सोमवार, 27 मई 2024

'सफ़र में इतिहास' संग जो महसूस किया

'सफर में इतिहास' हाथ में आई तो ख्यालात का एक न थमने वाला सफ़र साथ हो लिया। मेरे लिए इस किताब का अनुभव बड़ा ही दिलचस्प रहा। किताब के पलटते पन्नों के साथ इस दिलचस्पी में विस्तार होता गया जिसके नतीजे में ख़यालात की परवाज़ जैसे कई मैदानों और कई आसमानों के सफ़र कराती गई। इसमें कई काल थे, कई वंश थे, कई हुनर थे और हर ज़माने के अपने रीती-रिवाज और ज़बानें थीं।

हालांकि इतिहास के हवाले से सबसे सटीक पंक्तियां स्कॉटिश जीवविज्ञानी और समाजशास्त्री पैट्रिक गेडेस रच गए हैं। उनका कहना है- ''कभी-कभी रुककर सोचना और आश्चर्य करना दिलचस्प होता है कि जिस स्थान पर आप वर्तमान में हैं, वह अतीत में कैसा हुआ करता था, वहां किसने विचरण किया, वहां कौन काम करता था और इन दीवारों ने क्या क्या देखा है।''

मगर हमारे दौर का पाठक यानी होमो सेपियन्स इस ज़माने में अक़्ल के जिस उरूज पर है, वहां शांत मन एक न मयस्सर आने वाली शय है। मन की अशांति और इतिहास के इस सफ़र को साधने की भरपूर कोशिशों के बावजूद 'सफ़र में इतिहास' संग जो महसूस किया उसमें कुछ किरदार ख़ुद-बख़ुद दाख़िल होते गए। किताब पढ़ने के साथ एक समानांतर वार्तालाप और विचारों के सहयात्री अंत तक बने रहे। इनमे से कुछ का ज़िक्र करना चाहेंगे। 

किताब का शीर्षक, कवर पेज और प्रवेशिका पढ़ने तक मेरा यह ख़याल और मज़बूत हो गया था कि फॉरेस्ट गंप और टॉम हैंक्स से मुतास्सिर आमिर ख़ान को क्या ज़रूरत थी कि मुँह उठाकर बिना सोचे समझे निकल पड़ें और चार बरस से ज़्यादा चलते रहें, वह भी बिना मक़सद। 

इसके बरअक्स सफर में इतिहास की बात करें तो सवा दो सौ पन्नों की ये किताब महज़ आठ बरस में की गई कुछ यात्राओं की डायरीनुमा है जिसमें पहले पन्ने पर प्रोफ़ेसर नीलिमा पाण्डेय लिखती हैं- 'यात्राओं के दरमियान जनश्रुति, लोक परंपरा, पुराण, इतिहास और पुरातत्व का सानिध्य ज़रूरी होता है।' ठीक वैसे ही जैसे खुशवंत सिंह के बामक़सद सफ़र।

ऐसी बेशुमार पंक्तियाँ इस किताब के कई पन्नों पर दर्ज हैं जिन्हें एक बार पढ़ने के बाद दोबारा पढ़ने और अंडर लाइन किए जाने की ख़्वाहिश को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। 

मसलन-'महज़ जगहों से गुज़रना यात्राओं को कमतर करता है। यात्रा माने इतिहास से एकरूप हो जाना। इतिहास के गर्व और शर्म को दोनों हाथों से थाम लेना।' और इसी में यात्रा के लिए कहा गया है- ‘असल मुलाक़ात तो हम अपने आप से करते चलते हैं।' किताब की प्रवेशिका उस लिफ़ाफ़े की मानिंद है जो अंदर के मज़मून का हाल बयान कर जाती है। यक़ीनन इतिहास के गर्व और शर्म की बात करना बताता है कि किताब पूरी निष्पक्षता के साथ लिखी गई है। 

'सफ़र में इतिहास' में बारह अध्याय है और इनमें से ज़्यादातर बुद्ध के गिर्द परिक्रमा करते गुज़रते हैं। साल 2015 से 2023 के बीच किए गए इन सफ़र में जो कुछ लिखा गया है उसे तथ्यात्मक, दिलचस्प और शानदार बनाने वाली टूलकिट पाठक को न सिर्फ किताब से बांधकर रखती है बल्कि हर चैप्टर में पाठक को उस जगह के दीदार का न्योता देने की खूबी भी नज़र आती है। जी हाँ! इस टूल किट में शामिल है- इतिहास की विस्तृत और बारीक पकड़, स्याह को स्याह और सफ़ेद को सफ़ेद कहने की हिम्मत और भाषा पर बेहतरीन लगाम। हमेशा से एक धुंध और ग़ुबार में पाया जाने वाला इतिहास इस सफ़र और टूल किट के बहाने काफी शफ़्फ़ाफ़ नज़र आता है। 

सफ़र के दौरान इतिहास और वर्तमान के बीच तारतम्य बैठाते हुए कुछ कटाक्ष भी हमसफ़र हुए हैं जिनमें से कुछ का ज़िक्र किए बिना आगे बढ़ना ज़रा नाइंसाफी होगी। ‘यह वह मगध नहीं’ अध्याय में ‘गया से बोधगया’ शीर्षक के तहत पृष्ठ 37 पर दर्ज इबारत- "गया पितृ तीर्थ का प्रसिद्ध स्थल है। फल्गु नदी के किनारे बसे इस शहर की प्रसिद्धि विष्णु पद मंदिर से है। नदी तट पर स्थित मंदिर पण्डे, पुरोहितों का प्रिय ठीहा हैं। यहाँ स्वर्ग और नर्क की रस्साकशी में फंसा जनसमुदाय उनको रोज़गार मुहैया करवाता है। यजमान यहाँ आडम्बर और पाखंड की तनी हुई रस्सी पर भयग्रस्त क़दम साधे चलते हैं।"

या फिर इसी शीर्षक के तहत पृष्ठ संख्या 43 से - '...बनारस में मृत्यु का कारोबार प्रबल है जबकि गया में श्राद्ध का।"इसी पृष्ठ से- "देवलोक तो देवलोक पृथ्वीलोक के वासी भी आए दिन इंद्र को हैरान करते रहते हैं, इधर किसी तपस्वी ने आसान जमाया और उधर इंद्र का सिंहासन डोला।"

‘भोपाल से आगे... ‘अध्याय में ‘पुरखों का घर भीमबेटका’ शीर्षक में जिन औज़ारों की जानकारी दी गई है वह एक लाख से चालीस हज़ार वर्ष पुराने हैं और इस तरह मानव विकास के साथ औज़ार और चित्रकारी के विकास तक की झलक मिलती जाती है। 

इतिहास के साथ भूगोल की जानकारी विस्मृत करने वाली है जब ‘नवाबों का शहर भोपाल’ के सफ़र में ज़िक्र आता है- '…जहां से कुछ ही दूरी पर कर्क रेखा गुज़रती है।' इस मालूमात ने शाह अज़ीमबादी की याद दिला दी जिनकी मालूमात की कमी उन्हें मक़बूल कर गई थी, उनकी ही ज़ुबानी कुछ इस तरह -  

सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियां से सुनी
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम

मगर इस सफ़र में इब्तिदा और इंतिहा के साथ बहुत कुछ ऐसा था जिसने हैरान भी किया। मसलन पृष्ठ 77 पर 'कुशीनगर में एक दिन' शीर्षक के तहत बुद्ध और आनंद का वार्तालाप। "महापरिनिब्बान सुत्त में गौतम बुद्ध के अंतिम संस्कार से सम्बंधित सूचनाऐं दर्ज हैं। इसी सुत्त में हमें जानकारी मिलती है कि जब आनंद ने बुद्ध से यह जानना चाहा कि, 'उनका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए?' तो उन्होंने संक्षेप में उत्तर दिया, "जैसा चक्रवर्ती सम्राटों का होता है।" 

ज्ञान प्राप्ति के लिए राज-पाठ और परिवार का त्याग करने वाले बुद्ध का यह जवाब हैरान करने वाला लगा और एक बार ख़याल आया कि कहीं कुछ टाइपो एरर तो नहीं। आगे बढ़ने के लिए डनिंग-क्रूगर प्रभाव से बाहर निकलना बेहतर लगा ताकि बाक़ी के पन्ने पलटे जा सकें। 

