बुधवार, 24 अगस्त 2022

अन अल हक़ की वकालत करती थीं इस्मत आपा

कागज़ पर दर्ज इस्मत चुग़ताई की तहरीर को अगर एक खंजर माना जाए और उनके ख़यालात को हमला, तो निशाने पर कौन है ये बताने की ज़रूरत नहीं। इस्मत का ये खंजर जब भी उठा उसने हया और बनावटी तहज़ीब के उन तंबुओं को तार तार किया है, जिसकी पनाह में न जाने कितने सारे हक़ दफ़न होते रहे हैं। 

इस्मत चुग़ताई के बाद ज़माना बदला। दकियानूसी समाज ने उनका साहित्य तो क़ुबूल किया मगर उनके विचार नहीं। अन अल हक़ की आवाज़ बुलंद करने वाली इस्मत का नाम आज भी दकियानूसी की पैरोकारी करने वालों को दहला देता है। इस दहशत से बचने के लिए उन्होंने तरक़्क़ी पसंद को फैशन माना और उसका लिबास पहनकर खुद को तरक़्क़ी पसंद जमात का हिस्सा बना लिया। 

जिस इस्मत चुग़ताई का साहित्य आज सात आठ दशक बाद पढ़ने वालों के लिए एक स्पार्क का एहसास कराता है उसकी शिद्दत का अंदाजा उनके दौर में क्या रहा होगा। इसे जानने के लिए अगर उन लोगों के ख्यालात जानें जिन्होंने इस्मत के लेखन के साथ उनके जूनून और तेवर भी देखे है तो शायद ज़्यादा बेहतर होगा। इसके लिए उनके समकालीन मंटो से ज़्यादा मुनासिब नाम क्या हो सकता है। 

1948 में मोहम्मद अली रोड बम्बई के क़ुतुब पब्लिशर से छपने वाली एक किताब 'नए अदब के मयमार- इस्मत चुग़ताई' में मंटो लिखते हैं-

आज से तक़रीबन डेढ़ बरस पहले जब मैं बम्बई में था, हैदराबाद से एक साहब का पोस्टकार्ड मौसूल हुआ। उसका मज़मून कुछ इस क़िस्म का था। "ये क्या बात है कि इस्मत चुग़ताई ने आप से शादी न की? मंटो और इस्मत। अगर ये दो हस्तियां मिल जातीं तो कितना अच्छा होता। मगर अफ़सोस कि इस्मत ने शाहिद से शादी कर ली और मंटो...''
उन्ही दिनों हैदराबाद में तरक़्क़ीपसंद लेखकों की एक कॉन्फ्रेंस होती है, मैं इसमें शरीक नहीं था। लेकिन हैदराबाद के एक पर्चे में इसकी रुदाद देखी जिसमे ये लिखा था कि वहां बहुत सी लड़कियों ने इस्मत को घेर कर ये सवाल किया -"आपने मंटो से शादी क्यों न की?''
उस वक़्त तो मैंने ग़ौर नहीं किया लेकिन अब सोचता हूं अगर मैं और इस्मत वाक़ई मियां - बीवी बन जाते तो क्या होता? ये अगर भी कुछ इस क़िस्म की 'अगर' है, अगर कहा जाए कि क्लियोपेट्रा की नाक एक इंच का अट्ठारवां हिस्सा बड़ी होती तो उसका नील वादियों के इतिहास पर क्या असर पड़ता। लेकिन यहां न तो इस्मत क्लियोपेट्रा हैं और न तो मंटो एंटोनी। लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर मंटो और इस्मत की शादी हो जाती तो इस हादसे का असर अहद ए हाज़िर के अफ़सानवी अदब की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता। अफ़साने अफ़साने बन जाते, कहानियां मुड़ तुड़ कर पहेलियां हो जातीं। इंशा (लेख) की छातियों में सारा दूध ख़ुश्क होकर या तो एक नादिर सफूफ (दुर्लभ पाउडर) की शक्ल इख़्तियार कर लेता या भस्म होकर राख बन जाता। और ये भी मुमकिन है कि निकाहनामे पर उनके दस्तख़त उनके क़लम की आखिरी तहरीर होते। लेकिन सीने पर हाथ रखकर ये भी कौन कह सकता है कि निकाहनामा होता! ज़्यादा क़रीन क़यास (सम्बद्ध आसार) तो यही मालूम होता है कि निकाहनामे पर दोनों अफ़साने लिखते और क़ाज़ी साहब की पेशानी पर दस्तख़त कर देते ताकि सनद रहे।
अपने आस पास के अलावा दूर दराज़ तक उन्हें इस्मत आपा के नाम से शोहरत मिली थी। जिस वक़्त इस्मत आपा अपनी मौजूदा दुनिया से क़लम के सहारे मोर्चा संभाल रही थीं तो अपनी इस जंग के बदले एक आज़ाद दुनिया का ख़ाका भी उनके ज़ेहन में था। हमारी आज की दुनिया को लेकर इस्मत आपां ने जो ख़्वाब देखा था उसका ज़िक्र अपने मज़मून 'हीरोइन' में करते हुए वह लिखती हैं-
अब देखना ये है कि हमारी आइंदा ज़िन्दगी की हीरोइन किस शान से जलवा अफ़रोज़ होती है। खुदा के बाद औरत की ही परस्तिश अदब में की गई है। या शायद उसका नंबर पहले आता है और फिर दुनिया की दूसरी ताक़तों का। जहां तक अंदाज़ा लगाया जाता है, आने वाली हीरोइन न तो ज़ालिम होगी न मज़लूम। बल्कि सिर्फ एक औरत होगी। और अहरमन ओ यज़दा के बजाए अदीब उसे औरत का ही रुतबा बख्शेंगे और फिर तामीर शुरू होगी। 

