं -

फ़िरदौस-ए-हुस्न‌‌‌‌-ओ-इश्क़ है दामान-ए-लखनऊ 
आंखों में बस रहे हैं ग़ज़ालान-ए-लखनऊ 
हर सम्त इक हुजूम-ए-निगारान-ए-लखनऊ 
और मैं कि एक शोख़-ग़ज़ल-ख़्वान-ए-लखनऊ
इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह 
वो नौ-बहार-ए-नाज़ कि है जान-ए-लखनऊ 
अब उस के बाद सुब्ह है और सुब्ह-ए-नौ मजाज़ 
हम पर है ख़त्म शाम-ए-ग़रीबान-ए-लखनऊ 

लखनऊ आकर मजाज़ की मयनोशी और बढ़ जाती है। सेहत बहुत ख़राब हो चुकी है। अकेलापन जानलेवा होने लगा है और ख़ामोशी ने उन्हें जकड़ लिया है। मजाज़ अपना दर्द अपने अंदर रखने के आदी थे। 1940 में मजाज़ को पहला नर्वस ब्रेकडाउन हुआ और 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन तक आते आते वह बेहद कमज़ोर हो चुके थे। वक़्त किसी तरह भी मरहम नहीं बन पा रहा था। कुछ अरसे बाद  इसी बेरह वक़्त ने उनकी चहेती बहन सफिया को भी हमेशा के लिए उनसे जुदा कर दिया। बहन का सदमा मजाज़ की रूह को ज़ख़्मी कर गया। 5 दिसंबर 1955 को हालात ऐसे बने कि मजाज़ ने पीना शुरू किया और पीते गए। धीरे धीरे सारे साथी अलविदा कहते हुए उन्हें तनहा छोड़ गए, मगर मजाज़ का पीना जारी था। और वही हुआ जिसका अंदेशा था। शराब उन्हें पी गई। मजाज़ इस दुनिया को अलविदा कह गए। हमेशा हमेशा के लिए वो मजाज़ चला गया जो इस दुनिया के लिए कहता था -

जिगर और दिल को बचाना भी है 
नज़र आप ही से मिलाना भी है 
मोहब्बत का हर भेद पाना भी है 
मगर अपना दामन बचाना भी है 
न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िए मजाज़
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

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