क्योंकि इतिहास में इतिसिद्धम नहीं होता इस लिए इस पर ईमान लाना आसान नहीं, वह भी ऐसे युग में जब व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी का प्रोडक्शन अपने उरूज पर हो। जिन दिनों व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी नहीं थी तब भी इस विषय की गॉसिप की परवाज़ बड़ी लम्बी हुआ करती थी। हम में से ज़्यादातर का बचपन इस क़िस्से को सुनते बीता है कि शाहजहां ने ताजमहल बनाने वाले मज़दूरों के हाथ कटवा दिए थे।

जिन्होंने इतिहास को विषय की तरह चुना उनका पता नहीं मगर बाक़ियों के साथ यह क़िस्सा ताउम्र साथ चला और ज़रूरत पड़ने पर उसने इस दलील का भी सहारा भी लिया। 

इसलिए ‘सफ़र में इतिहास’ के पाठक को इस किताब और लेखिका का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। खासकर हिंदी पाठक को जिसके पास दुरुस्त इतिहास तक पहुंचने के विकल्प बहुत कम रह जाते हैं। ऐसे में किताब और भी प्रासंगिक हो जाती है जब इतिहास का अंड-बंड संस्करण और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की सप्लाई का सैलाब, सूनामी का रूप धार चुका हो। 

पत्रकारिता कहती है- ‘जो चल कर आए वह खबर नहीं’ और यही बात इतिहास के लिए भी लागू होनी चाहिए कि जो रात-दिन मुहैया कराया जाए उसका पाठक होने से कोरा रह जाना बेहतर है। सटीक से सटीक इतिहास की तलाश हिंदी पाठक को हमेशा मायूस करती है और नीलिमा पाण्डेय की यह किताब इस मायूसी को दरकिनार करने का ज़रिया बनती है। 

इस किताब को पढ़ते समय टेलीविजन की दुनिया से जुड़ी कुछ यादें भी मस्तिष्क पटल पर दोहराती गईं। किताब के शीर्षक ने कई ऐसे चेहरे सामने ला दिए जो खुद को बुद्धिजीवी वर्ग में रखने के माहिर रहे हैं। अपनी दलीलों में जिन्हे ये कहते सुना है- 'भई हम तो सिर्फ डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफिक चैनल ही देखते हैं। क्या कमाल की रिसर्च करते हैं ये अंग्रेज़, फोटोग्राफी का भी जवाब नहीं। एक बार इस चैनल की आदत पड़ जाए तो उसके बाद कोई इंडियन प्रोग्राम भाता नहीं।" 

यह किताब ऐसे लोगों के सिरहाने होनी चाहिए और एक से ज़्यादा बार पढ़ी जानी चाहिए। महज़ इस लिए नहीं कि इसमें सफ़र है, रिसर्च है, इतिहास और भूगोल है, वर्तमान है, भाषा है, मौसम है, रीति-रिवाज और साहित्य है, इसमें अगर धरोहरों को सहेजने का शुकराना तो उनसे ज़्यादती की आलोचना भी है, बल्कि इसे इस नज़रिए से भी पढ़ा जाना चाहिए कि इतिहास पर रिसर्च करने वाली एक घुमक्कड़ महिला की डायरी में उसके विषय से हटकर भी कितना कुछ दर्ज करने की खूबी हो सकती है।

इस किताब के साथ जिस एक कमी कों बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया है वह है इसमें मानचित्र का न होना। कई बार अपने सूबे या फिर देश के कुछ हिस्सों का इतिहास पढ़ते समय उसके भूगोल को जानने की ललक में नक़्शे की कमी बहुत खली। ऐसा लगा बीच में न सही अंत में ही अगर कुछ ऐसा इंतिज़ाम हो जाता तो जानकारी को जैसे मज़बूती मिल जाती। 

सफ़र में इतिहास पढ़ते समय आधुनिक इतिहास से एक बेहद अज़ीज़ चेहरा लगातार साथ रहा था। उसके ज़िक्र के साथ अपने इस सफ़र का समापन करना चाहेंगे-

मोहन दास करमचंद गांधी, देश या दुनिया के किसी भी हिस्से में होते और उन तक ये किताब पहुंचती तो इसे पढ़ने के बाद वह तीन चिट्ठियां लिखते। लखनऊ भेजे जाने वाले पहले पोस्टकार्ड पर लिखा होता- 'नीलिमा! तुम ईमानदार लेखिका हो। तुम्हारी रिसर्च और यात्रा ने इस किताब को लिखकर तुम्हारे होने का हक़ अदा कर दिया है। दूसरी अच्छी बात है तुम्हारी भाषा। यह वही भाषा है जिसकी मैं पैरवी करता हूं, हम सबकी हिंदुस्तानी भाषा। आगे भी ऐसी यात्राएं करती रहो और लिखती रहो। शुभकामना।" 

दूसरी चिट्ठी में वह सेतु प्रकाशन को धन्यवाद के साथ ताकीद भी करते कि इस मिशन को जारी रखना और तीसरी चिट्ठी में नेहरू को मुख़ातिब करते हुए कहते- 'अब तुम्हे चिंता करने की ज़रूरत नहीं। डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया के बाद भी न सिर्फ इतिहास रचा जाएगा बल्कि रिसर्च, ईमानदारी और तटस्थता के साथ रचा जाएगा।" 

(साभार- hindi.news18.com) 

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

अलल-टप

सीमा का कविता संग्रह "कितनी कम जगहें हैं" को आये काफी दिन गुज़र गए और कुछ भी सलीके से लिखने का मौक़ा नहीं मिला। फीलिंग जेलस से लेकर फीलिंग प्राउड या फीलिंग नॉस्टेल्जिया जैसा कुछ भी लिखने का इरादा नहीं। ... और लिखना भी है तो एक ही हल बचता है कि अलल-टप लिखा जाए। 

चलन के मुताबिक़ मेरी भी ख्वाहिश थी कि खिड़की, अलगनी या गमले से एक क़दम आगे बढ़ कर इस किताब का ज़रा आला दर्जे का फोटो शूट होना चाहिए। मेरी ख़्वाहिश ऐसी बेकाबू हुई कि चांद तलक चली गई। श्री हरिकोटा फ़ोन लगाया तो पता चला कि चंद्रयान-3 जा चुका है और 4 के जाने में अभी काफी वक़्त है। गोया चांद पर फोटोशूट मुमकिन नहीं। 

मंगल की सवारी की जानकारी लेना मुनासिब नहीं लगा क्योंकि साहित्य का चांद से रिश्ता समझ आता है, मंगल शनि के लिए तो पाठक हैं ही!

नासा कॉल करने की हिम्मत नहीं पड़ी। वह ज़रा 'छोटा मुंह बड़ी बात' जैसा लगा मगर पता नहीं कैसे नासा वालों को इत्तिला मिल गई कि हम चांद पर कुछ भेजना चाहते हैं। इसे कहते हैं टेक्नोलॉजी। वल्लाह ग़ालिब याद आ गए-

"देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है"

और नासा का कॉल चीख़ चीख़ कर कह रहा था-

"देखना तकनीक की लज़्ज़त कि जो हमने सोचा
नासा ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है" 

मेरी इतराहट लाज़िम थी। 'साइंस' की पहली सीढ़ी 'परिकल्पना' ही है। ग़ालिब का ख्याल और साइंसदानों की मशक़्क़त आज क्या गुल खिला चुकी थी। सात समंदर पार बैठे हमारे दिमाग़ को न सिर्फ़ नासा ने इस तकनीक की मदद से रीड कर डाला बल्कि फौरन से पेशतर हमें कॉल भी कर ली।

आइडिया उन्हें भी काफी यूनीक लगा, कहने लगे- ''आप किताब का साइज़ और वज़न भेज दीजिए हम कहीं न कहीं एडजस्ट करते हैं। किताब फ़ौरन भेज दी गई और वहां से इत्तिला भी आ गई कि आपको जल्दी ही जानकारी देंगे। 

संकोच के साथ हमने कीमत भी पूछ ली तो जवाब मिला कि साहित्य की क़ीमत कैसे लगा सकते हैं। ये तो हमारी धरती की साझी विरासत है। अब यह किसी राष्ट्र का नहीं बल्कि इस धरती का मामला है। मेरा-तेरा का तो सवाल ही नहीं उठता। इस दलील के बाद किसी सवाल की कोई गुंजाईश ही नहीं बची थी और हम बड़ी ही बेसब्री से इस इन्तिज़ार में थे कि जैसे ही चांद से 'कितनी कम जगहें हैं' की तस्वीर आएगी, हम भी रच-रच कर एक पोस्ट लिख डालेंगे। 

