रविवार, 5 जनवरी 2020

खुशवंत जी के वो लफ्ज़ वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के धमाके से कम नहीं थे


अनमने से कुछ तलाशते हुए कोई भूली और खोई चीज़ का मिल जाना। फिर उससे जुड़े कितने ही वाक़ियों का सिलसिलेवार दिमाग़ से ऐसे गुज़रना जैसे किसी डायरेक्टर ने बड़ी महारत से कई बरसों के नायाब लम्हे बहुत ख़ूबसूरती से एडिट कर डाले हों। हाथ पैर कहीं भी मसरूफ हों मगर ज़ेहन में उसी दौर की बातों की गर्दिश पर आप का कोई ज़ोर ही नही।
ये तो सच है कि बैकवर्ड होना इंसान को थोड़ा जज़्बाती बना देता है सो शुक्रगुज़ार है अपने बैकवर्ड होने पर।
बरसों से बंद किसी किताब से बरामद होने वाला ये पीला पोस्ट कार्ड अगर आज के मुताबिक माने तो ट्रोलिंग है। बहुत ही आहिस्तगी और सलीके के साथ चलने वाली ट्रोलिंग।
जी! ये खुशवंत सिंह जी को लिखी मेरी पहली चिट्ठी का जवाब है। इस पर लिखे जाने की तारीख 06 सितंबर 2001 दर्ज है मगर मेरे पास ये जिस दिन पहुंची थी वो यादगार दिन कभी नही भुलाया जा सकता। पोस्टमैन इसे 9/11 को मेरे दरवाज़े डाल गया था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसा न सही पर मेरी हैसियत के सामने ये कोई मामूली धमाका नही था।
अब ज़िक्र किया जाये ट्रोलिंग का। मरहूम खुशवंत जी की 'women and men in my' लाइफ पढ़ रहे थे। आज भी याद है उनका कोई ख़याल इतना नागवार लगा था कि मुंह में कडुवाहट सी भर गई थी। पलटवार के तौर पर फ़ौरन उन्हें चिट्ठी लिखी और वापस किताब में रख दी। जवाब लिख कर ही सुकून आ गया था। इतना सुकून की चिट्ठी पोस्ट करना भी भूल गए। मेरा तिलमिलाता हुआ ट्रोलिंग वाला जवाब किताब में ही धरा रह गया।
दो साल बीत गए और उस किताब को हाथ नहीं लगाया। अचानक कुछ तलाशते हुए इस किताब के पन्ने पलटते वक़्त सीलबंद चिट्ठी मेरे हाथ में थी। तब तक ये भूल चुके थे कि क्या और क्यों लिखा था मगर इतना यकीन था कि जो भी लिखा है सही ही होगा और इसे पोस्ट कर दिया।
खुशवंत जी पर नुक्ताचीनी का खुमार ही इतना ज्यादा था कि जवाब का तो दूर दूर तक ख़याल ही नही आया। बाकी दुनिया इसे क्या कहेगी पता नहीं पर मेरे हिसाब से ये बड़ी सुस्त रफ़्तार ट्रोलिंग थी। 1995 में पब्लिश किताब को 1999 में पढ़कर रिएक्ट करना और 2001 में उसको पोस्ट करना। मगर मरहूम की रफ़्तार खासी तेज़ थी। 06 सितंबर को जवाब लिखा ही नहीं बल्कि पोस्ट भी करवा दिया।
खुशवंत जी ने अफ़सोस के साथ लिखा था कि उन्हें हिंदी नही आती इसलिए हम अपनी बात उर्दू या अंग्रेजी में कहें। अब उनसे कैसे बताते की बात तो हमें खुद ही याद नहीं। मगर बात बदलने की महारत है। और फिर इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए उन्हें अगला खत लिख डाला।
दूसरे खत का जवाब आया मगर लखनऊ से मेरा आबदाना उठ चुका था। अब हम मुम्बई में थे और ज़िन्दगी बिलकुल बदल गई थी। समंदर किनारे बसे इस खुश्क मिजाज़ शहर ने मेरे सारे अलफ़ाज़ डुबो दिए थे। इसकी तासीर का असर था कि पढ़ना और लिखना काफूर हो गया था। इतना कुछ लेकर उसने जो दिया था वो थे बेशुमार थपेड़े। जो थमने का नाम ही नही ले रहे थे।
बहरहाल इस बदरंग पीले पोस्टकार्ड के एहसानमंद हैं जिसने ऐसा असर किया कि इतना कुछ लिख डाला।

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