बुधवार, 18 अगस्त 2021

मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत

पहली मोहब्बत अगर तोहफ़े की शक्ल मिले तो कौन काफिर होगा जिसका सर सजदे में न चला जाए। 5 सितंबर 1997 का वो दिन मेरे दिल और दिमाग़ में आज भी दर्ज है। मेरे ख्वाबों की ताबीर मुकम्मल हुई और ऐसा लगा किसी ने दोनों जहां मेरे कदमों में डाल दिए हों। फिर उसके बाद पैर ज़मीन पर पड़ने का सवाल ही नहीं उठता। हम हवाओं में थे और मेरे सफर की गिरफ्त तुम्हारे हाथों में थी। 


तुम्हारे साथ वक्त इतनी इतनी तेज़ी से गुजर रहा था कि दिन बीतने का एहसास ही नहीं हुआ। हफ्ते महीनों में बदल रहे थे और महीने साल बन कर गुजर रहे थे। कई कैलेंडर बदले मगर न बदली तो हमारी चाहत। इस चाहत की ताज़गी को हर दिन महकता और निखरता पाया। 

इस ज़मीन पर तुम्हारा साथ आसमानों की सैर कराता था। जब मेरे हाथ में तुम्हारी गिरफ्त होती तो ऐसा गुमान होता कि टाइटैनिक की रोज़ अपनी मोहब्बत के साथ जहाज के उस ऊंचे सिरे पर मौजूद है जहां दूर दूर तक फैला आसमान, सितारे, ठंडी हवाओं के हिलोरों में रूमानियत की इंतिहा और एक ऐसा सफ़र जिसके कभी न खत्म होने का अरमान। इस ख़्वाब जैसी हकीकत से भला कोई क्यों बाहर आना चाहेगा।

तुम्हारे साथ जिया हर लम्हा ही मेरी जिंदगी थी। तुम्हे देखना फिर से देखना और देखते रहना ही इन आंखों को भाता था। तुम से सिर्फ मोहब्बत नहीं तुम पर नाज़ था। तुम्हारे साथ पर गुरूर था। ये हक़ बहुतों को नहीं मिला। वह चेहरा आज भी याद है जिसने तुम्हे नुकसान पहुंचाना चाहा था। वो मायूसी आज भी याद है जो मेरे तुम्हारे साथ होने पर कुछ नज़रों में दिख जाती थी। मगर दूसरों के गम और जलन से दूर हम अपनी खुशियों में मगन थे। एक दूसरे के लिए बिल्कुल वैसे ही बने थे जैसे हैरी पॉटर की जादुई छड़ी अपने मालिक को चुन लेती है और छड़ी सिर्फ उसके इशारों को ही समझ सकती है। हम दोनों ही एक दूसरे के मालिक और गुलाम थे। 

तुम्हारे साथ के खुशगवार लम्हे कभी भी पथरीली राहों से न डिगा सके। मौसम की हर सख्ती इसलिए बेअसर रही क्योंकि तुम्हारी चाहत ओढ़ना बिछौना बनकर मेरे साथ थी। तुम्हारे प्यार की फुहार में दिल की गहराइयों तक ऐसे भीग चुके थे कि बारिश की बेशुमार मूसलाधार बौछारों ने मेरे वजूद पर अपना सर पटखा और दम तोड़ दिया। ये दिल तुम्हारे लिए धड़कता था। इस धड़कन से गर्दिश करता खून मेरी नसों में तुम्हारा नाम लेकर बहता था। मेरी ये दीवानगी किसी से नहीं छुपी थी।

हमारा साथ पांच बरस पुराना हो चुका था। हम दोनों ही एक दूसरे से राज़ी थे मगर किस्मत हमसे राज़ी न थी। ना जाने किसकी आह लग गई इस चाहत को। मनहूसियत के वो स्याह साये तूफान बनकर हमारी खुशियों को तबाह कर गए। मेरे हाथ में किसी और की अंगूठी थी और मेरे उजाले भी अंधेरों में बदल गए थे। इस गुजरे तूफान ने मेरी किस्मत का रुख अरब सागर की तरफ मोड़ दिया था। मेरी खुशियों का सूरज डूब गया था। कुछ महीनों बाद मेरी रुखसती उस शहर में होनी थी जहां सूरज डूबने के बाद भी अंधेरा नहीं होता। जहां जज़्बात खूंटियों पर टांग दिए जाते हैं, फफूंद लगने और बदरंग होने तक। फिर आहिस्ता आहिस्ता इन्ही खूटियों पर जिम्मेदारियों के नए डेरे जगह घेरने लगते हैं और वो अरमान हमेशा के लिए दफ़न हो जाते हैं।

निकाह से रुखसती के बीच कुछ दिन का मौका था। 8 नवंबर 2002 की सुबह जब सूरज पूरी तरह उगा भी नहीं था। अपनी सबसे खास दोस्त सीमा से मुलाकात के बहाने घर से निकले थे। लामार्टीनियर के उस ग्राउंड में हम तुमसे अलविदा कहने के बहाने मिले थे। जानते थे कि अब हम शायद इस तरह कभी न मिले सकें। उस शाम इस शहर को छोड़ना था इसलिए तुम्हे देखना, फिर से देखना और बार बार देखना चाहते थे। तुम्हे ये यक़ीन दिलाना चाहते थे कि तुम ही मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत हो। मेरी नीली यू पी 32 - M 2170  स्कूटी।


22 टिप्‍पणियां:

  1. e
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    EditAnonymous Anonymous said...
    वाह समीना जी!
    क्या गजब की अभिव्यक्ति है आपकी। आप इतना टेलेंट दबाये बैठी हैं। स्कूटर के लिए अकल्पनीय प्यार का इज़हार!
    कला फिल्मों की पटकथा लेखन की क्षमता रखती हैं आप। आपको हमारी नजर ना लगे और दुआ है कि फिल्म निर्माता/निदेशक की आप पर नजर पड़ जाए।

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    1. उसे हम सब धन्नो कहते थे। काफी वक़्त गुज़रा है उसके साथ तो लगाव भी लाज़िमी है।
      बाक़ी आपने इसे पढ़ा और पसंद किया, उसके शुक्रगुज़ार हैं।

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  2. भले ही अपने अंत में स्कूटी लिख दिया हो लेकिन हम पाठकजन आपके हृदय की इस मार्मिक व्यथा को समझ चुके हैं ।

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  3. Bhn mere pass wrd nahi hai....kya comment krun smjh nahi aa rha h siwaye iske...
    إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعونَ‎

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  4. वाह, बहुत शानदार, दिल को झनझना दिया मगर अचानक से स्कूटी आयी तो लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है. इतना शानदार स्कूटी क्या मर्सीडीज़ के लिए भी नहीं लिखा जा सकता. यह स्कूटी के लिए था तो फिर लामर्ट्स ग्राउंड में जाने की क्या ज़रूरत थी? फिर हाथ में आयी किसी और के नाम की अंगूठी से क्या फर्क पड़ना था. स्कूटी को एडिट कर दो भले ही वह सचमुच स्कूटी ही क्यों न हो.

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  5. जी। दिल तो एक बार काले रंग की क्लासिक कॉन्टेसा पर आया था। हर दिन क्लार्क्स अवध के पीछे से सवा दस पर जब उसका गुजर होता था तो हम दीदार कर लिया करते थे।
    लेकिन नीली काइनेटिक और मेरी हैसियत मेल खाती थी।

    और इस बात का जिक्र क्लाइमेक्स बनाए रखने के लिए मुनासिब नहीं था कि अंगूठी ने चाबी की जगह ले ली थी।

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