मगर मेरी ख़्वाहिश पर ग्रहण लग गया और बिन बुलाए मंगल और  शनि भारी पड़ गए। हुआ कुछ यूं कि किताब का वज़न लिया जाने लगा तो पता चला कि यह तो यान से भी ज़्यादा है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने ये सुना तो उनके कानों से धुंए निकल गए। आनन-फ़ानन इमरजेंसी मीटिंग बुलाई गई। बड़े-बड़े दिग्गज भी यह पता नहीं लगा सके की माजरा क्या है? ... और हम यह कर कर उन्हें छोटा महसूस नहीं कराना चाहते थे कि जनाब ये अलफ़ाज़ का नहीं विचारों का वज़न है जिसका धर्मकांटा अभी ईजाद नहीं हुआ है।

शनिवार, 13 जनवरी 2024

जल सहेलियां

शिखा श्रीवास्तव ने करीब ढाई दशक अखबार में काम किया। उस अखबार में जिसके एक से दो दर्जन पन्ने होते हैं। कई सारे एडिशन होते हैं और हर पन्ने की एक अलग दुनिया होती है। इस पूरा अरसा शिखा एक ही अखबार में रही। बेशक इस बीच कई पन्नों से उसका वास्ता पड़ा होगा। कभी फीचर तो कभी चुनाव की रिपोर्टिंग, कभी पॉलिटिकल रिपोर्टिंग और एनालिसिस तो कभी खालिस गिटपिट अंग्रेजी वाली बड़ी-बड़ी ग्लोबल कॉन्फ्रेंस, सेमिनार, सिम्पोज़ियम की ऑफ बीट रिपोर्टिंग। लगभग हर फील्ड की दिग्गज हस्तियों से बात-मुलाकात और साक्षात्कार। सूबे में कहीं भी कवरेज के लिए भेज दिए जाने पर एक्सक्लूसिव स्टोरीज़। खैर, इन सबके बीच अखबार वाले लेखन की पहली पारी पूरी हुई।


हर दिन बेशुमार अल्फ़ाज़ और विचारों के साथ काम करते हुए कुछ ऐसा था, जो करना रह गया था। फिर वह वक़्त आया जब इस 'कुछ' को करने का मौक़ा निकाला गया। लेखन की इस दूसरी पारी में शिखा एस ने इस क़र्ज़ को अदा करने की कोशिश की और इस कोशिश के नतीजे में सामने आयी उसकी किताब 'जल सहेलियां'।

अभी शिखा एस की किताब को पढ़ा नहीं है इसलिए कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। मगर इस बुक लॉन्च में जाना भी एक गज़ब का तजुर्बा रहा। एक जनवादी की नज़र में ये बुक लॉन्च बड़ा ही भव्य था, मगर इसकी भव्यता की जगमग में जो हाइलाइट हो रहा था वह थीं 'जल सहेलियां'। 

इन ज़मीनी हस्तियों के साथ लोकशाही, राजशाही और मीडिया के दिग्गजों का डेडली कॉम्बिनेशन भी पहली बार देखा। पहली बार देखा, इन जल सहेलियों के संघर्षों को सामने लाने के तमाम प्रयास। इसमें शिखा से राज कुमार सिंह जी की बातचीत, अरशाना के नवीन जोशी सर और पार्थ सारथी सेन के हवाले से किताब के कंटेंट की चीरफाड़,  प्रीती चौधरी जी ने तो बीच में आकर श्रोता और जल सहेलियों के बीच की दीवार ही हटा दी। अरशाना की किस्सगोई कमाल की थी। किस्सों ने इन संघर्षों का इतिहास और भूगोल सब सामने ला दिया था। हमें भी आशुतोष मिश्रा के साथ किताब के कुछ अंश पढ़ने का मौक़ा मिला। पूरे कार्यक्रम की प्रमुख किरदार रहीं जल सहेलियां अपने लोकनृत्य के साथ शो स्टॉपर बनीं।

शिखा और सभी वालेंटियर्स को इस पूरे कार्यक्रम के लिए बधाई और शुभकामनाएं। ग्रे पैरट पब्लिशर्स को ख़ास शुभकामनाएं मगर उससे भी एक डिग्री ऊपर की शुभकामना टीम लीडर अविनाश जी को, जिन्होंने इस पूरे कार्यक्रम की सरपरस्ती की। एक बधाई इस बात की भी कि मेरी शिखा और अविनाश सर की दोस्ती चौथाई सदी पुरानी हो चुकी है।

शनिवार, 4 नवंबर 2023

राकिया की अम्मा

माहौल में बसी सीलन पर लोबान की महक और धुआं हावी होने लगा था। डबलबेड से कुछ बड़े उस कमरे में एक ही दरवाज़ा था, जिसे मोहल्लेवालियां अंदर आने और बाहर निकलने के लिए इस्तेमाल कर रही थीं। कमरे की छत भी इतनी ऊंची थी कि औसत क़द की औरत उसे एड़ी उठाए बिना आसानी से छू सके। दरवाज़े वाली दीवार में एक खिड़की ज़रूर थी मगर एक दूसरे से सटी औरतों ने इसे पूरी तरह से सील कर दिया था। इस कमरे में बाहर से आने वाली रोशनी का कोई गुज़र नहीं था। दरवाज़े के सामने वाली दीवार मज़बूत होने के साथ अच्छे मसाले और रंग-रोग़न की मालिक रही होगी। इसी दीवार पर न जाने कितने वॉट का बल्ब था जिसकी रोशनी को उस पर जमी चिकटी मैल ने बहुत कमज़ोर कर दिया था। स्विच बोर्ड से बल्ब के होल्डर तक जाने वाले जिस तार में करंट दौड़ रहा था, उसपर चढ़े रबर से मोटी परत, धूल-मिटटी और मटमैले बारीक रेशों की थी। इस बल्ब को खोलने बंद करने वाला स्विच भी अपनी असली रंगत खोने के बाद एक कील के सहारे दीवार में झूल रहा था। 

 

बल्ब के नीचे इसी दीवार से सटी राकिया की अम्मा अपने आख़िरी सफ़र पर जाने की तैयारी पूरी कर चुकी थीं। यह पहला मौक़ा था जब उनके जानने वाले उन्हें इस तरह चार कंधों पर सवार देखेंगे। कभी किसी ने उन्हें अपने पैरों के अलावा किसी और सवारी का मोहताज नहीं पाया। उनकी हर ज़रूरत उसी दायरे में सिमटी हुई थी, जहाँ तक उनके क़दम पहुंच सकें। घर से गली, गली से सड़क और सड़क से चौराहा। इस चहलक़दमी की हर दूरी में उनकी जायज़ ज़रूरतें पूरी हो जातीं और किसी ने उन्हें इस सरहद के बाहर न तो जाते देखा और न कभी किसी से सुना।

ये मोहल्लेवालियां पहली ही बार इस कमरे की दहलीज़ में दाखिल हुई थीं। पहली ही बार राकिया की अम्मा बिना चश्मे के नज़र आई थीं और पहली बार ही उनके तन पर बिना जोड़-पेबंद वाला इतना साफ़-सफ़ेद पहनावा सबने देखा था। बस सुकून था जो हमेशा की तरह आज भी वैसे ही उनके चेहरे पर डटा हुआ था, रूह के निकल जाने के बावजूद।

नाक पर अपना आंचल या नक़ाब रखे इन औरतों के बैठने की जगह इस कमरे में नहीं थी। इस आने और जाने के बीच में कुछ देर रुकना, फुसफुसाहट के साथ एक जैसी बातों का दोहराना और फिर कमरे से बाहर आकर खुले में सांस लेने का सिलसिला ज़्यादा देर नहीं चला। मिट्टी उठाने की बात उठते ही अंदर मौजूद औरतें भी बाहर निकल आई थीं और गली में इस तरह से खड़ी हो गईं ताकि ज़यादा से ज़्यादा रास्ता दिया जा सके। इन हमदर्दी और तसल्ली वाले चेहरों में कोई आंख नम न थी। आपस में होने वाली सुगबुगाहटें मिट्टी उठने के साथ तेज़ आवाज़ वाले कलमे में बदलने लगीं और 'ला इलाहा इल्लल्लाह…’ के साथ आख़िरी सफ़र की रूहानियत का समां खुद-ब-खुद बनाता चला गया। जैसे-जैसे मिट्टी आगे बढ़ी, कलमे की आवाज़े धीमी होती हुई सुगबुगाहटों में तब्दील होने लगीं।

‘'बेचारी की मुश्किल आसान हुई।‘', ‘'बेचारी का कोई सगा नहीं था।‘', ‘’नेक औरत थी। पूरी उम्र मेहनत और हलाल की कमाई खाई। क्या मजाल जो किसी के आगे हाथ फैलाया हो।‘', ‘'बेचारी का हुनर भी चला गया मनो मिट्टी में!’'

