वही हड्डियां जमा देने वाली पूस की रात थी। हल्कू समय के साथ चलने की खातिर प्रेमचंद की कहानी से निकला और सिंघु बॉर्डर पर जाने की तैयारी करने लगा। #Farmerprotest से बेखबर था वह। हल्कू के पहनावे ने रास्ते में ही उसके किसान होने की चुगली कर दी। न जाने कौन सा इलाक़ा था जब पुलिस ने उसे बुरी तरह खदेड़ा। जान बचाने के लिए किन-किन गाँवों की गलियों से होकर गुज़रा। घिसी चप्पल, फटे कपड़े और उखड़ती साँसों की धौंकनी के बीच उसने खुद को संभाला।
आँखें विकास की चकाचौंध से मिचमिचा रही थीं। चिरकुट से हल्कू ने जब सामने सभ्य मानव को देखा तो दहल गया। गरजती हुई आवाज़ ने हल्कू से पूछा - 'क्या आंदोलन में जा रहे हो?' हल्कू को हलक से शब्दों का गुज़र मुमकिन ही नहीं लगा।
हल्कू की दहशत ने गरजती आवाज़ को और ख़ौफ़नाक बना दिया। 'जानते भी हो कौन लोग हैं वह? वह जींस पहनते हैं। पिज़्ज़ा खाते हैं। स्मार्ट फोन चलाते हैं। भरपूर जश्न मनाने के बाद आलीशान कैंप में आराम करते हैं। तुम तो किसान हो, जवाब दो! क्या किसान ऐसा होता है?'
जवाब के शब्द हल्कू की ज़ात में बचे ही नहीं थे मगर किसान की ऐसी कल्पना, जिसके कितने ही शब्द उसके कानों में पहली बार टकराये और सुन्न पड़ा दिमाग़ उन्हें समझ ही नहीं सका।
समझ आया तो इतना - 'तुम तो किसान हो जवाब दो क्या किसान ऐसा होता है ?' इस सवाल को नरमी से पूछा गया था और इस नरमी ने हल्कू को इतनी हिम्मत दी कि उससे गर्दन को न की जुम्बिश दे सका।
दहशत वाली आवाज़ और नरम पड़ी। 'वही तो मैं तुम्हे समझा रहा हूँ "मित्र "। तुम किसान हो। अन्नदाता हो और वही बने रहो। किसान जब अन्नदाता है तो उसे इंसान बनने की क्या ज़रूरत?'
'ये सब इंसान बनने की कोशिश कर रहे हैं। इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा।' धीरे धीर हल्कू की समझ में इज़ाफ़ा होने लगा। अब वह स्थिर था। दहशत वाली आवाज़ की भी नरमी बढ़ चुकी थी। हल्कू के इस नन्हे से हौसले से दहशत वाली आवाज़ में अब नरमी के साथ उपदेशात्मक भाव दाखिल हो गया था। शिष्य बने हल्कू से उसने कहा -"खुद सोचो! जब मुर्ग़ी कभी अपने अंडे का दाम नहीं तय करती, बल्कि उसे तो ये भी नहीं पता कि इस अंडे को उबाला जायेगा, फ्राई किया जायेगा या बालों में लगाया जायेगा? बिलकुल वैसे ही जैसे मुर्ग़े और बकरे को नहीं मालुम की उनकी लागत क्या है? उनका सूप बनेगा या रोस्ट किये जायेंगे? कभी सोचा है जब एक मुर्ग़ी, एक मुर्ग़ा और एक बकरी, जानवर होकर एमएसपी की बात नहीं कर पाए तो तुम तो ठहरे अन्नदाता। क्यों तुच्छ मानव बनने की राह पर चल पड़े हो।
हल्कू गहरी सोंच में पड़ गया। उसे याद आ गया कि वो किसान है। वही असली किसान जिसके पास तो कम्बल भी नहीं था। वह चुपचाप उठा और मुंशी जी की कहानी में वापस चला गया।
वाह हल्कू के हालात ऐसे ही है, उसे शायद साबित करने में जनाना लग जाय।
जवाब देंहटाएंइसलिए अब हॉकी ने नया रूप लिया है उम्मीद करते है इसकी कामयाबी की।
हटाएंKya baat hai
जवाब देंहटाएंYour blog is awesome. It is an urge saying Halku not to go back.
जवाब देंहटाएंThere is a will there is a way.
Hope our Punjabi brother and whole nation will fulfill this dreem
हटाएंBeautiful..!!!
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंHope our Punjabi brother and whole nation will fulfill this dreem
जवाब देंहटाएंवाह क्या खूब हक़ बयानी की है...बहुत बढ़िया लिखा समीना
जवाब देंहटाएंवाह क्या खूब हक़ बयानी की है...बहुत बढ़िया लिखा समीना 👍👍
जवाब देंहटाएंshukria dost
हटाएंहल्कू की टीस ने सब ज़ाहिर कर दिया जो आज के हालात हैं।समीना दी 👏👏👏👏👏👏👏
जवाब देंहटाएंduniya halku koo halku hi dekhna chahti hai . uski tarakki bardasht nhi .
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