शनिवार, 6 दिसंबर 2025

मत मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं...

लखनऊ इन दिनों अपने ख़ुमार के उरूज पर है। ख़ुमार है ज़ायक़े का। होना भी चाहिए। लखनवी ज़ायक़े और इनकी महक की शिद्दत को आखिरकार यूनेस्को ने भी महसूस किया। ज़ायक़ों की इस सदियों पुरानी तहज़ीब को उन 58 शहरों की फ़ेहरिस्त में जगह मिली, जिन्हें रचनात्मकता के लिए जाना जाता है। इस पायदान तक पहुंचने के लिए लखनऊ और यहां के हुनरमंदों के साथ दुनियाभर के उन शौक़ीनों को भी बधाई जो इस कामयाबी का हिस्सा बने।

इस चकाचौंध में एक पहलू और भी है जो गुम हो रहा है। सिर्फ़ ज़ायकों के नाम से पहचाना जाने वाला लखनऊ जिस वक़्त कामयाबी के पायदानों का सफ़र तय करते हुए ऊंचाइयों की तरफ बढ़ रहा था, ठीक उन्हीं दिनों में इस इलाक़े की बेशुमार ख़ूबियां नाकामयाबी के पायदान उतरती हुई गर्त में जा रही थीं। ज़ायक़े के इस स्टीकर ने कई ऐसी खूबियों को ढक लिया है, जिसने इस शहर को सांस धड़कन और परवाज़ दी थी। जहां की बोली ने इसे शहर-ए-सुख़न बनाया था और जहां की अदबी सर्गर्मियों ने इसे जंगे आज़ादी के वह ख़िताब दिए थे, जिनका अब शायद कोई नामलेवा भी न बचे।

पांच फिट से बड़े और पचास किलो से वज़नी जिस्म ने पांच सेंटीमीटर की जीभ के आगे हथियार डाल दिए। यूं कि हर नुक़सान से निगाह फेर ली और हर दलील को अनसुना कर दिया। यहां दिल और दिमाग़ दरकिनार तो नहीं हुए मगर इनके बीच मौजूद ज़बान ने दोनों को ही शिकस्त दे दी। शिकस्त इतने बड़े पैमाने पर हुई कि ज़माना ज़ायक़ों की ग़ुलाम हो गया। ज़ायक़े का नशा ऐसा चढ़ा कि न तो ग़ुलामी का एहसास रहा और न हीं इसकी बदौलत अदा होती कीमतों का। …और इस तरह बिना रीढ़ वाली जीभ की ख़्वाहिशों ने एक रीढ़दार को अपना ग़ुलाम बना लिया।

ज़ाहिर सी बात है कि यूनेस्को ने इस पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र किया होगा, इन पकवानों के चर्चे और क़िस्से सुने होंगे और दुनियाभर में इन ज़ायकों की दीवानगी भी देखी होगी। यह हक़ीक़त भी है कि पुराना लखनऊ आज की तारीख़ में सिर्फ एक फ़ूड हब बन कर रह गया है। यूनेस्को ने अगर इस शहर को अपनी फेहरिस्त में शामिल करके कोई ख़िताब दिया है तो यक़ीन कीजिए कि कोई एहसान नहीं किया है।

यह वही लखनऊ है जिसे शहर-ए-सुख़न का ख़िताब मिला। एक सदी भी नहीं बीती और यहां के रहने वालों ने बहुत कुछ भुला दिया। भुला दिया कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाने वाली पहली अदबी तंज़ीम का बीज इसी शहर में रोपा गया था। साल 1936 में लखनऊ के रिफ़ा-ए-आम क्लब में मुंशी प्रेमचंद ने उस जलसे की सदारत की थी जिसका विचार सज्जाद ज़हीर को 1935 में पेरिस के इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ़ राइटर्स फॉर डिफेंस ऑफ़ कल्चर से मिला था। इस अदबी तहरीक का मेनिफेस्टो मुल्क राज आनंद और सज्जाद ज़हीर लंदन में तैयार किया था। जो आज भी तरक़्क़ी पसंद अदब की बुनियाद है।

इत्र, केवड़ा, जावित्री, जायफल और कालीमिर्च में मदहोश यह पीढ़ी अपने इतिहास से कुछ ज़्यादा ही बेखबर है। थोड़ा और पहले नज़र डालें तो इतिहास इन मसालों से जुड़े कुछ और पन्ने खोलता है। जिस कालीमिर्च को देखकर हिन्दुस्तानियों के रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए, उस कालीमिर्च के फ्लेवर ने यहां हर किसी को मदमस्त कर रखा है। अमरीकी लेखक लैरी कॉलिन्स और फ़्रांसिसी लेखक डोमिनीक लापिएर ने अपनी किताब मिडनाइट फ्रीडम में इसी कालीमिर्च का ज़िक्र इस तरह किया है-

"हॉलैंड के समुद्री लुटेरों ने, जो मसालों के एकाधिकार पर वर्चस्व रखते थे, कालीमिर्च के दामों में अचानक एक पौंड के लिए पांच शिलिंग का इज़ाफ़ा कर दिया।

अंग्रेज़ों को यह बढ़ोत्तरी सख्त नागवार गुज़री।

15 सितंबर, 1599 की तारीख़ ढल रही थी। लंदन के 24 व्यापारी लेडनहॉल स्ट्रीट की एक खस्ता इमारत में जमा हुए। उन्होंने एक कंपनी क़ायम करने का फैसला किया, जिसकी शुरूआती पूंजी 72000 पौंड तय की गई। यह पूंजी 125 हिस्सेदारों को मिलकर जमा करनी थी।

इस संस्था का मक़सद मुनाफा कमाना था।

इस कंपनी ने तरक़्क़ी कर के हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों की हुकूमत क़ायम कर दी, जो पूंजीवाद का एक नमूना बन गई। जो किस्सा मुनाफे के शौक़ से शुरू हुआ था वह लूट-खसोट और जुल्म की एक दास्तान बन गई।"

...और इतिहास गवाह है कि इस मुल्क ने कालीमिर्च से कोहिनूर तक गवांने के साथ कई ऐसे ज़ख्म झेले हैं जिसकी टीस आज भी मौजूद है। इन सबके बावजूद भी इस खूबी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रवाद के नाम पर जिन क़ौमों को लड़ाने वालों ने अपनी पूरी ताक़त को झोंक दिया है, उसका जवाब उस मेज़बानी के दौरान बखूबी देखा जा सकता है जब इस फ़ूड हब में तिलक और टोपी हमज़ायक़ा बने किसी डिश का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं।

पुराने लखनऊ के इस फ़ूड हब के सर्फ एक किलोमीटर के दायरे का जायज़ा लें तो कई राज़ खुलते हैं। यहां के ज़ायकों का लुत्फ़ लेते लोग पूरब की तरफ अपना रुख करें तो वह जान सकेंगे कि इसी रिफ़ा-ए-आम क्लब से कुछ पहले मेडिकल चौराहे पर सुल्तानुल मदारिस की इमारत है। यह वही मदरसा है जहां से कैफ़ी आज़मी की ज़िंदगी की बग़ावत की शुरुआत हुई। इस फ़ूड हब के बाईं तरफ हिंदी का साहित्य अकादमी पाने वाले अमृतलाल नागर का मकान है और दाहिनी तरफ उर्दू के लिए साहित्य अकादमी हासिल करने वाले तरक्की पसंद अदीब नय्यर मसूद की रिहाइशगाह, अदबिस्तान है।

जिस कूचे की कगार पर यह फ़ूड हब आबाद है, उसे मीर बब्बर अली अनीस के नाम पर कूचा-ए-मीर अनीस कहा गया। उनका मकान और मक़बरा आज भी यहां मौजूद है। उनके अदब की क़द्र करने वाले दुनिया के किसी भी छोर से यहां आते हैं और उनके मक़बरे की ज़ियारत को अपनी ख़ुशक़िस्मती समझते हैं। इस कूचे से कुछ दूरी पर मिर्ज़ा दबीर दफ़न हैं। उर्दू अदब ने समकालीन रहे अनीस और दबीर का वह दौर भी देखा है ऐसा कि इनके चाहने वाले 'अनीसिया' और 'दबीरिया' नाम से जाने गए। फ़ूड हब के पश्चिम की तरफ है हकीमों वाली गली। हकीमों के पुश्तैनी क़ब्रिस्तान में दुनिया को लखनऊ का इतिहास बताने वाले अब्दुल हलीम शरर दफ़न हैं। इनकी लिखी गुज़िश्ता लखनऊ आज भी इस शहर का अहवाल सुनाने वाला बेहद खास और ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।

