आज वही नक्खास है और ये ईद से एक दिन पहले की तस्वीरें। ईद का नक्खास से नाता भी बता दें आपको। जब रमज़ान का चाँद होता है उस रात से इस बाज़ार में दुकानें सज जाती हैं। उस दिन से ईद की चाँद रात तक ये बाज़ार पूरा महीना गुलज़ार रहता है। अकसर दुकानों में ताला लगने का कोई तुक नही बचता। ख़रीदारी के अलावा कितने लोग इन रौनक़ों के दीदार के लिए आते थे। हामिद के चिमटे से लेकर लखनऊ का फर्शी ग़रारा तक आपको यहाँ मिल जायेगा। टुंडे के कबाब पराठे और रहीम के क़ुलचे नहारी की महक कहाँ कहाँ से शौक़ीनों को खींच लाती थी मत पूछिए। चौक की इन पेचीदा गलियों में मौजूद बंगला कुर्ते पायजामे की खपत सारी दुनिया के मर्दों का तन ढक दे। चूड़ी, छल्ला, चोटी, चम्मच, कटोरी, फूलदान क्या नही होता था जिसकी ख्वाहिश आपको मायूस नही होने देगी। हर फुटपाथ, ठेले और स्टोर पर इन बुर्केवालियों का झुण्ड और उनकी ख़रीद फ़रोख़्त हर इतवार इस बाज़ार के सेंसेक्स को नई ऊंचाइयां देते रहे हैं। इसके बावजूद इन्हें गुज़रते टेम्पोवाले ने भी झिड़का है और फुटपाथ पर बैठे चिमटी छल्ला बेचने वालों ने भी फटकारा है। मगर ये झुण्ड के झुण्ड यहां की इन सुरंग जैसी गलियों से निकल कर आये और वापस इन्ही में समा गये।
बुर्केवालियां इस बाज़ार के हुजूम का सबसे बड़ा हिस्सा रही हैं। इन्होंने सबसे ज़्यादा जिस जज़्बे का सामना किया है वो बाक़ी दुनिया का इनसे नागवारी का रिश्ता। आजतक समझ नही आया कि इस नक़ाब से नफरत का रिश्ता कैसे फल फूल गया। फेमिनिस्ट बनाम बुर्का से हट कर देखें तो इस बुर्के ने बाक़ी दुनिया का उस नकाबपोश के साथ एक दरार का रोल निभाया है।
लॉकडाउन के चलते ईद के एक दिन पहले नक्खास के इस मंज़र ने उन बुर्केवालियों की याद ताज़ा कर दी जो इन बाज़ारो का हिस्सा होकर लखनऊ व्यापार मंडल के आंकड़ों में यहां की खरीदोफरोख्त को वो ऊंचाइयां दे गईं है जो कारोबार की रीढ़ रही है। ईद के एक दिन पहले नक्खास के इस सुनसान चौराहे को देखना एक ऐतिहासिक नज़ारे को देखना है। कम बजट में बड़े सलीक़े से अपना घर चलाने वाली इन नकाबपोश औरतों के भारतीय अर्थशास्त्र को दिए योगदान पर शायद कोई वैसा आंकड़ा न हो जैसा पिछले दिनों शराबियों और अर्थव्यस्था को लेकर सामने आया।
बुर्केवालियों कि ग़ैरमौजूदगी ने एक साल के अंदर एक बार फिर से इतिहास रच दिया। पिछ्ला इतिहास याद आया आपको! अगर नहीं तो हम याद दिला देते हैं। घंटाघर की वह बुर्केवालियां जो शाहीनबाग की बुर्केवालियों की तर्ज़ पर इसी साल इस संविधान की हिफाज़त के लिए मोर्चे पर डटी थीं। जी हां! आज उन्हें बुर्केवाली नहीं 'ब्लैक कमांडो' कहने का दिल कर रहा है।