वाक़िया 1994 का है। इस साल
हाजी आखिरी बार पानी के जहाज से बम्बई जद्दा बम्बई का सफ़र करने वाले थे। इत्तिफ़ाक़ कहें
या ख़ुशकिस्मती, ये मौक़ा हमारे दादा अब्दुल हलीम ख़ान के भी हिस्से में आया। दादा अपनी
दुनियावी ज़िम्मेदारियां पूरी कर चुके थे। कलमा, रोज़ा, नमाज़ और ज़कात को बड़ी ख़ामोशी से
उन्होंने उम्र भर पाबन्दी के साथ पूरा किया था। इस आखिरी ज़िम्मेदारी को पूरा करने की
हैसियत रखते थे तो वहां जाने की तैयारी भी पूरी की।
लखनऊ से बम्बई तक का सफर ट्रेन
से और आगे का सफर पानी के जहाज़ से होना था। बम्बई से जद्दा पहुंचने में तकरीबन दो हफ्ते
लगा करते थे। सही तारीखें तो याद नहीं, न ही ये याद है कि तब कितने दिनों में वापसी
होती थी मगर यह एक लम्बी ट्रिप हुआ करती थी। उन दिनों ज़िंदगी की हलचलें अखबार, रेडियो,
दूरदर्शन, कैलेण्डर, रिस्टवॉच और डाकिया से जुड़ी रहती थीं। इसके अलावा घर में पांच
डिजिट वाला लैंडलाइन फ़ोन भी हुआ करता था। क्योंकि उस वक़्त इसमें आईएसडी सहूलियत थी
तो हम बच्चों की खुराफात से बचाने के लिए इसे एक लकड़ी के केस में ताला लगाकर रखा जाता
था। फ़ोन आने पर इसका चोगा उठाने की सहूलियत हर किसी के लिए थी मगर डायल करने के लिए
लेटरबॉक्स जैसे केस का छोटा सा ताला खोलना पड़ता था। फ़ोन पाबन्दी से आते थे और डाकिया
भी। देर सवेर सभी की खैरियत भी मिल जाया करती थी।
दादा घर ही नहीं पूरे खानदान
में सबसे बड़े थे। ऐसे में मेल जोल का दायरा भी बहुत बड़ा हुआ करता था। वह दिन भी आया
जब दादा बम्बई बंदरगाह से हज के लिए रवाना हुए। उनके इस सफर को हम सब अपनी ख़याली दुनिया
में महसूस करते थे उसका ज़िक्र होता था। तट छोड़ने के बाद अगले कई दिनों के लिए खुद के
पानी के हवाले कर देने का ज़िक्र। सुबह, दोपहर, शाम और रात के बदलते रंगों के साथ न
थमने वाली पानी की लहरें। उम्र के मुताबिक़ ढेरो ढेर खयालात। जिसमे शार्क से लेकर समुद्री
डाकुओं के भी कई किस्से सुने और दोहराये थे। कई ऐसे सवाल जिनका जवाब कभी मिल जाता और
कभी खुद तलाश लेते।
सब कुछ सुकून से गुज़र रहा
था। हज की तारीखें आईं और इसी बीच पता चला कि हज के दिनों में मिना के इलाक़े में भगदड़
होती है। इस हादसे में 270 हाजियों की मौत की खबर आती है। फिर शुरू होता है रिश्तेदार,
पड़ोसी, दोस्त और तमाम मिलने वालों की आमद और फोन का न थमने वाला सिलसिला। बेचैन घर
वालों के पास अख़बार, टेलीविज़न और फ़ोन को हसरत से देखने के सिवा कोई चारा नहीं था। दादा
हैं तो खैरियत की खबर क्यों नहीं दे रहे और नहीं रहे तो कैसे खबर मिलेगी। इस इन्तिज़ार
में अब डाकिया की आमद भी शामिल हो चुकी थी। घर वालों की तरफ से की जाने वाली सबसे हाई
टेक कोशिश की बदौलत दूरदर्शन वाले टेलीविज़न को केबिल में अपग्रेड कर दिया गया। मगर
इन्तिज़ार ख़त्म नहीं हो रहा था। दादा की कोई खबर नहीं मिली। टेलीविज़न और अखबार से ये
जानकारिया आनी बंद हो गईं, फोन और डाकिया भी उनकी कोई खबर न दे सके। आपस में की जाने
वाली सारी बातें ख़त्म हो चुकी थीं। इन्ही हालात में वापसी का दिन आया और दादा बख़ैरियत
बम्बई के बंदरगाह पहुंचे। घर आने के लिए लखनऊ तक का ट्रेन का सफर भी पूरा हुआ।
दादा मुखिया थे मगर ये शायद
दादा की ज़िन्दगी का पहला मौक़ा रहा होगा जब उनसे सवाल किया गया था। "आपने अपनी
खैरियत से बाख़बर क्यों नहीं किया?" इस पर दादा का जवाब था - "मैं भला अपनी
खैरियत की इत्तिला क्यों देता? अव्वल तो मैं अल्लाह की राह में निकला था और मेरा कफ़न