इसी हकीमों वाली गली का जंगे आज़ादी में यादगार रोल था। हकीम अब्दुल अज़ीज़ (1855–1911) के नाम से इस गली को शोहरत इस लिए मिली थी क्यूंकि उनके घराने के मर्द और औरतों ने जंगे आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। उनके पोते एम शकील ने इस रवायत को क़ायम रखा। शायद ही अब कोई इस बात पर शर्मिंदा होने वाला बचा हो कि जिस गली के गिर्द यह फ़ूड हब आबाद है, वह गली एम शकील के नाम पर है। एम शकील जो एक स्वंत्रता सेनानी, एक तरक़्क़ी पसंद लेखक, एक लीडर के अलावा मज़लूमों और मज़दूरों के रहनुमा रहे। इसी फ़ूड हब में नगर निगम द्वारा लगाया गया एम शकील रोड वाला पत्थर चूल्हे के धुंए की परतों में गुम हो गया है। हर दिन सड़क घेरती दुकानों ने इस पत्थर को धुंधला करने के साथ पीछे भी धकेल दिया है।

इस आंच और धुंए ने यहां सिर्फ गुज़रे हुए कल को ही नहीं गुम कर दिया बल्कि आने वाला कल भी खसारे में है। यहां रहने वाले लोकल लोगों को भी इस उपलब्धि पर फख्र ज़रूर है मगर इससे जुड़े दुखों की भी न पूछिए। इन दुखों की गिनती तो इतनी ज़्यादा है कि एक किताब लिखी जा सके, मगर अफ़सोस कि उस किताब को रखेंगे कहा! यह भी एक कड़ुवा सच है कि इस फ़ूड हब के आसपास क्या दूर-दराज़ तक कोई लाइब्रेरी नहीं है। यहां तो बस खाने के होटल खुलते हैं, वह भी इस रफ़्तार में कि सुबह उठो तो पता चलता है कि रातों-रात एक और होटल का इज़ाफ़ा हो गया। इन होटलों में आने वाली भीड़ ऐसी कि रात दो बजे भी यहां की सड़क पर ट्रैफिक जाम रोज़ की बात है। दुकाने सड़क की सिम्त बढ़ते हुए डिवाइडर तक पहुंचने को बेताब रहती हैं। भट्टियों ने इलाक़े की हरारत ऐसी बढ़ा दी है कि गुलाबी सर्दियां इधर का पता ही भूल गई हैं। बल्कि मौसम की ठंड भी अब यहां तक बहुत बाद में आती है और कहीं पहले रुख़सत हो जाती है। सांस लेने पर लगता है कि चिकनाई अंदर दाखिल हो रही है। खाने के शौक़ीन इन आने वालों का सिलसिला रात के दो-तीन बजे तक जारी रहता है। नतीजे में बाक़ी मार्केट भी देर रात तक खुलने और सुबह देर तक बंद रहने की आदी हो गई है।

इन बाज़ार से जुड़े घरों में रात तब होती है जब सूरज निकलने वाला होता है। तालीम के मामले में इस इलाक़े का पिछड़ापन अफसोसनाक और शर्मनाक है। यह समझ लीजिए कि मुर्ग़ और मछली के इस दस्तरख्वान ने तालीम को ही ढक दिया है। इन कामों में लगे ज़्यादातर छोटे दुकानदार या मज़दूर तबके के लिए रात-दिन पकवानों की दुकाने सजाने के फेर में तालीम हर बार दोयम दर्जे पर आ जाती है। फैसल मियां इसी इलाक़े में बेकरी की दुकान के मालिक हैं। उनसे बातचीत के दौरान जब पूछा कि बच्चे किन क्लासों में हैं तो जवाब मिला- "दुकान बंद करते-करते रात के दो बज जाते हैं। घर आकर खाना खाते और सोते सुबह के चार बजते हैं। बारह-एक बजे से पहले उठना ही नहीं हो पाता। बेटे का कुछ बरस पहले स्कूल में दाखिला कराया था मगर उसे पाबन्दी से भेज नहीं सके और अब तो वह इतना बड़ा हो गया है कि बेकरी पर बैठता है।" इस जवाब पर मेरा सवाल था- "आप तो होटल नहीं चलाते फिर देर रात का रूटीन क्यों अपनाया है?" उनका जवाब मिला- "अब तो सबका वही रूटीन है, जो इन होटलों का है। यहां साबुन बेचने वाला भी दो बजे रात तक अपनी दुकान इसलिए खोले रहता है कि कस्टमर आते रहते हैं।"

अब्दुल हलीम शरर ने गुज़िश्ता लखनऊ में जिन लखनवी पकवानों का ज़िक्र यह सोचकर किया होगा कि नवाबी दौर के ये क़िस्से इतिहास की किताबों में महफ़ूज़ कर दें, उन्हें क़तई अंदाजा भी नहीं होगा कि जो नवाबों को नसीब नहीं था उसका लुत्फ़ सदियों बाद की अवाम उठा सकेगी। नवाब तो बादाम के चावल और पिस्ते की दाल वाली खिचड़ी और छिंटाक भर चावल में सेर भर घी अपने बावर्चीखाने में बनवा लिया करते थे मगर ऑनलाइन की बदौलत यहां हर काउंटर पर मौजूद स्टाफ़ रात-दिन एक शीरमाल और हाफ प्लेट बिरयानी भी शहर के कोने-कोने में पहुंचाने का फ़र्ज़ निभा रहा है।  

नवाबी दौर के ज़ायकों के साथ अब इनमें आधुनिक दौर के खाने भीं शामिल हुए है। मगर इस इलाक़े में हंडिया के नाम पर क़ोरमा, नहारी, पुलाव, कबाब और रोटियों के नाम पर शीरमाल, कुलचे पराठे, तंदूरी जैसी अनगिनत क़िस्मों का बोल बाला है। शौकीनों की ख़्वाहिशों पर पूरा उतरने के लिए ये बावर्ची हर लगन और हर जतन कर डालते हैं। जवाब में शौक़ीन भी टूटकर अपनी मोहब्बत का इज़हार करते हैं और मंज़र यह होता है- "जान जाए लाख ख़राबी से, हाथ न हटे रकाबी से"। इस शौक़ में सेहत से विरासत तक दावं पर लग चुके हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि पुराना लखनऊ ज़ायकों का गढ़ है। पकवानों की महक से लबरेज़ यहां की फ़िज़ाएं इतनी काफिर हो चुकी हैं कि मज़बूत से मज़बूत इंसान का ईमान डोल जाए। यह महक जब भगोनों के ढक्कनों को चीरती हुई इंसानी नाक से गुज़रती है तो सुध-बुध का गुम जाना कोई बड़ी बात नहीं। मुंह में ख्वाहिशों का सलाइवा सैलाब की शक्ल में फूट पड़ता है और बेकाबू इंसान अपनी पसंद की डिश के आगे यूं सिर झुकाए मिलता है कि अगर निवाला अंदर न गया तो रूह बाहर आ जाएगी।     

यूनेस्को की मेहरबानी के बाद लखनऊ अब एक ऐसे ग्लोबल नेटवर्क का हिस्सा बन गया है, जिसमें सौ से ज़्यादा देशों के 408 शहर शामिल हैं। इस नेटवर्क में हर शहर को किसी न किसी क्रिएटिव फील्ड, मसलन क्राफ्ट, लोक-कला, डिज़ाइन, फ़िल्म, पाक-कला, साहित्य, मीडिया कला और संगीत में योगदान के लिए पहचाना गया है। इस वर्ष इसमें एक नया विषय ‘वास्तुकला भी जोड़ा गया है। ऐसे में लखनवी ज़ायक़ों की तासीर कहें या खुशबू का असर, लखनऊ और मुल्क के बाहर रहने वाले भी इन ज़ायकों की मोहब्बत में बड़ी दूर-दूर से सफ़र करते हुए यहां आते हैं। यहां आने वाले सैलानी कहीं और जाएं या न जाएं इस फ़ूड हब की ज़ियारत और यहां के ज़ायकों से इंसाफ किये बिना उनकी लखनऊ विज़िट अधूरी होती है।

यह भी एक अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि जिस समय में यूनेस्को लखनऊ को ज़ायक़ों की फेहरिस्त में जगह देता है उसी महीने आने वाली डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के 16 देशों व इलाक़ों में एक बड़ी आबादी के पास पेट भरने के लिए पर्याप्त खाना नहीं है। इनके अकाल के गर्त में धंसने का जोखिम गहराता जा रहा है। यह वही वक़्त है जब हमारी धरती जंग, क्लाइमेट और आर्थिक परेशानियों के ऐसे मकड़जाल में उलझी है जहां इस भुखमरी को टालने के लिए वक़्त हाथ से फिसलता जा रहा है।

