शनिवार, 24 मई 2025

हिन्दुस्तानी अदब के मेमार- नय्यर मसूद

 साहित्य अकादमी का नय्यर मसूद पर पब्लिश मोनोग्राफ ‘हिन्दुस्तानी अदब के मेमार- नय्यर मसूद’  पढ़ना अच्छा लगा। 'शहर--अदब' और 'शहर--सुख़न' जैसे हवालों पर ज़माने की जो गर्द गई है, उसे इस तहरीर ने जैसे साफ कर दिया। हर पलटते पन्ने के साथ नय्यर मसूद की शख्सियत नुमाया होती गई और इस बात का एहसास भी बढ़ता गया कि इस मोनोग्राफ की बदौलत अदब और सुखन से इस शहर के रिश्ते में एक मज़बूत गिरह लगाने वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

इस मोनोग्राफ को लिखने के लिए अगर महज़ एक फ़ोन की मदद लेकर शोएब साहब का शुक्रिया अदा किया जाए तो यह ज़्यादती होगी। और तब इरादा किया कि जिस शख्स ने यह काम किया है, उससे फोन पर इतनी बात-चीत तो कर ही लें कि कुछ लिखा जा सके।

शोएब साहब यानी शोएब निज़ाम रिटायर प्रिंसिपल रहे हैं। मेरे बुज़ुर्ग दोस्त हैं और अदब के उन जानकारों में से हैं जिनके पास मुल्क नहीं दुनियाभर के अदब और अदीबों से जुड़ी ढेरो-ढेर जानकारियां है। उनकी मालूमात का हवाला हम क्या देंगे जिनका चुनाव खुद साहित्य अकादमी ने किया हो। लेकिन शोएब निज़ाम से पहले नय्यर मसूद को समझना ज़्यादा ज़रूरी है।

साहित्य अकादमी ने अगर नय्यर मसूद साहब के नाम का इंतिखाब किया तो यक़ीनन उनकी खूबियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बीसवीं सदी की तीसरी दहाई में पैदा हुए नय्यर मसूद का घराना ईरान से ताल्लुक रखता है। इनका खानदानी पेशा हकीमी था मगर वालिद इन्हें एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में भेजना चाहते थे और उस वक्त की मुनासिबत से तय हुआ कि इन्हें फारसी पढ़ाई जाए। मगर नय्यर मसूद लखनऊ यूनिवर्सिटी में फ़ारसी के प्रोफेसर बने।

लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन के दौरान नय्यर मसूद की दोस्ती शम्सुर्रहमान फारूकी से हुई। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से 1964 में उन्होंने रजब अली बेग सुरूर और उनके कलमी आसार' पर अपनी पीएचडी मुकम्मल की। कुछ दिन शहर बरेली में बतौर उस्ताद पढ़ाने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी में फारसी के लेक्चरर हो गए। अफ़सानानिगारी के अलावा तनक़ीद (आलोचना), अनुवाद जिनमें काफ्का की कहानियां, बोर्खेस की नज्मों अलावा भी बहुत कुछ लिखने वाले नय्यर मसूद ने बच्चों के लिए भी लिखा है।  

नय्यर मसूद न सिर्फ एशिया बल्कि पूरी दुनिया के कुछ खास फ़ारसी दानिश्वरों में से हैं। वह ज़माने के जदीद (आधुनिक) उर्दू के अफसानानिगार होने के साथ आला दर्जे के मुतर्जिम (अनुवादक) भी हैं। नय्यर मसूद की कहानियों में वजूदियत (अस्तित्ववाद) के अलावा जादुई हक़ीक़त पसंदी और तहज़ीब का असर साफ झलकता है। नय्यर मसूद काफ्का, कैमियो, पिंचन, एडगर एलन पो, ब्रैंट और दोस्तोवस्की से मुतास्सिर थे।

अदब की खिदमत के लिए नय्यर मसूद को जिन अवॉर्ड से नवाजा गया है उनमें साहित्य अकादमी और सरस्वती सम्मान (ताऊस चमन की मैना, 2007), कथा अवॉर्ड (1992_93), उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी अवॉर्ड, राष्ट्रपति सम्मान ओर ग़ालिब अवॉर्ड के अलावा भी तमाम नाम शामिल हैं।

 साहित्य अकादमी के लिखे इन मोनोग्राफ का मक़सद होता है कि हिन्दुस्तान की एक ज़बान की अदबी हस्ती के कारनामों से बाक़ी ज़बानों के लोग भी वाक़िफ़ हों। भारत की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी देश में अदब को बढ़ावा देने वाली ऐसी केंद्रीय संस्था है 24 भारतीय ज़बानों में अदबी सरगर्मियां करती है।

