साहित्य की खिदमत करने वालों से गुज़ारिश है कि अपने प्रोग्राम को बेहतर बनाने के लिए उनमे कुछ बदलाव की सोचें। अगर इनमें फूल और शॉल देना बहुत ज़रूरी है तो किसी इंजिनियर से मिल लें। उससे कहें एक ऐसी मशीन बना दो कि मंच पर बैठने वालों के जब खटाखट नाम पढ़े जा रहे हों उसी वक़्त एक मशीन फटाफट उनके कंधे पर शॉल रखने के साथ एक ठो फूल का गुच्छा उन्हें पकड़ाती चली जाए।
स्टिल और वीडियोग्राफ़ी वाली टीम के लिए मंच के नीचे या स्टेज से कहीं अलग हटकर बैठने का इंतिज़ाम किया जाए। स्टेज या आस पास की दूरी पर पहले से कैमरे सेट करने का इंतिज़ाम भी इंजिनियर के हवाले कर दें। फोटोग्राफर जब श्रोता से दूर होंगे तो मंच वालों को अकसर इस बात का एहसास हो सकेगा कि बोलने वाले ज़्यादा और सुनने वाले कम हैं।
लगे हाथ पोडियम भी इंजीनियर से डिज़ाइन करवा लें। उसे इस तरह डिज़ाइन किया जाए कि बोलने वाले के लिए तयशुदा वक़्त का टाइमर सेट हो। एक मिनट ज़्यादा बोलने पर एक वाइब्रेटर चेताने का काम करे। दो मिनट पूरे होने पर एक बज़र बजे और तीसरा मिनट होते ही सीधा एक स्प्रिंग वाला मुक्का पूरी मोहब्बत के साथ वक्ता का मुंह चूम ले।
वक्ता एक और बात का भी ख्याल रखे कि मुद्दा कोई भी हो अगर भाषा ज़रा आम आदमी के समझ में आने वाली रहेगी तो वह भी बिना खिसियाहट सुनना चाहेगा।
और आखिरी गुज़ारिश मुंह से बड़ा जूड़ा, क़द से ऊंची टोपी या तम्बू जैसी पगड़ी पहनने वालों से है। ये लोग इन लवाज़मात के साथ आएं तो मेहरबानी करके पीछे बैठें, वरना पीछे बैठने वाले को पूरा हक़ है कि कुर्सियां घुमाकर आपस में बातें करें या अपने फोन के साथ वक़्त गुज़ारी भी कर सकता है।
अच्छा सुझाव है
जवाब देंहटाएंअच्छा सुझाव है सब इंजीनियर ही करेग
जवाब देंहटाएंइंजीनियर के साहित्यकारों के लिए क्या फालतू बैठा है
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