माना कि हर दौर में ज़ायके की दुनिया सबसे दिलकश और इसका नशा सबसे आला रहा है। बंटवारे के बाद इब्ने इंशा की लिखी किताब 'खुमार-ए-गंदुम' ने बता दिया था कि गेहूं का नशा सबसे ऊपर है। बाज़ारों ने भी इस शौक़ को जाना और नाज़-नख़रा उठाते हुए पाल-पोस कर इस मुक़ाम तक लाया गया। इस परवरिश और इन मेहनतों के सदक़े आज इस शहर का यह रूप है, इस रूप में ज़ायक़े हैं, इन ज़ायक़ों के चाहने वालों का सैलाब है, इस सैलाब में गुम होती तमाम ऐसी रवायतें, जिनसे शायद किसी को कोई मतलब नहीं। इसी ज़ायक़े में गुम होता यहां के इलाक़ाई लोगों का आने वाला कल है। फिर भला कैसे कहें- 'मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं।'

 

 

 

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शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

पर्ची पर्चा पुलिंदा

 रुखसाना का चेहरा गुजरिया जैसा है। छोटे मगर फुर्तीले जिस्म की इस मालकिन की उम्र का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है। रंगत मैली होने के बावजूद गोरी चमड़ी का एहसास कराती है। बालों का रंग भी फीका ज़रूर पड़ा है मगर सिर की ऊँचाई से ज़रा नीचे गर्दन तक टिका जूड़ा चेहरे से कुछ ही छोटा है। टुकुर-टुकुर देखती आँखों में जितना कुछ समाता नहीं उससे ज़्यादा उसकी पटर-पटर करती ज़बान बयान कर डालती है। अपनी इलाक़ाई ज़बान में लखनवी अलफ़ाज़ को मिलाकर बोले गए जुमले को सुनने का मज़ा इसे समझने की ज़हमत से ज़्यादा होता है।

रुखसाना के सारे के सारे एहसास उसकी जीभ से जुड़े हैं। फिर चाहे वह जिस्म के भीतर के हों या बाहर के। गर्मी, सर्दी, बारिश, लू, आंधी, पुरवैया, पछियांव, देह झुलसाती हवा, हड्डी तक ठंड पहुँचाती हवा पर उसकी जानकारी और ज़िक्र हर दिन उसकी झेली गई तकलीफ़ों में होने वाले इज़ाफ़े का एहसास कराते हैं। रुखसाना की सूरत में चलता-फिरता यह मौसम विभाग, मौसम में हुए तोला-माशा बराबर फ़र्क़ की भी जानकारी मुहैया कराता रहता है। पारा अगर ज़र्रा बराबर भी ऊपर-नीचे हो रहा है, तो रुखसाना का बताना लाज़िम है और अगर यह पारा एक जगह पर थमा रहे तो भी उसकी ज़बान नहीं थमने वाली। इस थमी हरारत की रिपोर्टिंग भी बदस्तूर जारी रहेगी। गर्मी से उसे बैर ज़रा ज़्यादा ही है। इस मौसम में गर्म हवा के साथ तपते सूरज, सुलगते सामान, सूती कपड़ों के बग़ैर ज़िंदगी की सख़्तियाँ, ठंडे पानी की अहमियत, टंकी के खौलते पानी पर लानत भरी हाय-तौबा के बीच उसका सबसे बड़ा ग़म होता है कि गर्मी से कलाई में पड़े छाले के कारण चूड़ी पहन नहीं सकती और सुहागन होने की खातिर काँच की एक चूड़ी डालकर रस्म निभाने में उसने अपनी जान जैसे दाँव पर लगा दी हो।  

रुखसाना को अपनी सही उम्र नहीं पता। हालाँकि उसके पास आधार कार्ड है। कार्ड से मालूम होता है कि रुखसाना की उम्र तैंतीस बरस है। मगर रुखसाना का कहना है कि जब महजिद सहीद हुई थी तब वह बिना किसी सहारे चलती हुई घर की देहरी फांद कर अंदर-बाहर किया करती थी। कार्ड उसके मियाँ ने शादी के बाद किसी जुगाड़ से बनवाया है। कार्ड में उसका नाम लिखने के लिए आर ओ ओ के एच ए ए एस ए न ए की मदद ली गई है। जिसे पढ़ते वक़्त कोई हँस दे या इतना भी पूछ ले, “रू खा सा ना! यह कैसा नाम है?” तो तुनकता हुआ जवाब मिलता, “ई रहे हम और ई हमरा कारड, बाक़ी आप जानिए और तुहार डूटी।” इलाक़ाई भाषा से शुरू और ख़त्म हुए जवाब के बीच में लखनवी आपको सेट करते हुए जुमले का ख़ातमा भले ही हो जाता हो मगर ख़ुद को दिखाने के बाद उसकी उंगली कार्ड से होते हुए सामने वाले के आगे सवाल करते पंजे में ढल जाती और दायें-बायें लहराते इस हाथ की तीन उंगलियाँ जिस ताक़त से हथेली पर चिपकी होतीं उसी ऐठन से अंगूठा और उसके साथ वाली उंगली तनी रहती। चेहरे का भोलापन उसकी बात को बिगड़ने नहीं देता था और अस्पताल हो या बच्चों का स्कूल, रुखसाना के काम हो जाते थे। सरकारी काग़ज़ की अहमियत उसे पता थी इसलिए हर सरकारी काग़ज़ को वह बहुत संभाल कर रखती। इसमें मकान की रजिस्ट्री से लेकर अस्पताल के पर्चे, बच्चों के रिज़ल्ट सबकुछ उसके लिए जायदाद की हैसियत रखते।

अपने दम पर हासिल जानकारी ने उसकी शख्सियत में हिम्मत का इज़ाफ़ा कर दिया था। इन बुलंद हौसलों ने उसे ज़रा बेधड़क बना दिया था। हर छोटी-बड़ी बात पर अपनी राय देना उसकी पक्की आदत बनती गई। मसलन फलानी भाभी ने जो कुरता पहना है वह स्टोर पर साढ़े सात सौ का है और सेम टू सेम पटरा बाज़ार पर ढाई सौ का मिलता है। जहाँ ज़रूरत होती वह सीखे हुए अंग्रेज़ी लफ़्ज़ भी अपने जुमले में पिरोने की माहिर होती जा रही थी। बात क़ीमत बताने पर ख़त्म नहीं होती थी। धंधे की चालबाज़ियों पर उसका जानकारी देना जारी रहता, “कोई फरक नहीं होता है दोनों पीस में। वही कपड़ा एसी लगे स्टोर वाले डब्बा और पैकिंग के साथ कई गुना महँगा करके बेच देते हैं।” सिर पर तेल लगाने से पहले रुखसाना से मिलने वाली जानकारी, “बारिश के मौसम में नारियल का तेल लगाने से जुएँ पड़ जाते हैं।”

उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह तीन बच्चों की अम्मा है। बड़ी बेटी तेरह साल की है, छोटी दस बरस की है मगर दोनों पाँचवें में है। इन दोनों से छोटा बेटा आठ साल का है और चौथी में पढ़ रहा है। तीनों ही बच्चे ऑपरेशन से हुए थे। जैसे ही बेटा होने का उसे पता चला, तभी तय कर लिया था कि अब ऑपरेशन करा लेगी। मियाँ को पता चला तो पहले उसने जमकर कूटा और मज़हब की दुहाई देकर बोला कि आज से तेरे हाथ का पानी भी हराम है। तलाक़ देने की भी धमकी दी थी, मगर सुबह जब नशा उतरा तो सिर्फ नाराज़गी से ही काम चलाया और यह एहसास नहीं होने दिया कि रात जो कुछ बड़बोलापन किया था उसमें से कुछ भी करना उसकी औक़ात से बाहर है।