(अहरमन ओ यज़दा = फ़ारसी शब्द - फ़ारसियों के मुताबिक़ अहरमन और यज़दां खुदा थे जिनमे अहरमन बदी का और यज़दां नेकी का था।)

नए अदब के मयमार में एक और जगह मंटो लिखते हैं -

हमारी 5 - 6 बरस की दोस्ती के ज़माने का ऐसा कोई वाक़िया नहीं जो क़ाबिल ए ज़िक्र हो। फ़हाशी (अश्लीलता) के इलज़ाम में एक बार हम दोनों गिरफ़्तार हुए। मुझे तो पहले दो दफ़ा तजुर्बा हो चुका था लेकिन इस्मत का पहला मौक़ा था। इसलिए बहुत भन्नाई। इत्तिफ़ाक़ से गिरफ्तारी ग़ैर क़ानूनी निकली। क्योंकि पंजाब पुलिस ने हमें बग़ैर वारंट पकड़ लिया था। इस्मत बहुत खुश हुईं लेकिन बकरे की मां कब तक ख़ैर मनाती। आखिर उसे लाहौर की अदालत में हाज़िर होना पड़ा। 

बम्बई से लाहौर तक काफी लम्बा सफर है लेकिन शाहिद और मेरी बीवी साथ थे। सारा वक़्त खूब हंगामा रहा। सफ़िया और शाहिद एक तरफ हो गए और चिढ़ाने की ख़ातिर हम दोनों की फ़हशनिगारी पर हमले करते रहे। क़ैद की सोबतों (सांगत) का नक़्शा खींचा। जेल की ज़िन्दगी की झलकियां दिखाईं। इस्मत ने आख़िर में झल्लाकर कहा- “सूली पर भी चढ़ा दें लेकिन यहां हलक़ से अन अल हक़ ही निकलेगा।‘’

इस मुक़दमे के सिलसिले में हम दो दफ़ा लाहौर गए। दोनों मर्तबा कॉलेज के तमाशाई तालिबे इल्म मुझे और इस्मत को देखने के लिए टोलियां बांध बांध कर अदालत में आते रहे। इस्मत ने मुझसे कहा- ''मंटो भाई! चौधरी नज़ीर से कहिए कि वह टिकट लगा दें कि यहां आने जाने जाने का किराया ही निकल आएगा।" हम दो दफ़ा लाहौर गए और दोनों ही दफ़ा हमने करनाल शॉप से मुख़्तलिफ़ डिज़ाइनों के दस-दस बारह-बारह जोड़े सैंडिलों और जूतों के ख़रीदे। बम्बई में किसी ने इस्मत से पूछा- "लाहौर आप क्या मुक़दमे के सिलसिले में गए थे? इस्मत ने जवाब दिया- "जी नहीं जूते ख़रीदने गए थे।"

जगदीश चन्द्र विद्धावन अपनी किताब 'शख्सियत और फ़न इस्मत चुग़ताई' के साथ बीते उस वाक़िये का ज़िक्र करते हैं, जिसका असर उनकी शख्सियत पर ऐसा पड़ा जिसने उन्हें खुद से मुलाक़ात करा दी। और न सिर्फ मुलाक़ात कराइ बल्कि ज़िन्दगी का ढर्रा ही बदल दिया।  