हालांकि शोएब साहब बड़ी ही बेतकल्लुफी से इस बात का ज़िक्र करते हैं कि जब पिछले बरस साहित्य अकादमी ने ये तय किया कि नय्यर मसूद पर मोनोग्राफ लिखा जाएगा, तो उस वक़्त पद्म श्री से नवाज़े गए शीन क़ाफ़ निज़ाम को भी यही लगा कि इस काम के लिए सबसे मुनासिब नाम शोएब निज़ाम का ही हो सकता है। 

अक्टूबर या नवम्बर 2024 में साहित्य अकादमी के उर्दू विभाग से शीन क़ाफ़ निज़ाम उर्फ़ शिव किशन बिस्सा ने शोएब निज़ाम से कहा कि वह नय्यर मसूद साहब पर उर्दू में एक मोनोग्राफ लिखें जो साहित्य अकादमी के लिए होगा। शीन क़ाफ़ निज़ाम ने उन्हें इस लिए चुना था क्योंकि शोएब निज़ाम, नय्यर मसूद के ख़ास शागिर्द होने के साथ-साथ उन पर कई आर्टिकल लिख चुके थे।

इस फरमाइश के जवाब में शोएब निज़ाम ने अनीस अशफ़ाक़ के नाम की पैरवी यह सोचकर की कि वह इसे ज़्यादा बेहतर कर सकेंगे। शीन क़ाफ़ निज़ाम ने जब अनीस अशफ़ाक़ से राब्ता किया तो इत्तिफ़ाक़ से उन दिनों उनकी सेहत ठीक नहीं थी और वह किसी और काम में ऐसे उलझे हुए थे कि कि इस मोनोग्राफ के लिए शोएब निज़ाम को खुद से ज़्यादा बेहतर तरीके से अंजाम देने वाला बताया। इस तरह शोएब निज़ाम का नाम इस काम के लिए तय हो गया।

शोएब निजाम की अलीगढ़ से मोहब्बत ने इस मोनोग्राफ के मुकम्मल होने में बड़ा ही बेहतरीन रोल अदा किया है। शोएब साहब को अलीगढ़ से कुछ ख़ास दिलचस्पी थी और किसी भी कॉन्फ्रेंस या सेमीनार के बहाने वहां पहुंचने की कोशिश भी किया करते थे। एक ऐसी ही कामयाब कोशिश के मौके पर ज़फर अहमद सिद्दीक़ी ने शोएब साहब से कहा कि आपसे एक काम है। जब जवाब मिला- 'हुक्म कीजिए' तो इस पर ज़फर साहब ने उन्हें एक शागिर्द महजबीं खान से ये कहकर मिलाया कि इसकी पीएचडी नय्यर मसूद साहब पर है और आप इसकी मदद कर दीजिए।

 उस रिसर्च के बहाने खुद शोएब साहब ने भी अपने उस्ताद की ज़िंदगी को एक बाइस्कोप की तरह से प्ले किया और इस तरह किया कि सिलसिलेवार उनकी ज़िंदगी के हर लम्हे से गुज़रते चले गए।

 मोनोग्राफ पढ़ा तो शोएब साहब के लिए के लिए उस्ताद के हवाले से अफीफ सिराज का ये शेर याद आया-

''आज हुए मजबूर हम ऐसे, हार के हमने माना है
तुमने हमको हमसे बेहतर जाना है पहचाना है।''

 महजबीं खान को पीएचडी कराने के दौरान जो जानकारी जमा हुई उसमे सबसे बढ़ा हिस्सा शोएब साहब की उस याददाश्त का था जो बतौर शागिर्द उन्होंने अस्सी की दहाई की इब्तिदा से उनके साथ या उनके ज़िक्र के साथ गुज़ारा था। इसके अलावा बाक़ी जानकारी नय्यर मसूद साहब के साहबज़ादे तिमसाल मसूद की बदौलत मिली। और कुछ हिस्सा नय्यर साहब पर रिसर्च कर रही इस इस्टूडेन्ट ने जमा किया था।

 इस रिसर्च को कराते हुए नय्यर मसूद की ज़िंदगी की सिलसिलेवार दस्तावेज़ी जानकारी शोएब साहब के ज़ेहन में जमा हो चुकी थी। यही वजह रही कि जब मोनोग्राफ पर काम शुरू किया गया तो इसमें ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।

 क़रीब सौ पन्नो वाले इस मोनोग्राफ, 'हिन्दुस्तानी अदब के मेमार- नय्यर मसूद' के ज़रिये उनकी ज़िंदगी से मौत तक की तमाम छोटी बड़ी जानकारियों को इसमें शामिल किया गया है। उनकी ज़िंदगी के खाके के साथ अफसा नानिगारी, तहक़ीक़, तनक़ीद (आलोचना), बच्चों का अदब और तर्जुमे के अलावा मुख्तलिफ गैरअफसानवी कारनामे भी शामिल हैं।