रुखसाना की सास उसके गाँव की थीं और दूर के रिश्ते में फूफी लगती थीं। शादी के बाद उनका आदमी जब उन्हें गाँव से लखनऊ लाया था तो के चांदी का वरक़ बनाने के एक कारखाने पर बैठता था। धीरे-धीरे काम कम हुआ तो फूफी ने इलाक़े की एक बेकरी में काम करना शुरू कर दिया। वह बड़ी-बड़ी नाँद में आधी बोरी आटा बड़ी ही फुर्ती से गूंथने में माहिर हो गई थीं। बड़े से टब के सामने खड़ी होकर पहले दुपट्टा एक कंधे से घुमाकर कमर पर घेरा बनाते हुए जकड़तीं फिर अपनी दोनों टांगें फैलातीं और कमर से नब्बे डिग्री पर झुक कर दोनों हाथ टब नुमा उस नाँद में डाल देतीं। इस टब में पहले से ही आटा, नमक, घी, जीरा या कलौंजी पड़ा होता। लम्बी पतली सास की काली डंडे जैसी कलाइयों में गज़ब की फुर्ती थी। उनके हाथ बड़ी ही रफ़्तार में आटे को गूंथना शुरू कर देते। सामने खड़ी औरत उसमे अंदाज़े से पानी डालती जाती। बीच-बीच में उनकी आवाज़ आती- 'अउर डार' या 'रुक-रुक-रुक…'। गीले आटे का कुछ हिस्सा कलाई के साथ चूड़ियों तक चिपकता जाता जिसे थोड़ी-थोड़ी देर में मसलते हुए वापस टब तक पहुँचा दिया जाता। जैसे-जैसे उनकी फुर्ती ने बेकरी में सिक्का जमाया, वैसे-वैसे उनके मरद की देह में ज़ंग लगता गया। बेकरी के काम ने फूफी को एक सबक़ भी सिखाया था। उसने बेकरी के साथ बाज़ार का बिस्कुट और ब्रेड लेना बंद कर दिया था। पहली बार जब आटे और पानी के बीच हाथ मारते हुए उसके हाथ में एक चूहा फँसा तो उसने ज़ोरदार चीख मारी। तब उसे डाँट के अलावा यह सबक़ भी मिला कि चूहे साफ करने बैठेंगे तो लागत निकलना मुमकिन नहीं। खाने का सामान बनता है इसलिए चूहे मार दवा रखने का कोई मतलब नहीं और चूहों की तादाद और कद इतना बड़ा है कि पिंजरा भी इसका हल नहीं। ऐसे में जिसे भी चूहा मिलता है वह दुम से पकड़ने की कोशिश के बाद उसे एक खाली कनस्तर में डालता जाता है और बाद में यह कनस्तर नाले किनारे जाकर खाली कर दिया जाता। फूफी नौकरी छोड़ नहीं सकती थीं इसलिए बेकरी का सामान लाना बंद कर दिया। बेरोज़गार फुफा भी नौकरी जैसी मजबूरी बने थे। निकम्मा ही सही दुनिया दिखावे के लिए मरद का भरम बड़ी चीज़ थी। हालाँकि उन्होंने शुरू में कुछ दिन रिक्शा चलाने का जतन किया मगर पालथी मार कर वरक़ ठोंकने की ऐसी आदत पड़ी थी कि रिक्शा चलाना रास नहीं आया। फ़ुर्सत में जो दोस्तियां मिलीं वह ठेकी तक ले गईं और दारू से याराना बढ़ता गया।

रुखसाना को दूर की फुफी सास बनकर भी बुरी नहीं लगीं। मायके के मुक़ाबले यहाँ ज़रा तंगी थी, मगर शहर की जगमग में रुखसाना ने उसका ज़्यादा ग़म नहीं मनाया। न मायके जैसी धूल-मिट्टी, न बिजली की लंबी कटौती। आंख खुलने के बाद सुबह दस बजे तक आता नल दोपहर में भी दो घंटा आता और शाम को पाँच बजे से आने के बाद उसके सोने तक तो नहीं जाता था। हैंडपंप और कुआँ उसे अज़ाब जैसा लगा और बहते नल ने यह एहसास दिलाया कि उसे किसी नेकी का बदला मिला है। मन ही मन कहा, 'अल्लाह तेरा शुकर है।' वहाँ जिस बाज़ार के दर्शन त्यौहार के वक़्त होते, वही बाज़ार अब घर से निकलते ही जो दिखाई देता तो कहीं खत्म होने का नाम नहीं लेता। रात में इसकी जगमग और मनमोहनी नज़र आती। पेटका टीवी से लेकर मोल आने वाला राशन, पिसे मसाले और चटोरपन के हर समय मुहैया साधनों में उसने अपने बचपन के घर को भुलाया भले ही न हो, धुंधला ज़रूर दिया था। फूफी के घर आने के बाद उसका जो दहेज यहाँ आया था, उसमें शरबत सेट, चाय का सेट और खाने का सेट था जिसके लिए फुफी ने पुरानी लकड़ी की अलमारी का इंतज़ाम कर दिया था। बहु-बेटे के कपड़े भी दहेज़ में आए बक्सों में सिमट गए थे। उसके हिस्से में स्लैब पड़ा जो कमरा आया उसमें अंदर की तरफ़ किया प्लास्टर और गहरा नीला रंग उसे बड़ा भला लगा। एक अदद पंखा भी और स्विच बोर्ड में ट्यूब लाइट के खटके के अलावा प्रेस और मोबाइल लगाने के लिए दो सर्किट भी। शहर की ज़िंदगी उसे सेटिंग और फिटिंग वाली नज़र आई। अम्मा के घर तो जैसे-जैसे ज़रूरत होती तार की एक डोरी झूल जाती। गुसुलखाना और लाटिन लफ़्ज़ भी उसने यही जाना और यह भी जाना कि अब वह देहाती से शहराती बन चुकी है। 

उसकी और सास की गृहस्ती उसे काफी नज़र आई। मिट्टी के चूल्हे से निजात मिल गई थी। सास के पास मौजूद एक बर्नर और छोटे सिलेंडर पर उसने चूल्हे की ज़िम्मेदारी साध ली। कुछ शीशियाँ, थोड़े प्लास्टिक के डिब्बे और थैलियों में रखे दाल मसाले काम के बाद समेट कर कमरे के बाहर बने किचन को समेटना उसने जल्दी ही सीख लिया। सिंगल ईंट वाले इस बरामदे की छत टीन की थी और आगे कुछ हिस्से में गुम्मे की बिना प्लास्टर वाली दीवार पर चूना पोत कर काई को ख़त्म कर दिया गया था। चार क़दम चलने भर के आँगन को हिफ़ाज़त देने के लिए दो पाट वाला लकड़ी का दरवाज़ा था मगर शुरू-शुरू में वहाँ तक उसका जाना ज़रा कम ही होता था। इस ज़रा से आँगन में सास ने दुपहरिया और मनीपलांट जैसे दो-तीन पौधे भी लगा रखे थे।  

आड़े-तिरछे बने बस्ती के घरों में दिनभर चिल्लपों, तेज़ आवाज़ के गाने और कभी-कभार लड़ने की आवाज़ें आम बात थीं। फूफी का ठीक-ठाक मेल-जोल था मगर घर के अंदर एक सितारन चची ही सबसे ज़्यादा आती थीं। शुरू में पास-पड़ोस की कुछ औरतें आईं मगर रस्मन ही। उसे बतियाने का शौक़ था और आमना, ज़ुबैदा से दोस्ती भी हो गई थी। बस्ती के घर भी मज़बूत कम और ख़स्ताहाल ज़्यादा थे। शायद ही किसी घर को पूरी तरह से प्लास्टर और रंग नसीब हुआ हो। इन घरों में रंग से ज़्यादा काई और प्लास्टर से ज़्यादा गुम्मे नज़र आते थे। किसी में लोहे के ज़ंग लगे दरवाज़े तो किसी में कबाड़ी से ख़रीदा गया लकड़ी का दरवाज़ा ऐसे फिट किया गया था कि पहले दरवाज़ा आ गया और बाद में उसके किनारे दीवार बना दी गई। छतों की भी कई वैरायटी इन घरों में देखने को मिलती। टट्टर पर बरसाती और उसे थामने के लिए टायर से लेकर लोहा-लंगड़ तक जमा होता जाता। आदमियों के ज़िम्मे अगर ठेला लगाने या मज़दूरी जैसे काम थे तो औरतें आस-पास के घरों में काम करने के अलावा भी कई तरह के छोटे-मोटे काम किया करतीं। इनमें गोटा बनाने, महाजन से कपड़े लेकर सीने और साड़ी की फ़ाल लगाने या दुपट्टों पर मुकेश डालने जैसे ढेरों काम थे। कब कौन किस काम को छोड़ दे और किसे पकड़ ले, बारहों महीने यह चलन में रहता। महाजन और मुलाज़िम में छुटी-छुट्टा भी सदा के लिए नहीं होती। कहीं काम की क़दर देख मालिक बुला लेता और कहीं मालिक की क़दर होने पर मुलाज़िम वापसी कर लेता।      