चालीस बरस पहले जब राकिया के अब्बा ने दम तोड़ा था तो इसी जगह बनी उनकी टट्टर और टीन वाली झोपड़ी के अलावा एक पुराना रिक्शा उनकी मिलकियत हुआ करती थी। इस हाथ वाले रिक्शे पर राकिया के अब्बा दिनभर सवारी ढोते थे और राकिया की अम्मा दुलाइयां सीती थीं। कोई नहीं जानता कि राकिया उनके बेटे का नाम था या बेटी का? राकिया की पैदाइश और मौत का भी किसी को पता नहीं था। राकिया के नाम से ये दोनों मियां बीवी ऐसे बंध गए थे कि अपने नाम को भी भुला बैठे।

मोहल्ले में आबाद नस्ल ने जबसे होश संभाला था, इन दोनों को पक्की उम्र का देखा था। जब राकिया के अब्बा मरे थे, तब चेहरे की झुर्रियां और सफ़ेद बाल उनके बुढ़ापे की निशानियां बनकर उभर चुकी थीं। किसी को भी नहीं याद था कि उनकी मौत किस बहाने से आई थी। बताते हैं कि राकिया की अम्मा अकेली रह गई थीं और कुछ दिन पास-पड़ोस से खाना आता रहा फिर उन्होंने अपने आपको समेटा और उसी काम में खुद को खपा दिया, जो उन्हें आता था।

राकिया के अब्बा की मौत पर गली के जिन बच्चों ने राकिया की अम्मा को देखा था, आज उनकी क़लमें सफ़ेद हो चुकी हैं और दुनिया भर की चकल्लस से किनाराकशी के बाद अपने काम के अलावा अब उन्हें मस्जिद के रुख़ पर जाता देखा जा सकता है। उस दौर की बच्चियां भी अब उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां बहु और दामाद की तलाश रहती है। इस अरसे में राकिया की अम्मा में भी बड़े बदलाव आए। पता नहीं उम्र का तक़ाज़ा था या हुनर की देन, बरसों पहले ही उन्होंने झुककर चलना शुरू कर दिया था। क़द औसत से कुछ छोटा ही था। तपे हुए जस्ते जैसी खाल पर इक्का-दुक्का चेचक के दाग़ नज़र जाते थे। गोल चेहरे पर छोटी सी नाक, जिस पर हमेशा चश्मा अटका रहता। बहुत चौड़े फ्रेम वाला काला चश्मा और उसके मोटे-मोटे लेंस। पिछले कुछ बरसों से इस चश्मे की डंडियां नज़र नहीं आती थीं। उन पर डोरे की घेरेबंदी भी मटमैली होकर सख्त प्लास्टर की तरह टूटी कमानी को जोड़ने का काम करती थी। नाक के हिस्से पर भी की गई इस घरेलू मरम्मत ने एक शीशा ज़रा ऊंचा कर दिया था। सामने देखने के लिए जब राकिया की अम्मा चेहरा उठातीं तो लेंस सीधे करने की कोशिश में चेहरा एक तरफ झुक जाया करता था। मगर उन्हें निगाह साध लेने का हुनर भी ही गया था। बहुत सफ़ाई के बावजूद भी चश्मे के कांच पर फ़्रेम के किनारों से जमने वाली धूल धीरे-धीरे लेंस का काफ़ी हिस्सा घेर चुकी थी। इस नाकाफ़ी सफ़ाई ने लेंस का इतना हिस्सा अभी भी साफ़ रखा था कि राकिया की अम्मा दूरबीन की तरह दोनों पुतलियों से देखने का काम ले ही लेती थीं।

वैसे तो कभी किसी ने उनका चश्मा उतरा नहीं देखा था मगर जाने क्यों एक डोरी दोनों डंडियों के साथ उनकी गर्दन में पड़ी रहती थी। डोरी देखकर यूं लगता था कि शायद इसे डाल कर भूल गई हों। अपनी ज़ात से कुछ ज़्यादा ही बेपरवाह थीं राकिया की अम्मा। गर्मियों में ही रोज़ नहाना नहीं होता था। बाल सवारने की आदत भी नहीं थी। जिस दिन नहातीं तो बालों को इतनी ज़ोर से खींचकर चुटिया बनातीं कि भवें तक खिंच जाया करती थीं। धीरे-धीरे ये बाल चोटी की पकड़ से आज़ाद होते और फिर अगले कई दिनों तक बिखरते चले जाते। ये रूखे बाल कंघे के मोहताज नहीं थे। हवा का रुख़ या राकिया की अम्मा की हथेली इन्हे जिधर समेट दें, ये उधर के होकर रह जाते थे। तब-तक जब-तक अगली बार सिर धुल जाए। अकसर नहाने का मौक़ा आता और सारे बाल रिबन की गिरफ़्त से आज़ाद होकर पतली सी चोटी का वजूद ही ख़त्म कर देते तो एक बार फिर से राकिया की अम्मा अपनी इन लटों को समेटकर धागे की नलकी जैसा जो जूड़ा लपेटना शुरू करतीं तो जाने उनका हाथ कितने चक्कर घूमता चला जाता और वह लट के आख़िरी बाल को भी लपेटकर ही दम लेतीं।

दरवाज़े के पास से भीड़ छटने लगी थी। आस-पड़ोस के लोगों का ग़म भी धीरे-धीरे छटने लगा। किसी ने आगे बढ़कर दरवाज़ा बंद कर दिया था। कुछ ही देर में गली अपने मामूल पर गई। लोबान भी बेअसर हो चुकी थी। जल्दी ही मलकुलमौत के इस इलाक़े से गुज़रने के सारे सबूत मिट गए। बंद दरवाज़े वाले इस धुंधले कमरे में कोई रोने वाला भी नहीं बचा था। अगर होता तो पड़ोसी अगले तीन रोज़ तक इस घर का चूल्हा जलने देते। मय्यत वाले घर में अगले तीन दिनों तक खाना कहां पकता है! हमसाये और रिश्तेदारों की ज़िम्मेदारी होती है कि पाबन्दी से चाय और खाने का इंतिज़ाम करवाएं। मगर मरहूमा बड़ी ख़ुद्दार निकलीं। मरने के बाद पड़ोसियों को इस ज़िम्मेदारी से भी बचा गईं।

 

उस रात मय्यत वाले घर का मटमैली रोशनी वाला बल्ब और दरवाज़ा दोनों ही बंद थे मगर गली की तेज़ रोशनी ने इस एहसास को भी हावी होने दिया। राकिया की अम्मा और उनका हुनर मनो मिट्टी में दब चुका था। वही हुनर जिससे वह ख़ुद बेख़बर थीं। राकिया की अम्मा को दुलाइयां बनाने की बड़ी ही बारीक जानकारी थी। नवाबों की जड़ावल हुआ करती थी ये दुलाइयां। अपनी ज़िंदगी में उन्होंने हज़ारों दुलाइयां बनाई होंगी और सैकड़ों की मरमत की होगी।

कुछ बरसों बाद शायद ही कोई जान सके कि दुलाई नाम से कोई जड़ावल होती थी जो गुलाबी सर्दियों में ओढ़ी जाती थी। यह नवाबों का शौक़ था और उनके ख़त्म हो जाने के बाद भी राकिया की अम्मा की उम्र तक खिंचा चला आया। अब इस इलाक़े और शहर क्या शायद दुनिया में भी कोई दुलाई बनाने वाला बचा होगा।

