तबलीग़ी जमात के वाक़ये ने जिन दो मुद्दों पर सोचने को मजबूर किया है उनमे से पहला है कि भक्त दोनों तरफ हैं और इन पर हंसने के बजाय इनके इलाज की ज़रूरत है। दूसरा मामला ज़रा पेंचीदा है, जिसने करीब दस साल पहले पढ़े एक किस्से की याद ताज़ा कर दी। असल खेमे के भक्तों का मसला सिर्फ इतना है कि वो भक्त हैं और बीमार हैं। मगर इस खेमे के भक्तों की बीमारी सिर्फ कोढ़ नहीं उसमे खाज भी है।
बात हो रही थी तबलीग़ी जमात की जो अपनी कमअक्ली या सूफी फितरत से देखते देखते मुल्क का सबसे बड़ा मुद्दा बन गई। दिल्ली के मरकज़ में मौजूद ये जमात बाहर आने के लिए अल्लाह की मदद के इन्तिज़ार में बैठी रह गई। इन्होने अपनी लिखा पढ़त वाली खानापूरी के बाद कोई दूसरी कोशिश की ही नहीं। इनको अगर बाहर नहीं निकलने को मिला था या हुक्मरानों तक सुनवाई नहीं हो पा रही थी तो एक छोटी सी वीडियो तो बना कर बाहर भेज ही सकते थे या भीड़ एक मीटर के फासले पर लाइन बनाती खुद बखुद सड़क पर आ जाती तो कम से कम सबकी निगाह में आपकी एक कोशिश तो सामने आती। मगर इनमे से कोई भी तदबीर नहीं की गई। देखते देखते तबलीग़ी जमात एक तमाशा बन गई। इस तमाशे में सामने आया दुसरा मुद्दा। तबलीग़ी जमात की इस हरकत ने बरेलवी जमात को इस पर पाबन्दी लगाने का सुनहरा मौक़ा दे दिया। इस पाबन्दी की बात ने तमाशे को नया क्लाइमेक्स दे डाला। एक बार फिर कोढ़ में खाज की शक्ल लिए मुस्लिम फ़िरक़ापरस्ती दुनिया के सामने आ गई।
मुसलामानों का मसला बस इतना है कि दीनी तालीम को पूरे ज़ेहन में इतना भर दिया कि लॉजिक जैसी गुंजाईश ही नहीं बची। अब अगर इन्हें ये बता दिया गया कि फलां हदीस से 7 और 4 के जोड़े जाने पर 11 आने की तस्दीक़ मिलती है मगर 9 और 2 के 11 होने की कोई तस्दीक़ नहीं तो आप किसी भी मुसलमान को इस बात पर राज़ी नहीं कर सकते कि 9 और 2 भी 11 होते हैं। यही मसला यहां भी था। रमज़ान और ईद के जिस चांद की तस्दीक के लिए ये जिस साइंस और टेक्नोलॉजी का मुंह ताकते थे उसी तकनीक के तहत आने वाले कोरोना से बेखबर इन्होने ये ठान लिया था कि अल्लाह पर यक़ीन इन्हे बीमारी से बेअसर रखेगा।
कोरोना इस वक़्त बतौर महामारी हमारे बीच है मगर आज नहीं तो कल इसका वैक्सीन आ जायेगा और इसे भी पोलियो और टीबी वाला दर्जा मिल जायगा। मगर मज़हब और फ़िरक़ापरस्ती फिर लाइलाज रह जायेंगे। इन हालात ने एक ऐसे किस्से की याद दिला दी जो ई मेल के ज़रिये फॉरवर्ड होता हुआ हमतक आया था। ये 'जमाती लतीफ़ा 'उर्दू में था जिसे अनुवाद करके आप तक लाने की कोशिश कर रहे हैं।
जमाती लतीफ़ा
एक बेहद गरीब और भूखा मुसाफिर, जिसकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी, कुछ मदद मांगने निकला और अलग अलग जमातों के दरवाज़े खटखटाने लगा।
हर एक से कहता - 'भाई ! अल्लाह के नाम पर कुछ दे दो। दो दिन से भूखा हूं।'