रुखसाना का क़द मियाँ के कंधे से भी चार अंगुल नीचे ही था। सास-ससुर की मौजूदगी में अच्छी गुज़री और पता ही नहीं चला कि मरद को ज़माने की ऊँच-नीच, रिश्ते-नाते और गुज़र-बसर जैसे तौर-तरीक़ों की न तो जानकारी थी न ही दिलचस्पी। खुद ही हँसते हुए बताता था कि अम्मा पढ़ा-लिखा कर राजा बाबू बनाना चाहती थी, मगर किताबों से उसे घबराहट होती। अम्मा जब तैयार करके स्कूल भेजती तो वह पतंगबाज़ी देखने निकल जाता। अपनी किताबों के पन्ने पलटने से ज़्यादा मज़ा उसे दूसरे की कनकैया को छुड़ाइयाँ देने में आया। क्लास तो एक भी न पार की, मगर छतें फांदने में उनका कोई जवाब नहीं था। साथियों ने भी यही बताया कि विरासत में मिला लंबा क़द शायद इसी काम के लिए है। अम्मा ज़्यादा दिन तक उसकी और मास्टरनी की मिन्नत न कर सकीं तो उसे एक परचून की दुकान पर रखवा दिया। इस बदलाव के साथ अम्मा को यह जानकारी मिली कि राजा बाबू को जब पैसा मिलता है तो अम्मा को देते ज़रूर हैं, मगर तब तक मांगते रहते हैं, जब तक रखाई गई रक़म से कहीं ज़्यादा न निकलवा लें। साथ ही हर तनख़्वाह के मिलते ही नौकरी छोड़ देने का शौक़ भी उजागर हुआ। अम्मा हर बार कम से कम मेहनत वाला काम तलाशतीं और राजा बाबू हर बार उन्हें मायूस करते। काम और आराम की इस जद्दोजहद में राजा बाबू बड़े होते गए और इस उम्र को आ गए कि अम्मा ने ब्याह की जुगत लगाई। गाँव से भतीजी यह सोचकर ब्याह लाई थीं कि बीवी-बच्चे होंगे तो ख़ुद ही ज़िम्मेदारी उठाएँगे। 

पहली पोती होने के बाद ही अम्मा को अंदाज़ा हो गया था कि उनका सिक्का ही खोटा है। अम्मा को एहसास होने लगा था कि उनके बाद उनकी किस्मत बहु के हाथों की लकीर बनने वाली है। बेटे से हार कर अब वह रुखसाना को नसीहतें देने लगीं। बहु के सर आने वाले बोझ ने उनकी नसीहतों और रवैये में नरमी बढ़ा दी थी। औरत की ज़िंदगी से जुड़ी तमाम कड़वी हक़ीक़तें बयान करने के बाद उनकी बातों का खात्मा इन अलफ़ाज़ पर होता, अल्लाह! तू जिस हाल में रखे, तेरा शुकर है। 

इस घर में सभी एक सी खुराक खाते थे मगर लकड़ी जैसे डील-डौल वाली फुफी की मज़बूत सेहत का अंदाज़ा तब हुआ जब दुबले-पतले ससुर ने दारू की बदौलत टीबी का रोग पाल लिया। बीमारी उनके जिस्म को इतना सुखा दिया था कि अच्छी ग़िज़ा के साथ दवा और दुआ भी काम आई। रोग ऐसा लाइलाज हुआ कि चार महीने में ज़िंदगी ने हार मान ली।

ससुर का इन्तिक़ाल हुआ तो मेहनती और दबंग रुखसाना की सास घर में मुखिया के ओहदे पर गईं। अंदर तक टूट गई सास ने मियां के ग़म को भीतर घोट कर बेटे-बहु और पोती पर ध्यान लगाया। कुछ दिन बेटा भी फ़रमाबरदार रहा मगर ज़्यादा दिन तक इस आदत को बनाए रख सका। बाप से जितना लगाव नहीं था उससे ज़्यादा यतीमी के एहसास को उसने ख़ुद पर हावी कर रखा था। अपनी कामचोरी की फितरत पर इस बेचारगी का मुलम्मा चढ़ाए उसने काम से फरार का रास्ता अपनाया। इस फरार में उसने भी दारू की पनाह ली।

शुरू-शुरू में कुछ दिन तक तो अम्मा का लिहाज़ किया मगर अब अम्मा भी कमज़ोर हो चुकी थीं। उनकी ख़ामोशी उसे हिम्मत देती गई। मियां के बाद बेटे के ग़म ने मां को ऐसा कमज़ोर किया कि इद्दत पूरी होने से पहले ही वह भी ससुर की राह निकल लीं। सास मुखिया जैसी ज़िंदगी ज़रूर गुज़ार रही थीं मगर उन्होंने परिवार में हमेशा इस बात का भरम बनाए रखा कि सबको ससुर का ही सहारा है। रुखसाना के लिए सास-ससुर दोनों ही सहारा थे जो उन मियां बीवी और पोती के लिए सरपरस्त की हैसियत रखते थे। जब तक ये दोनों थे रुखसाना को तमाम बखेड़ों से निजात मिली थी। उसे सौदे-पानी से मतलब था किसी और ज़िम्मेदारी से। बस खाना-पकाना, घर और बच्चा देखना। इससे आगे उसने कुछ जाना और ही जानना चाहा।

सिर से सास-ससुर का साया क्या हटा, क़िस्मत ने जैसे उसे रेगिस्तान में ला पटका। ऊपर दहकता सूरज और नीचे रेत में धंसते पांव। शौहर की ज़िम्मेदारियों से बेरुखी पर रोना चाहा तो बिलखती बच्ची और बढ़ती कंगाली ने रोने नहीं दिया। मायका याद तो आया मगर उसका कोई फ़ायदा नहीं था। अम्मा-अब्बा की ज़िंदगी में ही चचाज़ादों ने आंगन और कमरे-भर के मकान के साथ टुकड़ा-भर ज़मीन पर हक़ जमा लिया था। उसके बस में होता तो वह भी फुफी के बराबर किसी कब्र में समा जाती मगर इन बच्ची की खातिर यह भी कर सकी।   

सितारन चची! कहीं काम दिला दीजिए। अब कोई चारा नहीं बचा हैफुफी की मौत का हफ्ता भी नहीं बीता था जब उसे सितारन चची से यह कहना पड़ा। उसी शाम आमना, ज़ुबैदा और सितारन चची ने तय किया कि एकदम से बाहर भेजने के बजाए महाजन से काम लाकर देना बेहतर हल है। एक बार सिलसिला शुरू हुआ तो देखते ही देखते रुखसाना इस जीवन में रमती चली गई। एक मीटर लेस में नग लगाने के तीन रुपये वाला काम उसका पहला रोज़गार था। छोटी बच्ची के साथ पहले दिन दो मीटर लेस बनाने में ही जैसे उसकी कमर जवाब दे गई। ज़ुबैदा ने समझाया कि कुछ और इंतिज़ाम करते हैं तब तक इसे मत छोड़िए। इस बार सितारन चची टेलर की दुकान से वह कपड़े लाईं जिनमें बटन टांकने और काज बनाने का काम था। हाँ भी जी तोड़ मेहनत के बाद आमदनी इतनी कम थी कि किसी और काम की तलाश जारी रखी गई। अब रुखसाना दुपट्टों पर मुकेश(फ़र्दी)डालने में भी माहिर हो गई थी। मगर इनमें से कोई भी हुनर उसे पेट भरने से ज़्यादा कुछ दे सका।