राकिया की अम्मा अपने घर में दुलाई बना रही हों या किसी और के आंगन में, उस जगह को गुलज़ार कर दिया करती थीं। ज़्यादातर ख़ामोश रहने वाली राकिया की अम्मा जहां जातीं वहां पहले पोछा लगवाकर बड़ी सी जाज़िम बिछवा लेतीं। फ़र्श अगर बहुत साफ़ है तो उन्हें कुछ बिछाने की भी ज़रूरत नहीं महसूस होती और पोछे के सूखने के बाद उनका रंग-बिरंगा संसार उस आंगन में फैलता चला जाता। अस्तर, रुई, उपल्ला, गोट, कैंची, सुई-धागा और राकिया की अम्मा का हुनर। सबसे पहले दुलाई का अस्तर बिछातीं, फिर इस पर रुई की तह लगाती चली जातीं। कभी रुई धुनी हुई मिल जाती और कभी बंडल वाली। अब तो कभी-कभी लोग फ़ाइबर वाली रुई की बनी-बनाई शीट भी ले आया करते थे। फिर इस पर उपल्ला (कपड़े की ऊपरी परत) बिछातीं। जाली वाली दुलाई के लिए जाली से पहले अस्तर लगता। उपल्ले के किनारे गोट लगाईं जाती। इस गोट की ख़ूबी इसका औरेबी होना होता था। यानी कपड़ा सीधा-सीधा काट कर अगर बॉर्डर बना दिया तो क्या कमाल किया? ख़ूबी तो तब है कि बॉर्डर का कपड़ा बेड़ा कटा हो और चारों कोने बिलकुल तराशे हुए सधे नज़र आएं। तब ही लखनव्वा दुलाई की ख़ूबसूरती परवान चढ़ती है।

ज़रा अंदाज़ा लगाइए, लखनव्वा दुलाई का एक कोना जब इतनी मेहनत मांगता है तो इस जड़ावल का शौक़ नवाबों के बस का ही हो सकता है। लखनव्वा दुलाई बनाते वक़्त ऊपर-नीचे की इन तहों में पांच से सात परतें बिछाई जाती थीं। राकिया की अम्मा औरेबी गोट को सुई धागे से इतना बारीक सीतीं थीं कि उसके आगे मशीन की सिलाई फेल हो जाए। इनके पास नापने वाला फीता कभी किसी ने नहीं देखा। छोटी उंगली से अंगूठे तक की दूरी वाला बालिश्त और छोटी उंगली से शहादत वाली उंगली तक एक से चार अंगुल। बस यही उनकी पैमाइश के औज़ार थे। उम्रभर की इस मशक़्क़त ने उनकी नज़रों में एक नज़र आने वाला पैमाना भी सेट कर दिया था। चश्मे के पीछे से उनकी नज़रें इस नाप-जोख को बख़ूबी समझ कर ज़ेहन की किताब में गुणा-भाग कर लेतीं और इस तराश-ख़राश के बाद जो नतीजा सामने आता, उसमे तो कपड़े पर कोई शिकन होती और ही इस पूरी कारीगरी में दुलाई पर कोई खिंचाव नज़र आता। 

निचले अस्तर से ऊपरी परत तक, गोट और सजावटी सामान के साथ जब सारीं तहें बिछ जातीं तो शुरू होता था राकिया की अम्मा का इस दुलाई के चारो तरफ़ किया जाने वाला तवाफ़ (परिक्रमा) उस वक़्त तो राकिया की अम्मा ज़मीन बन जातीं और उनके सामने बिछी दुलाई सूरज। फिर वह इस सूरज के चक्कर लगाना शुरू करतीं और तब तक लगाती जातीं जब तक पूरी दुलाई के हर कपड़े को कच्ची सिलाई से जकड़ दें। इस तवाफ़ की शुरुआत से पहले की तैयारी कुछ यूं होती थी कि बाएं पैर का घुटना मुड़कर ठुड्डी के करीब जाता और दाहिने हाथ में चुटकी की मदद से सुई संभाल लेतीं। गज़भर तागे वाली एक और सुई भी अपने नंबर के इन्तिज़ार में दुलाई के बीचोबीच जैसे मोर्चा संभाले नज़र आती थी। दाहिना पैर इस तरह मुड़ता कि घुटना ज़मीन से लग जाता। बाएं पैर का तलवा ज़मीन पर और दाहिने पैर का तलवा बाएं पैर से लगा हुआ। बाएं हाथ से कपड़े की सिलवटें हटातीं और दाहिने हाथ की चुटकी में थमी सुई इन परतों को नन्हे-नन्हे टांकों से जकड़ती आगे बढ़ने लगती। दुलाई की डगर और सुई तागे का सफ़र। राकिया की अम्मा इस सफ़र में ऐसा खोतीं कि सारी दुनिया से बेख़बर हो जातीं। अपनी ज़िंदगी में राकिया की अम्मा ने जितने चक्कर दुलाई के लगाए थे अगर उतना ज़मीन पर किसी एक दिशा में चलना शुरू करतीं तो ना मालूम धरती के कितने चक्कर पूरे कर लेतीं।

कच्ची सिलाई करने में दिन बीत जाता। इस बीच अगर कोई खाने को पूछ लेता, तो सुई को किसी मुनासिब मोड़ पर रोक दिया करती थीं। ख़ामोशी से खाना खातीं, कभी कोई यह जान सका कि मिर्च-मसाले की शौक़ीन हैं या सादे खाने की। मुर्ग़-मछली देखकर चेहरे पर मुस्कान सजी और ही दाल सब्ज़ी उन्हें रुसवा कर पाई। खाने के बाद अगर पान मिले तो उनके मुंह से दो लफ़्ज़ बरामद हो ही जाते थे। उस घर की बहु को 'दुल्हिन' या बेटी को 'बिटिया' के नाम से मुख़ातिब करते हुए उसमे 'पान' जोड़ दिया करतीं। सभी जानते थे की ज़रा सी तम्बाकू वाला पान अब बाक़ी दिन इनके मशीन जैसे जिस्म में तेल का काम करेगा और दुलाई में अच्छे ख़ासे तागे डालकर ही राकिया की अम्मा उसको समेटेंगी।

नाज़-नख़रे वाली एक दुलाई पूरी होने में डेढ़ से दो दिन लग जाया करते थे और इसका जोड़ा पूरा करने में तीन से चार दिन। अकसर लोग पुरानी दुलाइयां खोल कर उन्हें फिर से बनवाते तो भी इतना ही वक़्त लगता था। राकिया की अम्मा, पुरानी दुलाई को भी उसी सलीक़े से सीने बैठतीं जिस लगन से वह जहेज़ की दुलाई सिया करती थीं।

ऐसा लगता था कि उनकी ख़ामोशी का उनके हुनर से बड़ा गहरा ताल्लुक़ हैं। सुई की बदौलत टंकने वाले ये टांके शायद उनके अलफ़ाज़ का बदल थे या उन्होंने कोई ऐसी मन्नत मान ली थी कि जितना वह ख़ामोश रहेंगी उतना ही उनका हुनर शानदार रहेगा। हालांकि कभी किसी ने उन्हें इन बोले गए दो चार अलफ़ाज़ पर अफ़सोस करते भी नहीं देखा था। राकिया की अम्मा का हुनर बस यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाता था। पुरानी साड़ी, गरारा और शलवार जम्पर से भी वह बड़ी ही ख़ूबसूरत दुलाइयां बना दिया करती थीं। मोहल्ले की दूर बियाही बेटियां या कई रिश्तेदार इस हुनर की क़द्र करते थे और अपनी शादियों के झिलमिलाते दुपट्टे, साड़ियां या फिर ग़रारे इस नियत से संभालकर रख लिया करते थे कि इस सीज़न में राकिया की अम्मा को बाक़ी सामान देकर दुलाई ज़रूर सिलवानी है। बेटी के जहेज़ में दुलाई देकर ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाया करती थी क्योंकि मोहल्ले भर के नाती-पोतों की छठी की दुलाई का बयाना भी राकिया की अम्मा के पास ही रहा। सुनहरी, रुपहली दुलाइयां, सलमा-सितारों और धनक-चंपा से सजी दुलाइयां।

कभी-कभी ऐसा भी लगता कि उन्होंने अपनी ख़ामोशी को तैयार हो रही दुलाई की हरारत से जोड़ लिया है। वह जितना ख़ामोश रहेंगी उतना ही यह दुलाई ओढ़ने वाले को गर्मी देगी। अगर वाक़ई उन्होंने ऐसा कुछ सोच रखा था तो उनकी सोच ग़लत नहीं थी। क़द्रदान इस दुलाई के आगे बाज़ार के कम्बल और रज़ाइयां किनारे कर दिया करते थे। माएं भी अपने बच्चों को उनकी सिली दुलाई के हवाले करके मुतमईन हो जाया करती थीं।