हर तरफ से जो जवाब मिले वो इस तरह हैं -
तबलीग़ी जमात वालों ने फ़रमाया -
'भाई ! भूख और प्यास का मिटाना अल्लाह के हाथ है। आप अल्लाह पर यक़ीन कीजिये और चालीस दिन की जमात में नाम लिखा दीजिये। अल्लाह ताला कारसाज़ है, वो हर परेशानी दूर करेगा।'
जमात ए इस्लामी वालों ने कहा –
'हम पहले करीबी और फिर इलाक़े की काउंसिल में बात रखते हैं। वहां से मंज़ूरी मिलने पर सेन्ट्रल काउंसिल को लिखते हैं। जैसे ही वहां से मंज़ूरी आती है, आपको जमात की तरफ से एक सिफ़ारिशी खत देंगे, जिसे दिखाकर आप किसी से भी मदद हासिल कर सकते हैं।'
अहले हदीस वालों ने फ़रमाया -
'हर नई चीज़ बिदअत (मज़हब में किसी नये काम की शुरुआत) है और हर बिदअत गुमराही है। पहले अपनी दाढ़ी बढ़ाइये। अल्लाह के रसूल ने कभी अल्लाह के नाम पर कुछ नहीं मांगा। अगर बुखारी और मुस्लिम में ऐसा कोई सबूत हो तो लाइए। लेकिन किसी हनफ़ी, बरेलवी या देवबंदी का फ़तवा मत लाइएगा।'
अहले सुन्नतउल जमात (बरेलवी) हज़रात ने फरमाया -
'इस तरह अगर अल्लाह के नाम पर सारा दिन भी मांगते रहोगे तो कोई जेब से कुछ न निकालेगा। या ग़ौस! या ख्वाजा! का नारा लगाओ फिर देखो वह कैसे तुम्हारी झोली भर देते हैं।'
देवबंदी हज़रात ने फ़रमाया -
'शरीयत ने मांगने से मना किया है। अल्लाह के रसूल के पास अगर कोई मांगने आता तो आप उससे कहते कि एक कुल्हाड़ी लो,जंगल से लकड़ियां काट कर उसे बेचो और कमाओ।'
मदरसे वालों ने कहा -
'भाई ! हमारे साथ फंड और चावल जमा करने निकलो, शाम में मिलकर पकायेंगे और मिलकर खायेंगे। अगर अनाज के साथ साथ पैसे भी जमा हुए तो चौथाई कमीशन आपका होगा।'
इमामबाड़े वालों ने कहा -
'आपका नाम क्या है? क्या मोमिन हो?'
क़ादियानी जमात ने कहा -
'अगर आप कलमा अहमदी पढ़ लें तो आज ही से हम आपको हर महीने पांच हज़ार रुपये का वज़ीफ़ा जारी कर सकते हैं।'
मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन वालों ने कहा -
'आप ऐसा कीजिए, हमारे एरिया की किसी मस्जिद का चुनाव कीजिए। हम वहां के वार्ड के सदर को बता देंगे। फिर आप मस्जिद के बाहर हर नमाज़ के बाद मिलने वाली मदद वसूल कीजिए। फ़िफ्टी परसेंट दारुल इस्लाम में जमा कीजिए और फ़िफ्टी परसेंट आप अपने पास रख सकते हैं और दूसरे मांगने वालों पर नज़र रखिये। सही मुख़बिरी करने पर आपको रहने के लिए किसी ज़मीन पर क़ब्ज़ा भी दिलाया जा सकता है।'
ज़ाहिद अली खान साहब ---
ने फ़ौरन जेब से सौ रुपये निकालकर दिए और फ़ोटोग्राफ़र को बुलवाकर उस भूखे के साथ तस्वीर खिंचवाई। अगले दिन सियासत और मुंसिफ में तस्वीर के साथ छपा कि -'पुराने शहर से ग़रीबी दूर करने के लिए ज़ाहिद अली खान की दरियादिली और मदद का सिलसिला जारी।'