बाहर निकलने का सोचती तो हौल जाती। किसी और के आगे काम के लिए गिड़गिड़ाने के बजाए उसने शौहर के आगे दुखड़ा रोना ज़्यादा मुनासिब समझा। जिस मरद को अनदेखा करने लगी थी उसके नखरे उठाने शुरू कर दिए। पसंद का खाना और खिदमत रंग लाती दिखी। शौहर को साधना इतना मुश्किल नहीं लगा जितना उसने सोचा था। राजा बाबू पटरी पर आते दिखे तो हौसला और बढ़ा। कभी बच्चे की मोहब्बत को जरिया बनाया तो कभी गरमा-गरम थाली का सहारा लिया। मरहूम फुफी-फूफा की भी दुहाई दी। राजा बाबू को ज़िम्मेदारी का एहसास होता मगर फितरत से मजबूर थे। किसी न किसी काम पर जाते, कुछ नोट कमाते और फिर थकान उन्हें ऐसा निढाल करती कि फिर फ़ाक़े की नौबत आ जाती। हफ्ते-पंद्रह दिन में दारू की ठेकी का भी एक चक्कर लगा लेते। वापस लौटते तो बहकते क़दम और शोर-शराबे से पूरे मोहल्ले को बता देते कि आज कहाँ से आए हैं। ज़िंदगी की पटरी पर चढ़ती-उतरती इस रेल के साथ दोनों तीन बच्चों वाले हो गए। इसका हल भी रुखसाना ने ही तलाशा और बड़ी ही ख़ामोशी से राजा बाबू की आइंदा आने वाली नस्ल पर पाबंदी लगाने का फ़ैसला कर लिया। अपनी ज़ख़्मी मर्दानगी पर मरहम लगाने राजा बाबू देसी दारू की ठेकी पहुँचे और जब वहाँ से घर वापसी हुई तो मज़हब के ठेकेदार बन चुके थे। बरस तो वह रुखसाना पर रहे थे मगर उनके उपदेश आस-पास के घरों तक सुने जा सकते थे, “बदज़ात! आज से तेरे हाथ का पानी भी हराम है। तूने अल्लाह के क़ानून में दखल दिया है और अल्लाह के कानून में दखल देने वाला जहन्नुमी होता है। तू मां नहीं क़ातिल है।” नींद के हवाले होने से पहले तक राजा बाबू बताते रहे कि उसके कर्मों से घर की बरकत चली जाएगी।        

नाराज़गी दूर होने में जितना वक़्त लगा उतने दिनों में रुखसाना को भी समझ आ गया कि अब बाहर निकले बिना चारा नहीं। सितारन चची के साथ बेकरी मालिक के घर पहुँची और अपना दुखड़ा कह सुनाया। यहाँ फुफी ने इतना मान कमाया था कि उसे काम तो मिला ही इस बात की इजाज़त भी मिल गई कि तीनों बच्चों के साथ आ सकती है। इस बार मियां से उसे ‘बेकही’ का खिताब ज़रूर मिला मगर उसके फ़ैसले के ख़िलाफ़ वह कुछ बोले नहीं।

बाहर काम क्या मिला रुखसाना ने जैसे रफ़्तार ही पकड़ ली थी। झाड़ू-पोछा, बर्तन की तनख्वाह वह रखती और और इस तनख्वाह की ख़ुशी का बोनस मालिक को मिलता। होता यह था कि काम के अलावा रुखसाना बड़ी ही खुशमिजाज़ी से कभी सब्ज़ी काट दी या कभी आटा माढ़ देती। कोई दिन बतियाते हुए वह पाव भर लहसुन छील डालती और किसी दिन आंगन में बिछा कर बड़ी भारी दरी धो लेती। जितनी देर काम चलता उतनी देर उसकी ज़बान भी जारी रहती। जिस मायके को भूल गई थी अब बात-बात में वहाँ के क़िस्से सुनाती। मामला उसकी समझ का हो या समझ से परे, रुखसाना का मशवरा सबके लिए फ़ौरन हाज़िर हो जाया करता। रुखसाना का एक और हुनर भी इस घर के लोगों ने देखा। बेकरी मालिक हाजी सत्तार की बीवी और बहु में भले ही अच्छे ताल्लुक़ न हों मगर रुखसाना का दोनों से ही हँसी-मज़ाक़ का ऐसा रिश्ता बन गया था कि अगर वह कुछ देर खामोश रह जाए तो इन दोनों में से कोई न कोई उसे बोलने के लिए छेड़ता। दो महीने के अंदर ही उसे बराबर वाले घर में उसी की शर्त पर नौकरी मिल गई। गरीब की एकलौती शर्त यही होती कि जहाँ भी काम करेगी उसके तीनों बच्चे साथ रहेंगे। इन सबके साथ उसने राजा बाबू पर की जाने वाली मेहनतें आज़माना नहीं छोड़ी थीं। दिन-भर चकरघिन्नी बनी रुखसाना ने फुफी के जिस जुमले को गांठ बांध लिया था, वह हर आधे पौने घंटे में उसके मुंह से अदा होता, “ऐ अल्लाह! तू जिस हाल में रखे, तेरा शुकर है।”  

जल्दी ही वह वक़्त भी आया कि काम उसके पास भरपूर था मगर वक़्त की किल्लत आड़े आती। उसके क़द्रदानों की लम्बी फेहरिस्त थी। उसकी बस्ती से कुछ ही दूर हाजी सत्तार के मोहल्ले में हर कोई चाहता कि रुखसाना उसके घर काम करे मगर उसने भी तय कर रखा था कि हाजी साहब का घर नहीं छोड़ेगी। नतीजा यह हुआ कि उसकी पूछ स्पेशल अपीयरेंस में होने लगी। अपने छोटे से मोबाईल को वह टुनटुना कहती और उसका यह टुनटुना खूब-खूब बजा करता। कहीं बर्थडे है तो उसे दो घंटे के लिए बुला लिया जाता या किसी के घर पुताई का काम लगा है तो रुखसाना की ज़रूरत महसूस की जाती। जैसे-जैसे रुखसाना का तजुर्बा बढ़ता उसी रफ़्तार में उसकी बातें और मशवरे बढ़ते जाते। इन बातों में आपबीती और जगबीती के बीच उसने इधर की उधर करने से परहेज़ किया। उसकी मांग को देखते हुए यह सयानापन उसे सितारन चची ने सिखाया था। ये ऐसे काम थे जिसका मेहनताना फ़ौरन मिल जाता। नतीजा यह हुआ कि अब रुखसाना मोहल्ले की चलती-फिरती ऑनलाइन सर्विस बन चुकी थी। वक़्त को साधते हुए अब रुखसाना फ़ोन पर काम सुनती और दिमाग़ में इन कामों की फेहरिस्त बनाती। आने वाले फ़ोन पर वह ख़ुशदिली से बात करती, वक़्त तय करती और इन कामों में ज़्यादातर को निपटाते हुए अपना मेहनताना वसूलती जाती।

रुखसाना के फ़ोन की कॉन्टेक्ट लिस्ट भी कम दिलचस्प नहीं थी। घरवालों का नाम जानने की उसने कभी ज़हमत नहीं की। हाजी साहब की बहु को पर्ची पर लिखा नंबर देती और उसे मोबाईल में चढ़ाने के लिए जो नाम देती वह ख़ुद रुखसाना के रखे होते। मसलन काली बिल्ली वाली, झबरी बिल्ली वाली, सुनारिन, बौना कुत्ता वाली, तोता वाली। एक बार सौतन वाली नाम लिखवाते हुए जब हाजी सत्तार की बहु ने लोट-पोट होती रुखसाना से सवाल किया, ऐसी ही हम लोगों का कोई नाम रखा होगा?” तो अपने दोनों हाथ उसने कानों तक लाकार जवाब दिया, तौबा-तौबा। हम नमाज़ नहीं पढ़ते मगर झूठ और चोरी भी नहीं करते। आप दोनों भाभी और चच्ची हैं। बाक़ी इन सारी भाभियों का नाम याद करने के बजाए ये सब नाम आसान पड़ते हैं।  

रुखसाना बिना रुके बोले जा रही थी, आप लोगों के बड़े एहसान हैं। आप और चच्ची कहतीं तो हम तो बच्चों को पढ़ाने का सोच भी पाते। मेरी तो झाड़ू-बर्तन के भरोसे गुज़र हो रही है मगर इनको अल्लाह कुछ बना दे तो उसका एहसान होगा

पिछले बरसों में जो बदला था वह यह कि अब रुखसाना खाने से ज़्यादा पढ़ाने के लिए मेहनत करती थी। बड़ी बिटिया को छोटी बेटी के साथ ही सरकारी स्कूल भेजती मगर लड़के को जिस स्कूल में डाला था वह ज़रा महंगा था। राजा बाबू के साथ इतना ताल-मेल बिठा लिया था कि अनाज सब्ज़ी का ज़िम्मा उनका और बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च रुखसाना के हिस्से। इन हालात के बीच रुखसाना ने अब जिस नई जिद का खूंटा मज़बूती से ठोका, वह था बच्चों को स्कूल भेजना। उसने तय कर लिया था कि जब तक शरीर में ता है, बच्चों की पढ़ाई पर इतनी मेहनत करनी है कि उसके बाद उसकी नस्ल में किसी को झूठन धोनी पड़े। जागती आँखों से देखे जाने वाले इस ख्वाब के लिए उसने अपनी हैसियत से ऊपर की ताबीरें तय की थीं।   