राकिया की अम्मा का यह हुनर मोहल्ले और शहर तक नहीं फैला था बल्कि परदेस में भी उनके क़द्रदान थे। हां, ख़ुद राकिया की अम्मा इस बात से बेख़बर थीं। काम से काम रखने वाली राकिया की अम्मा ज़रूरत भर का बोलतीं थी और सिलाई भर का सुनती थीं। उन्हें क्या ख़बर कि उनकी तैयार इस दुलाई को कौन कहां भेज रहा है, मगर भेजने वाले इसे लंदन अमरीका भी पहुंचा चुके थे।

वतन से भेजे गए इस शाही तोहफ़े से लोगों ने ख़ूब-ख़ूब रिश्तेदारियां मज़बूत कर डालीं थीं। मोहल्ले की बेटियों के ससुराल दर ससुराल उनकी कारीगरी जहेज़ में सज-सज कर वाहवाही लूट चुकी थी। इस फले-फूले कारोबार से बेनियाज़ राकिया की अम्मा ने अपनी जो रेटशीट बनाई थी, उसमे आठ-दस बरस तक कोई बदलाव नहीं होता था। उनका हमेशा का उसूल था कि एक वक़्त में एक दुलाई सीतीं और अपना मेहनताना ले लेतीं।

मरहूम की कभी किसी पर उधारी नहीं रही। इधर तैयार दुलाई तह की और उधर डेढ़ सौ रुपया एक दुलाई की क़ीमत वसूली। खाना और चाय-पान उनको हमेशा उनका बोनस लगा करता था। जिन दिनों सख़्त गर्मी होती, उन दिनों राकिया की अम्मा का सीज़न ऑफ़ चलता। रुई का काम इतना हाथों को पसीज देता था कि सुई पकड़ना मुहाल हो जाता। बाक़ी पूरा साल उनके पास ख़ूब काम रहता और इसी सालभर की थोड़ी सी बचत में अपनी गर्मी के दिन वह गुज़ार लिया करतीं।

जाड़ेभर काम करते-करते जिस्म ऐसा गठरी बन जाता कि गर्मी में भी यह गठरी पूरी तरह से नहीं खुलती थी। जब कभी सीधा होने की कोशिश की तो कंधे जवाब देने लगे और उस हद तक झुककर ही चैन लिया, जब तक एक कूबड़ सा बन गया। कभी सीधी हुईं भी तो लगा कि गिरेंगी नहीं मगर तकलीफ़ में हैं।

उनको देखकर समझना आसान था कि झुकी हुई कमर, सामने देखने की कोशिश में चेहरे को ऊंचा कर दिया करती है।राकिया की अम्मा भी इसी जिस्म में ढल गई थीं। दुलाई सीतीं तो हुनर के आगे सिर झुका लेतीं लेकिन जब चलतीं-फिरतीं तो झुकी कमर को सीधा कर पाने की कोशिश शायद चेहरे पर आज़मा लिया करती थीं। इस कोशिश में चेहरा थोड़ा आगे जाया करता था।

क़ब्रिस्तान से आने वाले लोग अपने-अपने घरों को पहुंच चुके थे। सभी जानते थे कि राकिया की अम्मा का कोई ऐसा सगा नहीं था जो उनके लिए आंख नम करता या अगले रोज़ उनकी क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ने जाता। मगर ऐसा नहीं था। नूर टेलर मास्टर का बेटा फ़िरोज़ आज फ़जिर की नमाज़ के बाद ही घर से निकल गया था। उनकी क़ब्र पर पहुंच कर निढाल सा फ़िरोज़ घुटनों के बल बैठ गया। सूजी हुई लाल आंखें उसके रतजगे और रोने की गवाही दे रही थीं। वह ज़्यादा देर बैठ सका। सजदे के अंदाज़ में उनकी क़ब्र से माथा टेक दिया और हिचकियों से रोता रहा।

बहुत देर बीत गए थी। फ़िरोज़ वहीं बैठा रहा और सोचता रहा। बीते पांच बरसों से वह राकिया की अम्मा से दुलाइयां सिला रहा था। उसकी छोटी सी दुकान पर औरतें लेडीज़ सूट सिलवाने आती थीं। दुकान में तो बहुत नुमाइश का सामान था और ही कोई मददगार। नूर टेलर मास्टर का घर राकिया की अम्मा के घर से दो मकान छोड़ कर था। मास्टर साहब ने अपने एकलौते बेटे को भी सिलाई-कटाई का हुनर सिखा दिया था। हालांकि मास्टर साहब उसे पढ़ाना चाहते थे। मुट्ठीभर कमाई और मास्टर साहब का जज़्बा, फ़िरोज़ के निकम्मेपन के आगे ज़्यादा देर टिक सका। फ़िरोज़ का दिल जब किसी सूरत पढ़ाई में लगा तो थक-हारकर नूर मास्टर ने उसे भी सिलाई-कटाई सीखने की ख़ातिर दुकान पर ले जाना शुरू कर दिया। फिरोज़ ने काम की शुरुआत जम्पर के दामन में हाथ की बख़िया से की। मशीन से तैयार जम्पर में हाथ की बख़िया क़द्रदान लोग कराते थे और इसके लिए उस वक़्त दस रुपये ज़्यादा चार्ज किए जाते थे। फ़िरोज़ ने ज़रूरत भर का काम सीख लिया तो नूर मास्टर ने भी उसका ब्याह करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी।

फ़िरोज़ को याद रहा था कि कैसे पांच बरस पहले एक ग्राहक किसी बेहतरीन दुलाई सीने वाली की तलाश में उसकी दुकान तक पहुंच गई थी। फ़िरोज़ को ख़ुराफ़ात सूझी तो कह गया कि- ‘'मेरी बेवा बहन सीती है मगर बाहर के काम नहीं करती।'’ ग्राहक की ग़रज़ इतनी ज़्यादा थी कि मुंह मांगी क़ीमत देने को तैयार हो गईं। अब फ़िरोज़ ने एक दिन का वक़्त मांगा और शाम को जब घर आया तो राकिया की अम्मा से बात की। उस वक़्त राकिया की अम्मा सौ रुपये में एक दुलाई सिया करती थीं। फ़िरोज़ ने उन्हें बाहर से काम लाने की बात बताई तो राकिया की अम्मा भी राज़ी हो गईं। अगले दिन वह मोहतरमा पूरे सामान के साथ फ़िरोज़ की दूकान पर मौजूद थीं। फ़िरोज़ ने भाव बढ़ाने के लिए दोहराया- '’मेरी बेवा बहन बस घरवालों के लिए सीती है।‘' बड़ी बी ने उसे राज़ी करने की ख़ातिर कहा-‘'समझ लेना अपनी नन्द के जहेज़ के वास्ते सी रही है। तुम्हारा बड़ा एहसान होगा। मेरी ख़्वाहिश है कि बड़ी बेटी के जहेज़ में लखनव्वा दुलाई दी थी तो इसके साथ क्यों हक़तल्फ़ी करें।‘'

अंदर ही अंदर राज़ी फ़िरोज़ ने इस बात पर ऊपर से भी रज़ामंदी दे दी- "कैसी बात करती हैं ख़ाला! अब समझिए मेरी बहन अपने जहेज़ में शाही लखनव्वा दुलाई लेकर ही रुख़सत होगी।''

बड़ी बी ने झट से पांच सौ रुपये फ़िरोज़ के हाथ में रखे और बोलीं- ''यह एक दुलाई की क़ीमत पेशगी रखो और जिस दिन तुम जोड़ा सिलकर लाओगे बाक़ी रक़म भी अदा कर दूंगी।'' नोट गिरफ़्त में आते ही फ़िरोज़ को रगों में ख़ून फर्राटे मारता महसूस हुआ। सपाट चेहरे से उसने कहा- ''कभी बाहर का काम नहीं किया मगर आप ने बात ऐसी कह दी है कि अब बहन से यह लेते भी शर्मिंदगी हो रही है।''

''कोई बात नहीं। इसे मेहनताना नहीं, मेरी ख़ुशी समझ कर रख लो।'' बड़ी बी ने रक़म के बाद उसे ढेरों दुआएं भी दे डालीं।

