तारीख़ पर ये इलज़ाम कभी नहीं लगाया जा सकता है कि वह अदबी तंज़ीमों से महरूम रही है। बग़ावत इंसानी फितरत है। बर्दाश्त के ख़त्म होने पर अवाम बग़ावत कर बैठती है। लेकिन बग़ावत और इन्क़िलाब में फ़र्क़ है। बग़ावत के आगे मुस्तक़बिल का कोई नक़्शा नहीं होता है जबकि इन्क़िलाब एक मनसूबे की बुनियाद पर होता है। और इस सूरत में तरक़्क़ी पसंद तख़लीक़ और उर्दू मिलकर एक इन्क़िलाब की बुनियाद डालते हैं।
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही दुनियाभर में आज़ादी की लहर उभरने लगी थी। दुनिया पहली आलमी जंग की तरफ जा रही थी। पहली आलमी जंग में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अंग्रेज़ों की नुमाइंदगी के बदले हिन्दुस्तानियों का भरोसा तोड़ दिया था। अंग्रेज़ों की इस वादा खिलाफी ने हिंदुस्तान में हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद और खिलाफत की तहरीक को और मज़बूती दी। गाँधी जी की आमद ने मुल्क में एक सामाजि तहरीक को हवा दी। इस वक़्त की उर्दू अदब की खिदमत तारिख के ज़रीन सफ़हात पर दर्ज हुई।
दुनिया की बाक़ी ज़ुबानों की तरह उर्दू अदब भी इस तहरीक में पेश पेश रहा। शायद इसी को डॉक्टर एजाज़ हुसैन ने उर्दू का तरक्की पसंद खमीर कहा है।
बहरहाल 1932 में the world congress of the writer of defence of culture के नाम से एक कॉन्फ्रेंस होती है। जिसमे लंदन से दो हिंदुस्तानी शख्सियत मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर हिस्सा लेते हैं। इससे मुतास्सिर होकर मुल्क राज आनंद और सज्जाद ज़हीर लंदन में अपने चंद साथियों के साथ मिलकर इस अंजुमन का मंशूर (मेनिफेस्टो) तैयार करते हैं। इसकी एक कॉपी हिन्दुस्तान भेजी जाती है जिसपर हिन्दुस्तान के तमाम अदीब दस्तखत करते हैं। इनमे प्रेमचंद, मौलवी अब्दुल हक़, जोश, फ़िराक़, हसरत, क़ाज़ी अब्दुल गफ्फार और अली हुसैनी के अलावा शामिल नामों की एक लम्बी फेहरिस्त है। फिर 15 अप्रैल 1936 को लखनऊ में तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफीन का एक इजलास होता है।
प्रेमचंद 1936 में दिए गए इसके सदारती ख़ुत्बे में कहते हैं-
'अदब में हुस्न और इख़लाक़ के अनासिर उसी वक़्त पैदा होंगे जब हमारी निगाहे हुस्न आलमगीर हो जाएगी। जब सारी ख़िलक़त इसके दायरे में आ जाएगी।'
अदीब की मसनद का ज़िक्र करते हुए प्रेमचंद कहते हैं कि अदीब
वतनियत और सियासत के पीछे चलने वाली हक़ीक़त नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाते हुए चलने
वाली हक़ीक़त है।
मुंशी प्रेमचंद ने इसकी सदारत की और इजलास में अदीबों के
सामने तरक्की पसंद नज़रियात रखे गए। इस तहरीक ने समाजी नाइंसाफियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद
की। अब अदब का मौज़ू आम इंसान, मेहनतकश और किसान थे। अदब के नए मौज़ू के साथ इसमें नए
अलफ़ाज़ भी शामिल किये गए। या कह सकते हैं कि अदब के ज़रिये मार्क्सिज़्म, कम्युनिज़म और
सोशलिज़्म के नज़रिये को सामने लाना था।
ग़ज़ल, नज़्म, अफ़साना, नॉविल जितनी भी तख़्लीक़ी असनाफ़ थीं, तरक्की
पसंद तहरीक की आमेज़िश हर असनाफ़ में नज़र आने लगी। तनक़ीद, रिपोर्ताज, सफरनामे, ड्रामे
कुछ भी इससे अछूता नहीं रह गया था।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक का असर इतना ज़्यादा था कि जिसका अंदाजा
लगाने के लिए सज्जाद ज़हीर के मुरत्तिब मजमुए अंगारे की दलील ही काफी है। तल्ख़ हक़ीक़तों