रिश्तेदार हमेशा रुखसाना के लिए मसला ही रहे। कोई इलाज के लिए शहर आए या शादी-ब्याह में बुलाए, दोनों ही हालात में रूटीन और बजट बिगड़ता। इस बार भी रुखसाना के ममेरे भाई का फ़ो राजा बाबू के नंबर पर आया तो उन्होंने उठाया नहीं। दो बरस पहले अपने इस साले से उन्होंने पांच सौ रुपया उधार लिया था जिसे वापस करने की नौबत ही नहीं आई। अब भाई का फ़ो बहन के पास आया और उन्होंने ख़ुशख़बरी दी कि भतीजी की शादी है, दो महीने बाद का न्योता भी दिया। इसके बाद वह असल मुद्दे पर आए। भाई ने रुखसाना समेत पांच और बहनों को फ़ोन करके यह बता दिया था कि आपस में तय कर लो कि सारी फुफियां क्या दे रही हैं और एक दो-रोज़ में उन्हें बर कर दी जाए ताकि दहेज के लिए बनाई गई लिस्ट से उन आइटम को काट कर बाक़ी लिस्ट बिरादरी में फिराइ जा सके।

शादी के नाम पर मिलने वाली यह दावत रुखसाना को ख़ुशी से ज़्यादा बोझ नज़र रही थी। अब उसे बच्चों की पढ़ाई में कोई भी अड़चन अच्छी नहीं लगती थी मगर जाना भी ज़रूरी था। कपड़े अगर ईद वाले ही चला लिए जाएं तो भी लड़की की शादी में देनी ही देनी थी, लेनी का तो सवाल ही नहीं उठता। फिर किराए के अलावा कुछ ऊपरी र्चे की रकम चाहिए ही। रुखसाना का सिर चकराने लगता। आज वह नहीं जाएगी तो कल उसके घर कौन आएगा, का ख़ौफ़ उसे हिसाब-किताब की जोड़-तोड़ में उलझाता और ख़िरकार बच्चों की पढ़ाई के नाम पर बची रक़म काम आती या फिर उधारी और ओवरटाइम की बदौलत इस रिश्तेदारी को पार लगाया जाता। पटरा बाज़ार से पांच सौ का फाइबर का डिनर सेट लेने में उसने जो जद्दोजहद की थी वह तो किसी खाते में भी नहीं आती। उधर भाई को उम्मीद थी कि पांच सौ का उधार दिया था तो कम से कम ब्योहार ही ज़रा भारी मिल जाता। भाई की दहेज़ की लिस्ट में डिनर सेट का नाम कटवाते हुए उनकी बेदिली को उसने महसूस किया, मगर कर क्या सकती थी।

जब-जब रुखसाना को लगता कि हालात काबू में हैं और सब कुछ ढर्रे पर आ रहा है, इसी बीच कभी दबे पांव और कभी धड़ल्ले से कोई न कोई आफत उससे चिपट जाती। उसने भी इन आफतों से छुटकारा पाने की क़सम खा रखी थी। हालात से जूझने की ताक़त उसे जिता तो देती मगर एक आफत से पार पाती तो दूसरी सामने खड़ी होती। बच्चों की बीमारी, चोट-चपेट के साथ क़र्ज़ लेने और तनख्वाह कटाने की जद्दोजहद जारी थी। हर काम को सरकारी नियम-क़ायदे से करते हुए सरकारी पर्चियों के पुलिंदे भी उसे बड़े अज़ीज़ थे। इन सरकारी पर्चों से जैसे उसे ताक़त मिलती थी। यही वजह थी कि हर परचा उसने सहेज कर रखा था और इसे बनवाने में कितनी ही मेहनत लगे वह कोताही नहीं करती। इन सबके बीच कब राजा बाबू पाबंदी से देसी दारू वाली ठेकी का रुख करने लगे, वह समझ ही न पाई। जब तक समझ आया, तो मामला समझने से बहुत आगे बढ़ गया और कलह, चीख़-पुकार बन कर पास-पड़ोस तक पहुँचने लगी। रुखसाना का काम और बच्चों की पढ़ाई पकड़ से छूटने लगे। एक रात राजा बाबू ने नशे की हालत में उसके साथ बच्चों को भी बहुत पीटा। सितारन चची के गले लग कर रुखसाना हिचकियों से रोई थी। पास बैठे तीनों बच्चे अभी तक सहमे हुए थे। चची समझा ही सकती थीं सो बोलीं, “अल्लाह तुम्हारी मुश्किल आसान करे और तुम्हारे आदमी को नशे की बीमारी से बचाए।”

चच्ची! अगर यह बीमारी है तो इसका इलाज भी होगा?” रोना भूल कर रुखसाना ने सवाल किया।

यह तो नहीं मालूम

मगर रुखसाना को रास्ता सूझ गया था। दर्द भूल कर उसने पड़ताल की और पता लगा लिया। यह दिन उसने जैसे चार बच्चों की परवरिश करते हुए गुज़ारे। ख़ुद से हाथ भर लंबे राजा बाबू को सेंटर ले जाना, उनको वक़्त पर दवा देना, इन सबके बीच मरीज़ की चिड़चिड़ाहट और फटकार झेलना और बचाकर रखी कमाई को इस आफत की भेंट चढ़ाना। एक हफ्ते में वह चार हज़ार ख़र्च हो गया जो उसने एक साल की मेहनत से जमा किया था। क़र्ज़ का एक नया हिसाब उसके खाते में बढ़ने लगा। मियां की तबियत ज़रा संभालती तो उसे लगता वह कामयाब हो गई और जहाँ नशे की बेचैनी असर दिखाती, रुखसाना की हिम्मतें जवाब देने लगतीं। तीनों बच्चों की उम्मीदें भी मां की कोशिशों से जुड़ जाया करतीं और उन्हें लगता कि एक बार फिर सब ठीक हो जाएगा। वक़्त पर खाना और स्कूल जाना फिर से मुमकिन हो सकेगा। आख़िरकार आज़माइश पूरी हुई और रुखसाना ने इस आफत को भी रौंद डाला। ज़िंदगी ढर्रे पर लौटी। पस्त हो चुकी रुखसाना ने एक बार फिर हर ग़म और थकान को दिल - दिमाग़ से झिटका और मुस्कुराते हुए बोली, “ऐ अल्लाह! तू जिस हाल में रखे, तेरा शुकर है।”    

आख़िर वह वक़्त भी आया जब उसने राजा बाबू को एक बार फिर से घर की ज़िम्मेदारियों का एहसास कराया। बीवी की बेतहाशा मेहनतों और ख़िदमतों के बोझ तले दबे राजा बाबू काम के लिए तो निकले मगर बीमारी के बाद काहिली में ऐसा इज़ाफ़ा हुआ कि वह मेहनत से बचाव के नए तरीक़े तलाशने लगे। इस बार नए काम की तलाश में वह रिज़वान कंट्रोल वाले के चेले बन गए। रिज़वान कोटेदार इलाक़े के पार्षद का चेला था। सरकारी राशन की दुकान पर मिला काम उन्हें समझ आया। राजा बाबू को अब यहाँ बैठ कर बीपीएल कार्ड वालों को ज़्यादा से ज़्यादा टालना होता था। राशन की लाइन लगने से पहले ही वह कार्ड और झोला लिए भीड़ को अगली तारीख़ देकर तितर-बितर करने में माहिर हो गए। राशन आ भी जाता तो अगले कई दिन तक पर्ची काटते और तय करते कि किस दिन कितने लोगों को राशन मिलेगा। वैसे तो कार्ड रखने वाले परिवार को हर मेंबर के हिसाब से दो किलो गेहूं, तीन किलो चावल के अलावा दाल, चीनी, तेल, नमक, मसाले, साबुन, चायपत्ती, और दूध पाउडर देने की भी घोषणा सरकार ने कर दी थी मगर राजा बाबू इतने शातिर हो गए थे कि गेहूं चावल देने में ही इतने चक्कर लगवा देते कि दाल-मसाले पूछने की नौबत ही नहीं आती। इनमें भी पहले बाज़ी वह लोग मारते थे जो ज़रा कुछ मुंहलगे या गन्दी ज़बान के साथ बवाल करने की ख़ूबी रखते।