चौथे दिन जब फ़िरोज़ ने राकिया की अम्मा से दुलाई लेकर बड़ी बी के हवाले की तो उसकी जेब में आठ सौ रुपये थे। इतना पैसा कमाने में तो उसे दो या तीन दिन की मेहनत लगानी पड़ती थी, उसमे भी काज-बटन, बख़िया, तुरपाई जैसे काम वह बीवी के मत्थे मढ़ दिया करता था।

फ़िरोज़ का सिलाई में दिल नहीं लगता था। अब्बा के बाद से उसके ग्राहक भी काफ़ी कम हो गए थे। वक़्त के साथ उसने नए फ़ैशन के कपड़े बनाने में दिलचस्पी नहीं ली और ग्राहकों को उसमे दिलचस्पी नहीं रही। दिनभर में एक सूट काटकर सीना भी अब उसके लिए मुश्किल हो गया था। ऐसे में दुलाई की यह रक़म उसे लॉटरी नज़र रही थी। ऐसी लॉटरी जिसे वह हर दिन खेलना चाहता था। ख़ाला शाही दुलाई देख बलिहारी हुई जा रही थीं। जब फ़िरोज़ ने उन्हें मुख़ातिब किया- ''खाला! यह तो बहन का काम था। मेरी बेवा बहन ऐसा और काम करने को राज़ी है जिसमे बाहर निकलने से बच सके। आप ध्यान रखिएगा। घर बैठे उसका हुनर ख़त्म हो जाए, से अच्छा है कि कुछ काम करके चार पैसे ही जाएं।''

‘'हां हां, क्यों नहीं, हमारे ख़ानदान में अभी लखनव्वा दुलाई का रिवाज बाक़ी है। ख़ानदान भर में बोल दूंगी। इंशाअल्लाह तुम्हारी बहन का हुनर भी ख़ूब चमकेगा और चार पैसे भी मिल जाएंगे।''

आज पहली बार फ़िरोज़ मियां इस बात पर शुक्रगुज़ार हुए थे कि अब्बा मियां ने दुकान घर से ख़ासी दूर ली थी। सुकून इस बात का भी था कि इस काम की भनक भी मोहल्ले तक जा सकेगी।

फ़िरोज़ ने जब इन नोटों को अकेले में देखा तो एक बार उसका दिल लरज़ा था। फिर जल्दी ही उसने ख़ुद पर क़ाबू भी पा लिया। वह ऐसा था तो नहीं और ना ही उसने ऐसा बनना चाहा था। मगर आज वो ऐसा हो चुका था। आज की इस हरकत को वह बार-बार अपने ज़ेहन से झटकने की कोशिश करता मगर हर बार नाकामयाब होता। उसे फिर ख़याल आया कि मां-बाप भी उसे अच्छा इंसान बनने की सीख दिया करते थे। उनकी आंखों में उसने कई बार अपनी कामयाबी और नेकियों की हसरतें देखी थीं। वही हसरतें जिन्हे अब्बा दुआ में खामोशी से मांग लिया करते मगर अम्मी लफ़्ज़ों में बयान कर दिया करती थीं।

फ़िरोज़ को याद है जब बचपन में अम्मी उसे स्कूल भेजने के लिए तैयार करतीं तो मुस्तक़िल अल्लाह से उसकी कामयाबी की दुआ करती जातीं। ऐसा लगता था की चंद घंटों बाद फ़िरोज़ की वापसी किसी अफ़सर की शक्ल में होने वाली है।

कई बार फ़िरोज़ को ऐसा लगा था कि वह भी पढ़ जाता अगर वह मदरसानुमा स्कूल ज़रा ढंग का होता। ख़स्ता इमारत में टूटे फ़र्नीचर वाला स्कूल, जिसमे बेतरतीब यूनिफ़ॉर्म वाले बच्चे उसे कभी भी अच्छे नहीं लगे। स्कूल के टीचर तो उसे बच्चों से ज़्यादा बेढंगे नज़र आते थे। बस एक उसकी मां ही उसे सजा-संवारकर भेजती थीं बाक़ी यहां आने वाले बच्चे और उस्ताद जैसे बिस्तरों से निकलकर सीधे क्लास में जाया करते थे। फ़िरोज़ को अंदाजा था कि यूनिफार्म और अच्छे बस्ते वाले स्कूल में जाने की उसकी हैसियत नहीं और फिर पढ़ाई से उसे बेदिली होती गई। बेटे की अफ़सरी से जुड़ी अम्मा की उम्मीदें भी टूटने लगी थीं मगर उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि फ़िरोज़ का ईमान भी कमज़ोर निकल जाएगा।

फ़िरोज़ मियां के पास काम तो आया मगर तीन-चार महीने में दो-तीन दुलाई से उन्हें तसल्ली नहीं मिली। फिर इस कारोबार को आगे बढ़ाने का सोचा। सिलाई के जानकार थे। कपड़े की तमीज़ थी और रंगों का भी सलीका ठीक-ठाक था। एक जोड़ी दुलाई का कच्चा माल ले आए। फ़ाइबर वाली रुई लेने में ज़रा झिकझिक हुई मगर सुनहरी जाली का उपल्ला किफ़ायती क़ीमत पर मिल ही गया जिसके अंदर झलकता साटन का सुर्ख़ अस्तर किसी भी क़द्रदान को लालच दिलाने के लिए काफ़ी था। साटन की ही गोल्डेन गोट में जैसे शाही दुलाई पर शाही फ़्रेम का एहसास उन्हें बड़ा भला लगा था। राकिया की अम्मा ने जब दुलाई पर सुनहरी चंपा से किनारों को सजाया तो फ़िरोज़ मिया का मुंह और आंखें दोनों ही खुली की खुली रह गई थीं। ख़ुद राकिया की अम्मा भी अपने कूबड़ को धकेल कर पूरी खड़ी थीं और इस तरह दोनों हाथ अपनी कमर के पीछे बांध लिए थे कि अपने आप को भी थाम लिया और फ़िरोज़ मियां से बिना कुछ कहे अपनी फ़तह का एलान भी कर दिया। राकिया की अम्मा के चेहरे की मुस्कराहट के साथ होंठों के दोनों तरफ बनी लकीरों में बसा पान का रंग आज साफ़ नज़र रहा था।

एक झिझक फिर फ़िरोज़ के भीतर कौंधी मगर उसने इस ख़याल को धकेलने के लिए अपनी आंखे चमकीली दुलाई में धंसा दीं। ख़याल पर हावी होने के लिए दुलाई को थामना ज़रूरी लगा। उसने अपना हाथ दुलाई के उपल्ले से गोट तक इस तरह सहलाते हुए फेरा कि '’यह क्या कर रहे हो फ़िरोज़ मियां?’' वाला सवाल मचलने से पहले ही नींद की आग़ोश में समां गया। अब उसने ख़ुद से कहा- ''मैंने ऐसा कब बनना चाहा था? यह तो हालात ने ऐसा बना दिया।''

दुलाई को नज़र भरकर देखने के बाद फ़िरोज़ मियां ने इसे चादर में लपेटा और दुकान पहुंच गए। अच्छी पैकिंग का इंतिज़ाम करने के बाद हाजी साहब फ़र्नीचर वाले के शोरूम का रुख़ किया। हाजी साहब का फ़र्नीचर का ठीक-ठाक कारोबार था। छोटे-बड़े सभी क़िस्म के लकड़ी के सामान बेचते थे।

अकसर बेटी का जहेज़ लेने वाले यहां पूरा सामान एक साथ लेने आया करते थे। हाजी साहब के केबिन में पहुंचकर फ़िरोज़ मियां ने शाही लखनव्वा दुलाई दिखाई और उन्हें बेवा बहन का ऐसा दर्दभरा क़िस्सा सुनाया कि उस वक़्त हाजी साहब भी उनके ग़म में बराबर के शरीक हो गए। फ़िरोज़ मियां ने कुछ ही देर में हाजी साहब को इस बात पर राज़ी कर लिया कि अगर कोई जहेज़ लेने आए तो आप उसे यह लखनव्वा दुलाई भी ज़रूर दिखा दें।