का बयान करने वाला ये मजमुआ 1932 के आखिर में शाया हुआ था और मार्च 1933 में हुकूमत
ने इसे ज़ब्त कर लिया।
तरक्की पसंद तहरीक का एक और यादगार कारनामा 'गाये जा हिन्दुस्तान'
के नाम से निकाला गया वह मजमुआ है जो 1946 लाहौर से पब्लिश हुआ। करीब 150 वरक़ वाली
यह किताब उन लोकगीतों पर मुश्तमिल है जिसे देवेंद्र सत्यार्थी ने पूरे मुल्क में घूम
घूम कर जमा किया था।
देखते ही देखते थियेटर, रेडियो और सिनेमा में भी तरक़्क़ी पसंद
अदब अपनी जगह बनाने में कामयाबी पा रहा था। लखनऊ में इप्टा के क़ायम होने के बाद पहला
ड्रामा मुंशी प्रेमचंद का कफ़न पेश किया गया था। गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में इसमें
खुद रशीद जहाँ ने अदाकारी की थी। थियेटर के अलावा वह आल इण्डिया रेडियो से भी इस क़िस्म
के ड्रामों को वॉइस ओवर के साथ पेश कर रही थीं। तहरीक के असर की गिरफ्त से सिनेमा की
दुनिया भी न बच सकी।
बीसवीं सदी की दूसरी दहाई तक जहाँ मज़हबी और तिलसीमाती फिल्मों
का बोल बाला था, वहीँ कुछ ऐसे फिल्मसाज़ आये जिन्होंने इस सनअत को समाजी और इख़लाक़ी क़द्रों
से जोड़ा। बंबई टाकीज़, फिल्मिस्तान और दीगर फिल्म कपनियों के लिए फार्मूला फिल्मे लिखने
वाले मंटो की अपनी तख़लीक़ पर 1940 में अपनी नगरीया फिल्म आई।
रंग
भूमि- 1946
पंचायत
- 1958
हीरा
मोती - 1959
गोदान
- 1963
गबन
- 1966
शतरंज
के खिलाड़ी - 1977
टेलीफिल्म सदगति - 1981
इस्मत चुग़ताई अपने फिल्मसाज़ शौहर शाहिद लतीफ़ के लिए कई फ़िल्में
लिखी। इसके अलावा उनकी कहानियों और अफसानों पर भी फिल्मे बनीं। 1973 में गर्म हवा और
1978 में शशि कपूर की फिल्म जुनून यादगार फ़िल्में हैं। जुनून उन्होंने न सिर्फ लिखी
थी बल्कि उसमे किरदार भी निभाया। चौथी का जोड़ा और कुछ और कहानियों पर 1990 की दहाई
में टेलीफिल्में बनाई हैं।
तरक्की पसंद तहरीक की नुमाइंदगी करने वाले बलराज साहनी की
दो बीघा ज़मीन किसी भी हस्सास शख्स के रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है।
समाज की तश्कील ए नौ एक मंसूबे पर मुन्हसिर है और इसके लिए एक तंज़ीम की ज़रूरत है। इस ज़रूरत का खुलासा 1945 में हैदराबाद में होने वाली तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफीन कांफ्रेंस में दिए गए सज्जाद ज़हीर के इस ख़ुत्बे के ज़रिये सामने आता है-
''बाज़ लोग सवाल करते हैं कि जब हर दौर में तरक्की पसंद अदब की तख़लीक़ होती है और जब हाली, शिब्ली, और इक़बाल भी तरक़्क़ी पसंद हैं तो आखिर तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफीन की अंजुमन बनाने की क्या ज़रूरत है? ये सवाल ऐसा है कि जब दुनिया में इब्तिदा ए आफ़रीनिश से लेकर आज तक फूल खिलते रहे हैं तो बाग़ लगाने की क्या ज़रूरत है? इस अंजुमन की ज़रूरत इस वजह से पैदा हुई, जिस वजह से दूसरी अंजुमनों की ज़रूरत होती है। यानी अफ़राद इज्तिमाई तौर से अदबी मसायल पर गुफ्तगू और बहस करे। फ़र्द और जमात की ज़रूरत को समझे। समाजी कैफियत का तजज़िया करे। और इस तरह मुश्तर्का नस्बुलऐन क़ायम करे और उसके मुताबिक़ अमल करे।
तरक्की पसंद तहरीक के सामने कुछ इस किस्म के भी सवाल आये जैसे-
* क्या अदब को सियासी तहरीकों में अदबी हिस्सा लेने की ज़रूरत है?
* क़दीम और क्लासिकी अदब की तरफ हमारा रवैया क्या होना चाहिए?
* हमारी ज़बान कैसी हो?
*
मज़हब की तरफ हमारा रवैया कैसा हो?
* या फिर रूमान पसंदी और हक़ीक़त पसंदी के हुदूद क्या हैं?