 हालांकि साहित्य अकादमी के लिए शोएब साहब का पहला मोनोग्राफ मिर्ज़ा यास यगाना चंगेज़ी पर साल 2015 में आया था। इससे पहले उर्दू अकादमी के लिए अनीस अशफ़ाक़ के मिर्ज़ा यास यगाना चंगेज़ी पर लिखे मोनोग्राफ पर शोएब साहब को कुछ ऐतराज़ थे और किताब का जवाब किताब से देते हुए उन्होंने साहित्य अकादमी के मोनोग्राफ की सूरत में अपनी बात कही। इस मोनोग्राफ को अदबी दायरे में खासी मक़बूलियत मिली।

 'हिन्दुस्तानी अदब के मेमार- नय्यर मसूद' के हवाले से शोएब निज़ाम कहते हैं कि इसे पढ़ने वाला इस हद तक जान सके कि हिस्पानवी शायर बोर्खेस की नज़्में हो या फिर सूफी के ड्रामे का तर्जुमा, नय्यर मसूद ने इन सभी पर काम किया है।

 जब शोएब निज़ाम से जानना चाहा कि किस जानकारी को हासिल करने में उन्हें सबसे ज़्यादा वक़्त लगा तो मालूम हुआ वह 'हकीम-ए-नबातात' थी। टाइटल से शोएब साहब ने अंदाजा लगाया की ये हकीमी नुस्खे होंगे मगर सूरत ए हाल वह न निकली जो उन्होंने समझी थी। ये फ़ारसी में तर्जुमा किए गए एक तुर्की ड्रामे की उर्दू पेशकश थी। इस तर्जुमे में अल्फ़ाज़ की रवानी और मुहावरे के इस्तेमाल इतने खूबसूरत थे कि तर्जुमे का एहसास ही नहीं होता था।

 शोएब साहब खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्हें नय्यर मसूद साहब की बैठकों में शामिल होने का मौक़ा मिला है। वह कहते हैं- ''मैं वहां बहुत बैठा हूं। बहुत पाबन्दी से बैठा हूं। इसलिए बैठा हूं कि वहां जी बहुत लगता था।''

 मिसाल देते हुए वह कहते- ''नय्यर साहब बहुत उम्दा गुफ्तगू करते थे। मसलन हॉलीवुड की फिल्मों की बात हो रही हो तो नय्यर साहब बताते कि मर्लिन मुनरो का चेहरा किस ज़ाविये (एंगल) से अच्छा लगता है। और यह ऐसे ज़िक्र थे जिसका हम लोग तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे।''

 शोएब निज़ाम कहते हैं- ''मैंने तमाम पढ़ने वालों को देखा है जो यह बताने की कोशिश में रहते थे कि देखो मैंने कितना पढ़ा है। इसके बरअक्स नय्यर साहब इसको छुपाते रहते कि उन्होंने कितना पढ़ा है। जब कोई मौज़ू छिड़ता और नय्यर साहब उस पर बोलते तो अंदाजा होता कि इस शख्स को कितनी जानकारी है।''

 आगे वह कहते हैं- ''नय्यर साहब के साथ जितना वक़्त गुज़रा वह मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत और यादगार ज़माना है। इसकी वजह यह है कि बहैसियत इंसान नय्यर साहब बहुत बड़े आदमी थे।''

 शोएब निज़ाम सन 1980 में नय्यर साहब के शागिर्द बने और उसके बाद यहीं मुलाज़िमत मिल गई। वह बताते हैं कि उस ज़माने में लखनऊ बड़े अदीबों से छलकता रहता था। एक वक़्त में लखनऊ में इतनी मारूफ अदबी हस्तियां थीं कि मैं अभी भी बिना रुके कम से कम 25 नाम गिना सकता हूं।

 बदले हुए दौर का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं कि अब मोबाईल ने उसकी जगह ले ली हैं मगर हमारे वक़्तों का तरीक़ा ये था कि जहां कोई नया रिसाला आया, हम सारे दोस्त रात में बैठकर उस रिसाले की अहम चीज़ों पर गुफ्तगू किया करते थे। तब हर शख्स की कोशिश ये हुआ करती थी कि पहली फुर्सत में रिसाला खरीद कर पढ़े।

 बाराबंकी जिला रोज़ागांव के रहने वाले शोएब निज़ाम ने नय्यर मसूद की सरपरस्ती में यास यगाना पर पीएचडी पर काम तो शुरू किया था मगर इस बीच कानपूर में मुलाज़िमत मिलने की वजह से रिसर्च मुकम्मल न हो सकी। उनका संग्रह ‘अक्स गुम-ए-गश्ता’ साल 2020 में आया और उनकी यादों की बुनियाद पर तैयार ‘सरे सय्यार गान-ए सुख़न’ 2021 में आया। उनका अगला नॉविल गर्द-ए-सफ़र छपने के लिए लगभग तैयार है।

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