शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

यहां जमहूरियत को जमहूरियत के लिए खड़े देखा


जिन्हें ये लगता है कि आंदोलन में आने वालों की तादाद कम है, उन्हें पता होना चाहिए की यहां वह लोग आते हैं जो रीढ़ की हड्डी रखते हैं। मुट्ठीभर लोगों से शुरू हुआ घंटाघर का ये आंदोलन हर दिन अपनी सरहदों में इजाफा करता नज़र आ रहा है। यहाँ आने वाली हर हस्ती उस तारीख़ का हिस्सा बन रही है जिसे वक़्त हर एक गुज़रते लम्हे के साथ दर्ज कर रहा है। इस जगह पर मौजूद हर वजूद वो बेशकीमती मशाल है जो फिरकापरस्ती की सियाही को ख़त्म करने को रोशन हो रही है।

इन्ही मशालों के बीच एक चेहरे पर निगाह पड़ी और जिस्म में झुरझुरी का एहसास हुआ। ये सायरा थी। सायरा का यहाँ आना कोई छोटी बात नही थी। पिछले साल दोनों पैरों का नी ट्रांसप्लांट कराने के बाद अपने पैरों पर खड़ी सायरा खुद अपनी सेहत से एक अरसे से जंग लड़ रही है। यहाँ सायरा के चारों तरफ उन बीबियों और बच्चियों के रेले थे जो नारे लगाने में मगन थे। बेखयाली में लगने वाला कोई भी धक्का एक ऐसा नुकसान करता जिसका ख़याल भी डरावना था। कई बार सोचा कह दें कि 'तुम्हे यहाँ नही आना चाहिए था' मगर उसके जज़्बे के आगे मेरी हिम्मत दम तोड़ गई।

सायरा बानो घेरे के अंदर थी और बाहर संजोग वॉल्टर। संजोग ने ओरल कैंसर पर फ़तेह पाने के बाद इसी हफ्ते चेहरे की एक और सर्जरी करायी है। टाँके तो कल कटे है लेकिन हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने के बाद इन्हें यहाँ के मोर्चे पर मौजूद पाया। कभी ये जानने की जहमत नहीं की कि संजोग ने पादरी की मौजूदगी में सायरा को रिंग पहनायी थी या मौलवी के ख़ुतबे के बाद सायरा उनके निकाह में आयीं। दोनों को घंटाघर पर साथ देखा तो ये एहसास हुआ कि आज जमहूरियत, जमहूरियत के लिए खड़ी है। इन हिम्मतों के आगे फिरकापरस्ती के बड़े बड़े हथियार बेमानी नज़र आये।

ये जोश और जज़्बे कामयाबी के एहसास को और फौलादी बना गए। अब जीत लाज़िम है। जिसे हम देखेंगे।
लाज़िम है कि हम देखेंगे।

(मेरा ये ज़िक्र कुछ ऐसे दोस्तों को तकलीफ पहुंच सकता है जो अपना घर, रोज़गार और कुछ दूसरी मजबूरियों के चलते यहाँ शरीक नही हो सके। वो यकीन रखें उनके दिली जज़्बे हमारे साथ है और हम उनके एहसानमंद है।)

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