क्योंकि तरक्की पसंद तहरीक ने इफ़ादियत (Utility) वाले अदब पर ज़ोर दिया था और इज़हार ए ख्याल की आज़ादी ने कई तरह की सरहदों को तोड़ा था। जिसकी वजह से इस तहरीक के असरात बहुत वसी थे। अगर दुनिया भर की मुख्तलिफ अदबी तहरीकों के दरमियान तौसी (توصیع) और वक़्त के बीच एक ग्राफ बनाया जाए तो यक़ीनन तरक़्क़ी पसंद तहरीक चोटी पर नज़र आएगी।
आज़ादी के साथ तक़सीम हिन्द और इसके ज़ेरे असर होने वाले फसादात ने तरक़्क़ी पसंदों के सामने नए मसायल खड़े कर दिए। जिस आज़ादी का ख्वाब देखा गया था उसकी तकमील नहीं हुई। 1948 आते आते कुछ नौजवान इसे आज़ादी न मानते हुए हक़ीक़ी आज़ादी के ज़राय तलाश करने लगे थे। लोगों का रुख सोशलिज़्म की सिम्त होने लगा था। और सबसे बड़ी महरूमी सज्जाद ज़हीर जैसे रहनुमा का पकिस्तान चले जाना था। वहां पहुंचकर खुद सज्जाद ज़हीर अदबी से ज़्यादा सियासी मसरूफियरों में फँस चुके थे। नतीजा ये हुआ कि तरक्की पसंद तहरीक में एक खामोशी का दौर आ गया था ऐसे में कृश्नचंदर ने इस ज़िम्मेदारी को संभाला। सज्जाद ज़हीर पकिस्तान जेल से आज़ाद होकर हिन्दुस्तान आते हैं। आज़ादी और तकसीम के बाद की निस्फ़ दहाई इन उलझनों के सही नतीजे तलाशने में निकल जाती है।
हालात ये थे कि अब मज़लूम अवाम को रोटी और रोटी पा चुकी अवाम को रूहानियत की ज़रूरत अभी भी बेचैन कर रही थी। तरक़्क़ी पसंद अदीबों के सामने तरक़्क़ी पसंद मौज़ूआत के तालुक से तशफ्फी और तसल्लीबख़्श जवाब नहीं थे। हालांकि तहरीक के एलाननामे, मेनिफेस्टो, खिताब और तक़रीर का बग़ौर मुताल्या इन पेचीदा सवालों के जवाब मुहैय्या कराता है। मगर इन मसायल के पैदा होने का अहम सबब तरक्की पसंदों की इंतिहा पसंदी माना गया। नतीजे में न सिर्फ तहरीक का बड़ा नुकसान हुआ बल्कि यही इसके ज़वाल का भी सबब बना।
तहरीक बनने के 50 बरस बाद हालात ये थे कि उर्दू को न सिर्फ
हिक़ारत की नज़र से देखा गया बल्कि इसका वजूद खतरे में आ गया और तब जनवादी लेखक संघ ने
इसकी हिफाज़त के साथ फ़रोग़ का ज़िम्मा उठाया और इस तरह अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्निफीन
के नाम से इसे एक नई ज़िंदगी मिली।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक का हर नुमाइंदा अपनी भरपूर काविशों के साथ अदबी तख़लीक़ में तआवुन कर रहा था मगर पूरी तहरीक को फैज़ की कैफियत के हवाले से समझा जाए तो उनके चंद मिसरे इसे बयान कर देंगे-
परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करने वाला सहर और उम्मीद का शायर फैज़
1941 में शाया नक़्शे फरयादी में कहता है-
हम
ने माना जंग कड़ी है, सर फूटेंगे खून बहेगा
खून
में ग़म भी बह जाएंगे, हम न रहेंगे ग़म भी न रहेगा।
आज़ादी और तक़सीम के बाद 1953 में शाया दस्ते सबा में फैज़ दाग़ दाग़ उजाला और शब ग़ज़ीदा सहर की बात करते है। बांग्लादेश बनने के बाद यही फ़ैज़ खुद को कहने से नहीं रोक पाए-
हम
कि ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बाद
और
खुद ही उनका सवाल आता है
ख़ून
के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बा'द
उन
से जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़े किए
अन-कही
ही रह गई वो बात सब बातों के बा'द
दस्ते सबा की तख़्लीक़ी दौर की मायूसी फैज़ को ये भी लिखने को मजबूर कर देती है-
बला
से हम ने न देखा तो और देखेंगे
फ़रोग़-ए-गुलशन ओ सौत-ए-हज़ार का मौसम
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंThank you so much for the detailed and fascinating post.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा, उस रोज सुन कर भी मज़ा आया।
जवाब देंहटाएंसमीना बहुत सुंदर लिखा है तुमने..
जवाब देंहटाएंNice
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