बेचारा भूख से हार गया और चल बसा। सड़क के किनारे उसकी लाश के चारों तरफ लोग जमा हो गए। खुसुर फुसुर होने लगी। हिन्दू था कि मुसलमान ? शिया था की सुन्नी? बरेलवी था कि देवबंदी? अपने इलाक़े का था कि बाहर का? पुलिस ने उसकी जेब की तलाशी लेने से पहले एहतियातन एंटी बम स्कॉयड को भी बुला लिया। इतनी ही देर में अलग अलग जमातों के ज़िम्मेदार भी जमा हो गए और अपनी अपनी बात आगे रखने लगे।
तबलीग़ी जमात वालों का कहना था -
'जो लोग अल्लाह के रास्ते की मेहनत छोड़ देते हैं और घरों से दीन की तबलीग़ के लिए नहीं निकलते और मस्जिदें खाली रखते हैं तो उनपर अल्लाह का अज़ाब ऐसे ही भूख़, ग़रीबी, सूखे या सैलाब की शक्ल में आता है।'
जमात ए इस्लामी के अमीर ने कहा -
'आम इंसान की ख़िदमत सबसे बड़ी इबादत है। हम पिछले साठ साल से बड़ी ही मेहनत और ईमानदारी से इस काम में लगे हुए हैं। यहां मौजूद लोगों से अपील है कि ज़्यादा से ज़्यादा फंड जमा करने में मदद करें जिससे इस मौके पर हम कुछ मदद कर सकें।'
अहले हदीस ने फ़रमाया -
'जो हुआ अल्लाह की मर्ज़ी थी। हम सबको चाहिए कि आपसी मतभेद से दूर रहते हुए हमख़याल हों और ख़बरदार! कोई मरने वाले के लिए फातिहा, फूल या पक्की क़ब्र की बात न करे।'
अहले सुन्नतउल जमात ने कहा कि -
'मरहूम हज़रत भूखे शाह रहमतुल्लाहअलैह का सय्यूम जुमे के दिन होगा। बाद नमाज़ अस्र ख़त्म क़ुरआन और फ़ातिहा होगी और अल्लामा फ़खरुल उलेमा ताजुल मशायख़ीन आरिफ बिल्लाह हज़रात मौलाना ग़ौस जमाली चिश्ती व नक्शबंदी चादरे गुल पेश करेंगे। पहली बरसी पर ख़ास एहतिमाम किया जायेगा और महफ़िल का भी इंतिज़ाम होगा।'
देवबंदी जमात के अमीर ने पूरे दर्द के साथ फ़रमाया -
'हमको चाहिए कि ज़कात का मरकज़ी निज़ाम क़ायम करें, बैतुलमाल का चलन करें ताकि लोगों को बैंक और सूद से छुटकारा मिले।'
मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के बन्दे ने बहते हुए आंसुओं के साथ बड़ी ही जोशीली और जज़्बाती तक़रीर करते हुए फ़रमाया -
'सरकार ग़रीबी को मिटाने में नाकाम हो चुकी है। हम अल्पसंख्यकों के साथ और ज़्यादा नाइंसाफी बर्दाश्त नहीं कर सकते। कल चारमीनार से असेंबली तक हम एक मुखालिफत का जुलूस निकालेंगे और हुकूमत से मांग करेंगे कि हमारे सभी फ़िरक़े के मुसलामानों के लिए एक हज़ार करोड़ रुपया फ़ौरन मंज़ूर करें और हमारे हवाले करें।'
ज़ाहिद अली खान साहब ने फिर से मय्यत की तस्वीर खिंचवाई और अगले दिन सियासत और मुंसिफ में तस्वीर के साथ छपा -
'पुराने शहर की एक छोटी सी जमात के लूटमार के नतीजे में ग़रीबी में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा। सरकारी बजट के नाजायज़ इस्तेमाल का अंदेशा, एक ग़रीब की फ़ाक़ों से मौत।'
मदरसे वालों ने फ़ौरन एक्शन लेते हुए आवाज़ लगा दी -
'हज़रात! एक लावारिस मय्यत के कफ़न दफ़न के लिए फ़ौरन दिल खोल कर चन्दा इनायत फरमाएं।'