1936 में तरक्की पसंद अदबी तहरीक से वाबस्तिगी, कार्ल मार्क्स की तहरीरों का गहरायी से मुतालिआ (अध्यन) और साहबज़ादा महमूद ज़फर और डाक्टर रशीद जहां की आलिमाना सोहबतों ने फैज़ पर ऐसा असर डाला कि उनके शायरी रुझान में एक नुमाया तबदीली रूनुमा होने लगी। ख़्यालात व नज़रयात ने एक नया रुख इख्तियार कियाऔर 'मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...' तख़लीक़' हुई, चुनांचे इश्क़ में डूबा हुआ शायर पुकार उठता है -
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा...
यूं फैज़ की शायरी का एक नया अहद शुरू होता है जिसमे उनके फ़िक्रों ख़याल पर समाज और सियासत हावी हो जाते हैं और शायरी में अवामी दर्द, तड़प और कसक दिखाई देने लगती है। इसका इज़हार 'सोच', चंद रोज़ और मेरी जां', 'कुत्ते', 'बोल', 'रक़ीब से, 'मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग' मौज़ूए सुखन, 'हमलोग' वग़ैराह नज़्मों में होता है। 'रक़ीब से' के ये अशआर मुलाहिज़ा हों, जिन फैज़ को ग़रीबों के दुःख दर्द का एहसास हो गया है और उन्होंने ग़रीबों की हिमायत करना सीख लिया है।
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास ओ हिरमान के दुःख दर्द के मानी सीखे
ज़ेर दस्तों के मसायब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख ए ज़र्द के मानी सीखे
इस तरह 'नक़्शे फ़रयादी' के दूसरे हिस्से की नज़्मों और ग़ज़लों की फ़िज़ा में रूमान और दर्दो कसक का इम्तिज़ाज (मिलावट) साफ़ तौर पर दिखाई देने लगता है। शायरी में इंफिरादी ग़म की जगह इज्तिमाई ग़म ले लेता है। इसके साथ ही एक बात और वाज़े होकर सामने आती है कि इश्तराकियत से क़रीब होने के बावजूद वह इश्क़ और रूमान से मुकम्मल तौर पर अपने आप को अलग नहीं कर पाते हैं हालांकि उनकी कुछ नज़्मों और ग़ज़लों में रवायत से बग़ावत, अवाम से बेपनाह हमदर्दी और मुआशरे की अब्तर हालत की झलक मिलती है।
(दयार ए हिन्द में फैज़)
(डा. अज़ीज़ा बानो)
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