चाय से मोहब्बत का ये मामला
है कि ज़ेहन में अकसर एक आवाज़ मध्यम सुरों में चलती रहती है-
चाय बनाई जतन से, चरखा दिया
जला...
पता नहीं ये तलब की कौन सी ऊंचाई थी जो खीर चरखे में बदल गई। तलब और मोहब्बत में किस जज़्बे को ऊपर रखें ये भी नहीं पता। मगर इतना तय है कि चाय है, तो हम हैं।
चाय से मेरी मोहब्बत को आप एकतरफ़ा कह सकते हैं। हमें बुरा नहीं लगेगा। इस एकतरफा मोहब्बत के बेशुमार किस्से मेरी यादों में बसे हैं। हमें कोई शिकायत ही नहीं कि बदले में चाय ने मेरे वास्ते क्या गुनगुनाया। हम तो बस इसपर खुश हैं कि इस चाय ने हमें बहुत कुछ दिया है। इससे रिश्ता कुछ यूं है कि जब कुछ समझ आया तो चाय पी और कुछ समझ से बाहर हुआ तो भी चाय ही पी। गोया हर अच्छे बुरे वक़्तों का साथी ही असल साथी होता है।
एक ज़माने में चाय की पत्ती
का डिब्बा खोला। नाक उसके करीब लेकर गए और बंद आंखों से उसे अपने वजूद में समा लिया।
इस महक ने बहुत बार दुनिया के ग़मों से बेगाना किया है। आज भी ये दो घूंट ज़िन्दगी के,
किसी भी काम को करने में बड़े मददगार होते हैं।
जैसे राधा और मीरा कृष्ण के
प्रेम में कृष्णमयी हो गई थीं और पारो को देवदासी नाम मिला, वैसे ही चाय से इस सूफियाना
इश्क़ को हम चायराना का खिताब देना चाहते हैं।
सुबह का जाग जाना सिर्फ उठ
जाना नहीं होता। आंख और दिमाग़ के खुलने को जागना कहते हैं। ये फ़र्ज़ हमेशा चाय ने ही
निभाया है। गोया जिसने आंख से दिमाग़ तक को चौकस कर दिया वही आपका बेहतरीन हमसफ़र है,
रहनुमा है।
इसमें कॉफी वाला भारीपन नहीं
होता इसलिए ये और भी अज़ीज़ हो जाती है। चाय न होती तो रिश्तों का निभाना भी मसला होता।
कितने ही ऐसे मेहमान हैं जो लंच डिनर तो दूर, बिना वाय वाली चाय से रिश्ते की डोर बंधे
हैं।
पहले चाय को लेकर एक्सपेरिमेंट
पसंद नहीं आते थे। जबतक अपना दायरा छोटा था तो नुक्ताचीनी ज़्यादा थी। हर वक़्त की अलग
चाय वाला नजरिया था। सर्दियों में अदरक वाली, कम दूध और कम मिठास वाली चाय के अलग वक़्त
थे। दम वाली खास मौके पर और लिखने के वक़्त ब्लैक टी। वक़्त गुज़रा, दायरा बढ़ा और सारे
मेनिफेस्टो ध्वस्त हो गए। हालात ने ज़िन्दगी के ऐसे पहाड़, पठार और नद्दी नालों से गुज़ारा
कि अब ट्रक ड्राइवर वाली चाय भी अज़ीज़ है। शक्कर रोक के पत्ती ठोक के, वाली किस्म भी
क़ुबूल है। अब चाय के मामले में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कर लिया है। जैसी सबको मिलेगी
उसी में हम भी खुश।
बस गर्म चाय की इल्तिजा है।
हां! ठंडी चाय और चाय पीकर रखा हुआ कप बर्दाश्त नहीं। ...और 'चाय वाला' तो बिलकुल भी
नहीं। न न। यहां सियासत के लिए कोई जगह नहीं। मगर चायवाली से हमदर्दी होती है। फिर सोचते
हैं जो हुआ अच्छा ही हुआ। कहीं चायवाले को चायवाली से हमदर्दी होती तो न जाने कितने
छोटू और छोटियां भी होते। अगर उनके जैसे होते तो तबाही का बहुत सामान भी होता। मगर
इन बातों में पड़ना ही नहीं है। ज़ाइक़ा ख़राब होता है। वैसे सियासी महफ़िलों में होती होगी
इसकी डिमांड मगर हमें जिस खूबी पर फख्र है वह है इसकी पहुंच। बल्लियों के सहारे कई
मंज़िला इमारत बनाने वाले मज़दूर को भी चाय चाहिए और इस इमारत के मालिक को भी। ज़रूर इसकी
रेंज देखकर ही चाय वाले के गेम प्लानर ने चुना होगा इसे।
कड़कड़ाती सर्दी में चाय के लिए किसी बहाने की ज़रूरत नहीं होती और गर्मी में इस बहाने से पीते हैं कि जैसे लोहा लोहे को काटता है वैसे ही गर्म चाय गर्मी को। कम बजट में लोगों को जोड़ने की जो खूबी है इस चाय में उसके आगे इसके नुक़सान बौने नज़र आते हैं। बल्कि कितने लोग तो इलाज के तौर पर चाय का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए सरकार से मेरी गुज़ारिश है कि इसकी पैदावार बढ़ाने के साथ जगह जगह टी हॉउस खोले जाएं। बल्कि हो सके तो दूध के एटीएम की तर्ज़ पर आल टाइम टी के बूथ लगाएं और इसके लिए सब्सिडी पर भी विचार करें।
Really interesting
जवाब देंहटाएंthank you.
हटाएंChai pr likhe is blog ne dil o dimag pr ye asar kiya ke muddat se band darwazon ko kisi ne khol diya aur wo waqt yaad aa gae jb sirf chai ne he saath diya tha..bahot khoob Sameena.
जवाब देंहटाएंBahot achcha likha sameena mazi ke dareeche aur haal bahot kuch....
जवाब देंहटाएंshukria dost
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