''मंगू उनके कोचवान की बेटी इस्मत की बड़ी प्यारी सहेली थी। उम्र में वह उनसे कुछ बड़ी ही होगी। तरह चौदह साल की ही उम्र में उसकी शादी हो गई और वह अपने ससुराल चली गई। जब वह अपनी पलौठी की बेटी को लेकर आई तो उसकी तबियत, शोखी और शरारत और होंठों पर खेलती मुस्कराहट नापैद (दुर्लभ) हो चुकी थी और वह चुरमुरा सी गई थी। उसने इस्मत को बताया कि बेटी जनने के जुर्म में उसकी सास उसे बड़ी बेरहमी से मारती पीटती हैं और उसके मियां से भी पिटवाती हैं। मंगू ने ऊपरतले तीन बेटियों को जन्म दिया तो उसके वहां कोहराम सा मच गया। सास उसपर सौत लाने के मंसूबे बनाने लगी। मंगू पर ज़िंदगी पहाड़ सी भारी हो गई। मंगू के वालिदैन, जो उसकी तीन बच्चियों का बार ए गिरां (भारी बोझ) उठाने से क़ासिर थे, आहें भरते थे। इस्मत अपनी सहेली की तीन रोती बिसूरति भिनकती बच्चियों को भारी दिल से देखती तो उन्हें उसकी हालत ए ज़ार पर रहम आने लगता कि मंगू औरत की बेबसी और बेचारगी की दूसरी मिसाल थी। मंगू को देखकर इस्मत को ख्याल आता कि ख़ुदा ए रहीम ओ करीम ने इस्मत को औरत क्यों बनाया और वह अंदर ही अंदर ख़ौफ़ज़दा हो जाती। इस्मत ने अपने गिर्द ओ पेश नज़र दौड़ाई तो उन्हीं औरतों की बेबज़ायती (बेसहारा) और बेवक़अती का बड़ा घिनौना (घिनावना) और लरज़ाख़ेज़ (दहलाने वाला) मंज़र दिखाई दिया। उनके पास पड़ोस की बेशतर औरतें मदक़ूक़ (बीमार) और सितम रसीदा (ज़ुल्म का शिकार) थीं। वह ख़ुशामद और जीतोड़ मशक़्क़त के बूते पर सुसराल में अपनी ज़िन्दगी के दिन लश्तम पश्तम (ज्यों त्यों करके) काट रही थीं। वह अपने शौहरों, सासों और ननदों के रहमो करम पर थीं। ये देखकर इस्मत को अपने औरतपन पर घिन आती और वह लरज़ लरज़ जातीं। इस्मत के वालिद मुलाज़िमत से सुबकदोश होकर आगरा आ चुके थे। उन्हें इस्मत के ज़रिए मंगू के मामले का पता चला तो उन्होंने लखनऊ के सुपरिटेंडेंट पुलिस के ज़रिए उसके मियां पर दबाव डाला कि  वह मंगू पर सौत लाने से बाज़ रहे वरना उसे क़ैद ओ बंद का सामना करना पड़ेगा। धमकी कारगर साबित हुई। कोई साल भर बाद मंगू आगरा आई तो वह पहचानी न जाती थी। उसके वहां लड़का नहीं हुआ था फिर भी वह चिकनी चुपड़ी दिखाई देती थी और उसके रूखे सूखे मुरझाये हुए चेहरे पर हरियाली और शादाबी थी। इस्तफ़्सार (पूछताछ) पर उसने इस्मत को बताया कि उस पर भूतों का साया हो गया था जो उसके शौहर के वजूद में उठकर उसे वरग़लाते थे और वह अपनी सास की ठुकाई करती। यहां तक कि उसने एक दिन अपने शौहर की पिंडली में काट खाया। इस से सब पर उसकी दहशत बैठ गई। भूत उतारने वालों को बुलाया गया तो उन्होंने सास को मनहूस क़रार दिया और कहा कि  वह अगर उनके साथ रही तो मंगू सात लड़कियों को जन्म देगी और सारा ख़ानदान बरबाद हो जाएगा। सास बेचारी की शामत आ गई और मंगू का मियां उसे अपने साथ अपनी नई मुलाज़िमत पर डालीगंज ले गया।''

इस्मत इस मामले पर अपने रद्दे अमल का इज़हार बड़े मुअस्सर (असरदार) अंदाज़ में यूं करती हैं-

"तब मुझे मालूम हुआ कि मंगू जाहिल और अनपढ़ थी, बिलकुल अहमक़ न थी। अपनी बिसात भर जो कुछ कर सकती थी कर डाला। औरत कमज़ोर हो सकती है नाक़िस अक़्ल (कम अक़्ल) होना ज़रूरी नहीं। मेरे दिल से कुछ एहसास ए कमतरी निकल गया। लड़का होना ज़रूरी नहीं। लड़कों जैसी अक़्ल और सूझ बूझ चाहिए। फिर तो मैंने सीना पिरोना और सुघड़ापा धरा ताक़ पर और पढ़ने की तरफ मुतवज्जो हो गई।“

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