हाजी साहब को दुलाई की पांच हज़ार रुपये क़ीमत बताने से पहले फ़िरोज़ मियां इस पर ख़र्च की गई मेहनत और लागत का जो नक़्शा खींच चुके थे वह इस तरह था- ''इसे कहते हैं शाही लखनव्वा दुलाई। कोई मशीन से तो बनी नहीं है। पांच से साथ परतों को तले ऊपर बिछाना, उन्हें साधते हुए औरेबी गोट वाले किनारे बनाना। एक-एक टांका सुई से लगा है, मशीन से कोई काम नहीं हुआ इसमें। आहिस्ता-आहिस्ता की जाने वाली इस सिलाई में आंखे फोड़ने के साथ कमर भी दोहरी हो जाती है। एक जोड़ा तैयार होने में एक हफ़्ता लग जाता है। बनाने वाले भी शहर में नहीं बचे और जो बचे भी हैं तो इसलिए नहीं बनाते कि कोई इसकी मज़दूरी नहीं अदा कर पाएगा।''

हाजी साहब को हैरान देख फ़िरोज़ मियां आगे बोले- ''बेवा बहन इसमें लगी रहेगी तो एक हुनर भी बचा रहेगा और ख़ुद को मजबूर बेसहारा भी समझेगी।'' आख़िरकार हाजी साहब को कहना ही पड़ा- ''ठीक है रख जाओ। वादा नहीं करता मगर कोशिश रहेगी कि कोई इसे ख़रीद ले।''

बेवा बहन वाला तीर निशाने पर लगा था। हाजी साहब की उधेड़बुन आख़िर इस नतीजे पर पहुंची कि जहेज़ लेने आया ग्राहक अगर एक लाख से ज़्यादा की ख़रीदारी करेगा तो बेटी के लिए शाही दुलाई का तोहफ़ा हाजी साहब की तरफ से हो जाएगा। तीसरे ही दिन हाजी साहब ने यह शाही दुलाई भी एक जहेज़ के साथ पैक करवा दी। शाम को उन्होंने फ़िरोज़ मियां को बुलाया और पंद्रह हज़ार रुपये उनके हाथ में रखे। ''यह रक़म अपनी बहन को दीजिएगा और उनसे कहिएगा कि जितनी जल्दी हो सके ऐसी ही दो जोड़ी दुलाइयां और बना दें।''

हाजी साहब ग्राहक को दिए गए इस तोहफ़े की बदौलत वाहवाही भी लूट रहे थे और बेवा बहन की मदद कर के मुतमईन भी ख़ूब थे। उन्हें अंदाज़ा था कि अभी तो काम चल रहा है मगर जब सीज़न होगा तो दुलाइयां कम पड़ सकती हैं। फ़िरोज़ मियां को उन्होंने समझाया कि बहन से कहो कि इस काम को थोड़ा और बढ़ा ले और एक-दो लोगों को शामिल भी कर ले। फ़िलहाल उन्होंने हर महीने के हिसाब से पांच जोड़ी दुलाइयां बनवा कर जमा करनी शुरू कर दी थीं ताकि सीज़न के दिनों में उन्हें ग्राहक के सामने रुसवा होना पड़े।

नए कारोबार की एक हरारत सी सारे दिन फ़िरोज़ मियां ने महसूस की। अच्छी रक़म और बहुत सारे ख़्वाब वह जागती आंखों से देख रहे थे। पैडल घुमाने वाली सायकिल की जगह सेकेण्ड हैंड पेट्रोल से चलने वाली दुपहिया। पहले दुकान की मरम्मत कराएं या पहले घर की, इस ख़याल की उधेड़बुन में उन्हें राकिया की अम्मा की भी फ़िक्र थी। कभी दिल बड़ा करके सोचते उन्हें पचास रुपया हर दुलाई पर बढ़ाकर देंगे और फिर ख़ुद से ही कहते कि अभी जल्दबाज़ी की ज़रूरत नहीं। थोड़ा काम पनप गया तो पचास कर देंगे। अभी पच्चीस ही काफ़ी हैं।

बेवा बहन का ख़्याल आया तो ख़ुद--ख़ुद एक शातिर सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर गई और अगले ही लम्हे यह मुस्कराहट इसलिए ग़ायब हो गई क्योंकि अम्मी की नसीहत भी कहीं किसी कोने से दुबककर निकल आई थी। बचपन में अम्मी उसे बड़े प्यार से समझाती थीं- ''अल्लाह ताला ने हर इंसान के दिल को बड़ा पाक बनाया है मगर जब वो कोई गुनाह करता है तो एक स्याह नुक़्ता उसके दिल पर लग जाता है। तौबा करने से यह नुक़्ता साफ़ हो जाता है लेकिन अगर इंसान तौबा नहीं करता तो ये नुक़्ता भी अपनी जगह मौजूद रहता है। फिर जब-जब इंसान गुनाह करता है तब-तब एक नुक़्ता और बढ़ता जाता है।'' अम्मी का बयान उसके ख़्याल में में जारी था। अम्मी कह रही थीं- ''... और फिर एक दिन इंसान का दिल स्याह हो जाता है।''

ख़्वाब छितर गए थे। नोटों की हरारत और अम्मी की नसीहत में कशमकश जारी थी। फ़िरोज़ मियां के ज़ेहन में कभी स्याह दिल अपना वजूद बढ़ाता और कभी अच्छी दुकान, सहूलियतों वाला घर और तमाम ऐसी ही अधूरी ख़्वाहिशें जिनसे वह बचपन में महरूम रह गए थे। फिर इसी सबके बीच वही दुलाई भी ज़ेहन के अंदर ही गई जिसपर उन्होंने एक बार फिर से अपनी आंखें धंसा दी थीं। फ़िरोज़ मिया ने तमाम नेक ख़यालात को यही दुलाई उढ़ाने के बाद थपककर सुला दिया था। उनका हाथ आहिस्ता-आहिस्ता उपल्ले से गोट की तरफ़ बढ़ रहा था और फिर वही ख़्याल- ''मैंने ऐसा कब बनना चाहा था? यह तो हालात ने ऐसा बना दिया।''

अब फ़िरोज़ मियां भी कच्चा माल ख़ूब पड़ते में उठा लिया करते थे और राकिया की अम्मा को भी पता था कि हर महीने पांच जोड़ी दुलाइयों का काम कहीं नहीं गया है। हर महीने डेढ़ हज़ार बंधी कमाई की उम्मीद हुई तो उन्होंने भी तय कर लिया था कि पहले चश्मा बनवाएंगी, फिर जल्दी ही नए दांत का सेट भी लगवाने का इरादा था।

चश्मे और दांत के नए सेट के ख़याल ने यह भुला दिया था कि राकिया की अम्मा की अपनी जड़ावल इस सर्दी में नाकाफ़ी होगी। कमरे की सीलन और कड़कड़ाती ठंड ने उन्हें बीमार कर दिया था। सड़क पार वाले डॉक्टर से दवा तो ला रही थीं मगर फ़ायदा नहीं हुआ। बुख़ार ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। जिस्म कमज़ोर होने लगा तो बिस्तर से लग गईं। फ़िरोज़ मियां को बाक़ी मोहल्ले से ज़्यादा उनकी फ़िक्र थी। कुछ दिन दवाई ख़ुद से ले आए मगर जांच कराने की ज़हमत की। जब हालत ज़्यादा बिगड़ी और फ़िरोज़ मियां उन्हें लादकर अस्पताल पहुंचे तो डाक्टरों ने बताया कि निमोनिया हो गया है और बचने के आसार कम हैं।

सबके मशवरे से यह तय हुआ कि भर्ती रखने में ही भलाई है। घर पर कौन उनका सगा बैठा है जो तीमारदारी करेगा। राकिया की अम्मा दो दिन ज़िंदा रहीं मगर बेसुध। जब उनकी मौत की ख़बर मिली तो फ़िरोज़ मिया घर पर ही थे। गली में बातें हो रही थी कि जितनी जल्दी हो सके ग़ुस्ल देकर सुपुर्द--ख़ाक किया जाए। कुछ औरतें उनके कमरे में दाख़िल होकर मय्यत रखने का इंतिज़ाम कर रही थीं और कुछ ग़ुस्ल के पानी का। इसी बीच किसी घर से सुलगता हुआ लोबान गया था। क़रीब की मस्जिद से तीन बार एलान गूंजा- ''राकिया की अम्मा नहीं रहीं। इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलैही राजिऊन। उनकी नमाज़ जनाज़ा ज़ोहर बाद होगी।''

'सफ़र में इतिहास' संग जो महसूस किया

'सफर में इतिहास' हाथ में आई तो ख्यालात का एक न थमने वाला सफ़र साथ हो लिया। मेरे लिए इस किताब का अनुभव बड़ा ही दिलचस्प रहा। किताब के पल...