गरीबों को मुफ्त राशन मुहैया कराने वाली प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना पूरे पांच साल के लिए जारी रहने वाली थी। राजा बाबू ने भी तय कर लिया था कि अगले पांच साल कहीं नहीं जाना है। कोटेदार की खिदमत करके उन्होंने जल्दी ही अपने मरे अम्मा-अब्बा के साथ रुखसाना के मां-बाप का नाम भी अपने कार्ड पर चढ़वा लिया। राशन की दुकान का सिस्टम पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक था। थम्ब इम्प्रेशन से पांच लोगों का नाम आता मगर राजा बाबू कार्ड पर चढ़े नामों के आधार पर नौ यूनिट के हक़दार थे। कंट्रोल के बाक़ी साथियों का भी अपना-अपना हिस्सा सेट था। इस हेरा-फेरी से जुड़े तमाम हथकंडे राज बाबू सीख गए थे। अनाज आने के बाद एक-एक बोरी पर इतना पानी छिड़क ही लिया जाता था कि हर बोरी पर पांच से सात किलो का वज़न बढ़ाया जा सके। दूसरा तरीक़ा डिजिटल था। सरकार की तर से कोटेदारों को डिजिटल तराज़ू दिए गए थे। कोटेदार इसका तोड़ निकाल चुके थे। बाज़ार में मात्र हज़ार रुपए में ऐसे तराज़ू गए थे जो रिमोट से ऑपरेट किए जाते हैं। सरकारी डिजिटल मशीन के साथ कोटेदार अपना तराजू सटाकर रखता। कार्ड के हिसाब से राशन की बोरियां पहले से ही तोल कर रखी रहती। करना यह होता है कि लाइन में लगे आदमी का ट्रांजिक्शन पूरा होते ही साथ रखे इलेक्ट्रानिक तराज़ू पर राशन तोला जाने लगता है और अब इस अनाज का वज़न कोटेदार के रहमो-करम पर होता है। वह चाहे तो आधा किलो की धांधली करे या चाहे तो दो किलो की। लेने वाले की निगाह तराजू की जिस रीडिंग पर होती है, जहाँ मीटर का सटीक नज़र आना और राशन का मिल जाना, कुछ सोचने झने लायक नहीं छोड़ता। एक और भी तरीक़ा था मगर इसे सबसे कम आज़माते थे। इसमें करना यह होता था कि राशन लेने वाले का थम्ब इम्प्रेशन लेने के बाद यह कह दिया जाता कि तुम्हारा इम्प्रेशन मशीन ले ही नहीं रही और उधर डिजिटल सिस्टम बताता कि अनाज सामने वाले को दिया जा चुका है। उस पर भी राजा बाबू का ग़म यह था कि बड़ा गुनाह वह करते हैं और बड़ा हिस्सा लेने के अलावा सरकार की तर से कोटेदार को नब्बे रुपए कुंतल के हिसाब से जो पैसा मिलता है वह अलग।

आदमी का पाबंदी से काम पर जाना रुखसाना को तरंग में ला देता। ख्यालों में वह अपनी दलिद्दरी को जैसे रौंदती चलती। इन दिनों आदमी ने भी अनाज के साथ बिजली के बिल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली थी। अनाज पर हाथ साफ़ करने के बाद उसमें इतनी हिम्मत आ गई थी कि कटिया डाल कर बिजली का इंतिज़ाम किया जा सके। रुखसाना को लगता कि उसकी कोई नेकी है जो मियां को यह काम मिला। उसको पता है कि पूरा महीना बीत जाता तब भी कंट्रोल से राशन नहीं मिल पाता था। मगर अब इतना राशन और इतने आइटम देखे तो सवाल कर बैठी-  

इस बार दुगना गेहूं चावल मिला है? और क्या दाल-मसाले भी मोल ले लिये?”

मोल काहे लेंगे? बस इतना समझ लो कि इस सरकार की कुर्सी किसी मेहरबान के पास हैराजा बाबू का जवाब मिला।

अब क्या सरकार ज़रूरत से ज़्यादा सामन बाँटने लगी है?”

ज़रूरत से ज़्यादा काहे देगी। वह तो जो लोग लेने नहीं पाते उनके हिस्से का बचा सामान अपनी तनख्वाह से रीदा है। इसे बाज़ार में बेच देंगे तो बढ़ कर पैसे मिल जाएंगे। मगर इसका डंका किसी से पीटने की ज़रूरत नहीं। हाँ काम करने की वजह से मिली हुई है यह सहूलियतराजा बाबू ने को उसे राज़ी करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।

घर में रखे इस सामान पर रुखसाना ने नज़र डाली तो उसे लगा बुज़ुर्ग सही कहते हैं कि बरकत मरद की ही कमाई में है। मगर वह बोली कुछ नहीं। अलबत्ता बच्चों की पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कुछ हल्का महसूस किया। इसके बावजूद दिल में एक भारीपन बना रहा। इस बोझ के कारण दिल में गर्दिश करते जो लफ़्ज़ आवाज़ से महरूम रहे वह थे, अल्लाह! तू जिस हाल में रखे, तेरा शुकर है

अनाज की इस रेल-पेल वाले माहौल का अभी दो महीना भी नहीं हुआ था कि एक दिन कंट्रोल से उठा बवाल उसके घर तक पहुंच गया। राशन कार्ड की स्क्रूटनी के साथ राजा बाबू की तलाश में आई टीम ने घर से अच्छा खासा राशन ज़ब्त कर लिया था। टीम ने राजा बाबू को कंट्रोल में ही दबोच लिया था।

उस रात न घर में खाना पका और न ही वह सारी रात सो सकी। रुखसाना के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि बस्ती वालों का सामना करे। फोन भी कई बार बजा मगर उठाने का दिल ही नहीं किया। आज उसके अंदर इतनी भी ताक़त नहीं बची कि बच्चों को स्कूल भेजे। सुबह हुई तो उसने पहले खुद को समेटा फिर डिब्बा-डिब्बी और अपनी रसोई। बच्चे भी साथ देने लगे। फटी आंखों से घर को देखते हुए रुखसाना ने सोचा कि कम से कम छत तो है सिर पर। इस छत और अपनी मेहनत के भरोसे उसने अपने फैसले को मज़बूती दी और पूरे एक दिन के बाद उसके खुश्क हो चुके मुंह से ये लफ्ज़ बरामद हुए-

"कल से सबका स्कूल जाएका है। पढ़ाई मा कौनो ढील की जरूरत नाही।''

रुखसाना ने यह भी कहा कि खाने के बाद वह काम पर जाएगी और तीनों अंदर बैठकर पढ़ाई करेंगे।

खाने के दौरान उसने गली में बढ़ते शोर को महसूस किया। तभी किसी ने इतनी ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया की पहले से ही सहमे घरवाले कुछ और ही सिमट गए। रुखसाना ने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोला तो एक सरकारी टीम के अलावा मोहल्ले वालों की भीड़ थी। राजा बाबू को अपनी ज़िंदगी से दरकिनार कर चुकी रुखसाना खुद को उससे जुड़ी किसी भी खबर को सुनने के लिए मज़बूत करने लगी। 

"हम लोग एलडीए से आए हैं। आपका मकान ग्रीन बेल्ट में आता है। विभाग की तरफ से एक महीने का नोटिस जारी किया गया है। आप लोगों को मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत दूसरी जगह मकान दिया जाएगा।"

उसे लगा कि जिस ज़मीन पर वह लहूलुहान खड़ी है, वह भी उसके पैरों से निकल रही है।

"दूसरा मकान? कौन देगा?"

"उधर जाकर बात कीजिए?"

रुखसाना उस तरफ लपकी, जिधर इशारा किया गया था। भीड़ को चीरती वह कागज़ का पुलिंदा लिए आदमी की तरफ बढ़ी। चारों तरफ जमा भीड़ से तरह-तरह की आवाज़ें आ रही थीं।

"...और रोज़गार तलाशने कहां जाएंगे?"

"सरकार से कहिए हम सब पर भी बुलडोज़र चढ़ा दे।"

"कोई मुफ्त में थोड़े ही मिल रहा है घर। हम लोग इतना पैसा कहां से लाएंगे?"

सारी हिम्मत बटोरते हुए रुखसाना ने लिस्ट वाले आदमी से सवाल किया-

"कहाँ मिलेगा नया मकान?"  

"कहीं नहीं। जवाब उसके पड़ोसी ने दिया था। "सबको नहीं मिलेगा मकान। इस लिस्ट में तुहारा मकान नंबर भी नहीं है।

आगे खिसकती भीड़ उसे अकेला छोड़ गई थी। बुदबुदाती आवाज़ में उस नाशुक्री के मुंह से निकलने वाले लफ्ज़ बहुत पास से ही सुने जा सकते थे- "कीड़े पड़ें ऐसे सिस्टम में।"

 

समीना खान     
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