मेरे सामान में था। ये बात सभी के इल्म में थी कि इस सफर में मेरी मौत हो जाती है तो
कोई बड़ी बात नहीं। और दूसरी बात कुछ होने की हालत में मेरी खबर देना सऊदी सरकार की
ज़िम्मेदारी थी क्योंकि मैं उनका मेहमान था।'
इस जवाब के बाद किसी और जिरह
की कोई गुंजाईश ही नहीं बची थी। 28 बरस पुराने इस किस्से को याद करने की वजह भी बता
दें। पिछले दिनों हज के दौरान आने वाली एक खबर का असर था कि दादा और उनका ये अंदाज़
याद आ गया। खबर के हवाले से जानकारी मिली कि हज के दिन मक्का में हाजियों ने मोबाइल
कंपनियों के 3000 टेराबाइट डेटा का इस्तेमाल किया है।
सऊदी अरब के टेलीकॉम रेग्युलेटर
कम्युनिकेशन एंड टेक्नोलॉजी कमीशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ यह डेटा लगभग 13 लाख घंटे
एचडी क्वालिटी वाले वीडियो देखने के बराबर था।
स्मार्ट फोन और सस्ते इंटरनेट
पैकेज से लैस हाजियों ने काबा का (तवाफ़) चक्कर लगाने से लेकर मैदान अराफात और जमरात
(मक्का के करीब मिना का सफर) तक के अपने विडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से डायरेक्ट
शेयर किये थे। कुछ अपने घरवालों और मां बाप को घर बैठे काबा की ज़ियारत कराइ थी।
कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक
हर दिन हर एक यूज़र ने 805 मेगाबाइट डेटा का इस्तेमाल किया था। यह गिनती दुनिया में
औसत इंटरनेट डेटा के इस्तेमाल की 200 मेगाबाइट से तीन गुना से ज़्यादा थी। रिपोर्ट के
मुताबिक सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले ऐप यूट्यूब, टिकटॉक, स्नैपचैट, फेसबुक
और इंस्टाग्राम हैं।
भीड़ पर नजर रखने और किसी
भी तरह के हादसे से बचने के लिए सऊदी अधिकारियों ने इस बार बड़े पैमाने पर तकनीक का
इस्तेमाल किया है। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की विजन 2030 प्लान के तहत
टेक्नोलॉजी के भरपूर इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसे प्लानिंग का हिस्सा बनाते
हुए सऊदी अरब ने 2030 तक 50 लाख हज यात्रियों को खुशामदीद कहने का इरादा बनाया है।
टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल निगरानी
और हिफाज़त तक तो समझ आता है मगर हर शख्स का अपने घरवालों को हज का लाइव टेलीकास्ट कराना
कब से फ़र्ज़ बन गया। इंटरनेट की दुनिया के बादशाहों तक में हज के लाइव टेलीकास्ट के
ये आंकड़े सनसनी बनकर पहुंचे होंगे। इस नए बाज़ार ने उनका ध्यान भी खींचा होगा और अब
तक कई कैलकुलेशन के साथ बाज़ार नई तिकड़मों के साथ फॅमिली हज दर्शन के नए गैजेट को लाने
के साथ उन्हें ज़रूरी बनाने की कवायद भी पूरी कर चुका। उस क़ौम के लिए जिसे जब तब ये
याद आ जाता है कि किन किन इस्राइली सामानों का उन्हें बॉयकॉट कर देना चाहिए। जो कभी
लाउडस्पीकर की मुखालिफत में फतवे दे दिया करती थी। टेक्नोलॉजी के रसियाओं की देन है
कि आज मस्जिद में नमाज़ी हो या न हो मगर लाउडस्पीकर होना ज़रूरी है।
खुमार वाली टेक्नोलॉजी और
लाउडस्पीकर के शोर ने ये समझने की सलाहियत भी ख़त्म कर दी कि पिछले कई दशकों से इस क़ौम
के नाम में लफ्ज़ जिहादी जुड़ चुका है। मगर अफ़सोस कि जिहाद की पहली पायदान अपनी ख्वाहिशों
से जद्दोजहद को भी न ये समझ सके और न समझा सके। जिस क़ौम को दुनिया ने सबसे ऊंचे दर्जे
का जिहादी बना दिया है आज वह उसकी पहली पायदान पर भी खड़े होने की हैसियटत नहीं रखती।
अच्छी बात है। मुबारक हो
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